वस्ल में ख़ुश कभी दिल हिज्र में जलते देखा
वस्ल में ख़ुश कभी दिल हिज्र में जलते देखा
इनायतुल्लाह रौशन बदायूनी
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वस्ल में ख़ुश कभी दिल हिज्र में जलते देखा
रंग नैरंग-ए-जहाँ से ये बदलते देखा
उफ़ रे ऐ दर्द-ए-जुदाई तिरे सदमे शब-ए-हिज्र
दिल की आँखों से लहू हो के निकलते देखा
दाग़ पर दाग़ उठाए जो लिखा था वो हुआ
सच है क़िस्मत के नविश्ता को न टलते देखा
कुछ तो है लुत्फ़-ए-मोहब्बत में जो होते हैं फ़ना
शम्अ परवाना को हर बज़्म में जलते देखा
देख कर चलिए ज़माने का नशेब और फ़राज़
खा के ठोकर जो गिरा फिर न सँभलते देखा
कौन होता है बुरे वक़्त में ऐ यार शरीक
ख़ाक पर छोड़ के तन रूह को चलते देखा
दाग़-ए-ताज़ा दिए नैरंग-ए-फ़लक ने उस को
बाग़-ए-आलम में जिसे फूलते फलते देखा
वक़्त की क़द्र न की लहव-ओ-लअ'ब में जिस ने
उम्र भर दस्त-ए-तअस्सुफ़ उसे मलते देखा
हो मिरे सामने क्या ख़ाक मुक़ाबिल को फ़रोग़
खोटा सिक्का कहीं बाज़ार में चलते देखा
फ़ुर्क़त-ए-तालिब-ओ-मतलूब ग़ज़ब है 'रौशन'
जान को जिस्म से रुक रुक के निकलते देखा
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