वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था
वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
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वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था
इक पिघलती मोम का सय्याल पैकर सामने था
मैं ने चाहा आने वाले वक़्त का इक अक्स देखूँ
बे-कराँ होते हुए लम्हे का मंज़र सामने था
अपनी इक पहचान दी आई गई बातों में उस ने
आज वो अपने तअल्लुक़ से भी बढ़ कर सामने था
मैं ये समझा था कि सरगर्म-ए-सफ़र है कोई ताइर
जब रुकी आँधी तो इक गिरता हुआ पर सामने था
मैं ने कितनी बार चाहा ख़ुद को लाऊँ रास्ते पर
मैं ने फिर कोशिश भी की लेकिन मुक़द्दर सामने था
सर्द जंगल की सियाही पाट कर निकले ही थे हम
आख़िरी किरनों को तह करता समुंदर सामने था
टूटना था कुछ अजब क़हर-ए-सफ़र पहले क़दम पर
मुड़ गई थी आँख हँसता खेलता घर सामने था
पुश्त पर यारों की पसपाई का नज़्ज़ारा था शायद
दुश्मनों का मुस्कुराता एक लश्कर सामने था
आँख में उतरा हुआ था शाम का पहला सितारा
रात ख़ाली सर पे थी और सर्द बिस्तर सामने था
- पुस्तक : Kulliyat-e-bani (पृष्ठ 89)
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