वो थे अपने तो हर इक दौर था हो कर अपना
वो थे अपने तो हर इक दौर था हो कर अपना
अब न तक़दीर न क़िस्मत न मुक़द्दर अपना
मै-कदा अपना है मय अपनी है साग़र अपना
ये अलग बात कि हक़ है न किसी पर अपना
कभी गिर्दाब था मौज अपनी थी गौहर अपना
अब नदी अपनी न दरिया न समुंदर अपना
बोरिया रहता सलामत न तो बिस्तर अपना
वो तो ये कहिए कि तकिया था ख़ुदा पर अपना
न सुकूँ भीड़ में दिल को न अकेले में क़रार
क्या ख़बर चाहता क्या है दिल-ए-मुज़्तर अपना
क्यों तड़प उठते न लोगों के तड़प उठने पर
वक़्त के दिल की तरह दिल नहीं पत्थर अपना
आप का हुस्न सलामत है ख़ुद आईना ख़राब
आप शर्मिंदा न हों देख के मंज़र अपना
वक़्त करता रहा तदबीर बराबर अपनी
काम करती रही तक़दीर बराबर अपना
सुर्ख़-रू क्यों न गुलिस्ताँ नज़र आएगा 'नसीब'
जज़्ब है ख़ून हर इक फूल के अंदर अपना
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