यार का पाँव तो आलम का दहाँ सर होता
यार का पाँव तो आलम का दहाँ सर होता
राजा गिरधारी प्रसाद बाक़ी
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यार का पाँव तो आलम का दहाँ सर होता
काशके मैं भी दर-ए-यार का पत्थर होता
बोसे लेता लब-ए-शीरीं के जो साग़र होता
शीशा होता तो मैं हम-पहलू-ए-दिलबर होता
जल्वा-फ़रमा जो कभी वो मह-ए-अनवर होता
शरफ़-ए-मंज़िल-ए-ख़ुर्शीद मेरा घर होता
दिल-ए-आशिक़ के ये सौ टुकड़े कहाँ से होते
तेग़-ए-अबरू में जो ग़म्ज़े का न जौहर होता
वरक़-ए-गुल पे तिरे चेहरे की लिखता तौसीफ़
रग-ए-बुलबुल से अगर रिश्ता-ए-मिस्तर होता
आतिश-ए-इश्क़ की दिल ही है कि लाता है ताब
ख़ाक होता जो इस आतिश में समुंदर होता
लब-ए-रंगीं का अगर रंग दिखाता वो शोख़
ला'ल बे-रंगी से बिल्लोर का पत्थर होता
होश हो जाते रफ़ू-क्कर उधड़ते टाँके
ज़ख़्म-ए-दिल सीने के दरपे जो रफ़ूगर होता
अपनी बेताबी-ए-दिल की भी मैं लिखता हालत
ख़त के पहुँचाने को लोटन जो कबूतर होता
जोश-ए-वहशत के सबब राह पे आता न कभी
तेरे आवारा का गर ख़िज़्र भी रहबर होता
कद्द-ए-बाला के तसव्वुर में जो करता फ़रियाद
मेरे नालों का गुज़र अर्श-ए-बरीं पर होता
आज होता जो सुलैमाँ तो तिरी रखता मुहर
आइना तुझ को दिखाता जो सिकंदर होता
किसी हालत में नहीं मुझ को सुरूर ऐ 'बाक़ी'
नश्शा-ए-मय से मिरे सर में ही चक्कर होता
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