ये ना-सिपासी-ए-गुलचीं झलक नहीं रही है
ये ना-सिपासी-ए-गुलचीं झलक नहीं रही है
सबा के भेस में सरसर थिरक नहीं रही है
फ़ज़ा में रक़्साँ है नाआशन-ए-मह्ज़ हवा
जभी तो शाख़-ए-मोहब्बत लचक नहीं रही है
हज़ार ग़लताँ-ओ-पेचाँ हों अब परिंदों में
वो तिनके जोड़ने वाली ललक नहीं रही है
है साफ़ साफ़ ये औराक़-ए-गुल पे लिक्खा हुआ
घड़ी ख़िज़ाँ की ज़रा भी सरक नहीं रही है
गई रुतों के हवालों से गुल खिलाता है
उसे ख़ुद अपनी ज़लालत खटक नहीं रही है
फ़िशार-ए-गर्द से मंज़र तमाम अटा हुआ है
चमन-परस्त नज़र फिर भी थक नहीं रही है
मिरा भी धूप में अब सर टनकने लगता है
कमर पे उस के भी चोटी लटक नहीं रही है
उलझ के रह गई तार-ए-नफ़स में हसरत-ए-दिल
भरी है आँख पलक तक झपक नहीं रही है
हलाल कर गया हर आरज़ू वो जाते हुए
ग़म-ए-फ़िराक़ में लज़्ज़त तलक नहीं रही है
ख़ुदा करे कि वो ख़ुश-हाल-ओ-'सरफ़राज़' रहे
कसक ब-नाम भी दिल में कसक नहीं रही है
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