ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से आ गई होंटों पे जाँ तलक
ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से आ गई होंटों पे जाँ तलक
मुंशी बनवारी लाल शोला
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ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ से आ गई होंटों पे जाँ तलक
देखोगे मेरे सब्र की ताक़त कहाँ तलक
ग़फ़लत-शिआ'र हाए तग़ाफ़ुल कहाँ तलक
जीता रहेगा कौन तिरे इम्तिहाँ तलक
वा'इज़ का रब्त-ज़ब्त छुपाऊँ कहाँ तलक
तौबा की बात पहुँची है पीर-ए-मुग़ाँ तलक
वो मेरी आरज़ू थी जो घुट घुट के रह गई
वो दिल की बात थी जो न आई ज़बाँ तलक
जोश-ए-जुनूँ से दामन-ए-गर्दूं भी चाक है
पहोंचे ज़मीन के हाथ मगर आसमाँ तलक
ढूँडोगे फिर भी मश्क़-ए-सितम के लिए मुझे
दुश्मन जफ़ा सहेगा तुम्हारी कहाँ तलक
गुलशन में आगे तुम तो 'अजब हाल कर गए
भूले हुए हैं मुर्ग़-ए-चमन आशियाँ तलक
पामाल कर के ख़ाक उड़ाने से फ़ाएदा
ऐसे चलो कि मेरा मिटा दो निशाँ तलक
याद आए छुट के दाम से सय्याद के करम
पहुँचा दो कोई मुझ को मिरे मेहरबाँ तलक
कहता है कौन मर्ग इजाज़त-तलब नहीं
याँ दम रुका हुआ है फ़क़त तेरी हाँ तलक
दिल गर्मी-ए-रक़ीब से जल-भुन के रह गया
और मेरा ज़ब्त देख न उट्ठा धुआँ तलक
'शो'ला' के बा'द ख़त्म है ईजाद-ए-तर्ज़-ए-नौ
कुछ लुत्फ़ था सुख़न का उसी ख़ुश-बयाँ तलक
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