ज़ख़्म क्या उभरे हमारे दिल में उन के तीर के
ज़ख़्म क्या उभरे हमारे दिल में उन के तीर के
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
MORE BYजितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ज़ख़्म क्या उभरे हमारे दिल में उन के तीर के
गुल खिले गोया कि ख़्वाब-ए-इश्क़ की ताबीर के
पासबाँ ने ग़म दिया और हम-दमों ने जान ली
आज क़ाइल हो गए हम गर्दिश-ए-तक़दीर के
ख़ुद लिखी है ख़ून-ए-दिल से इश्क़ की हर दास्ताँ
ज़ेर-ए-एहसाँ मैं नहीं हूँ कातिब-ए-तक़दीर के
रख दिया है लिखने वाले ने कलेजा चीर कर
है मुसन्निफ़ मुन्कशिफ़ हर लफ़्ज़ में तहरीर के
मैं ने जब मायूस हो कर होंट अपने सी लिए
फिर हो क्यूँ मुश्ताक़ इतने तुम मेरी तक़रीर के
फिर वही सौदा वही वहशत वही तर्ज़-ए-जुनूँ
हैं निशाँ मौजूद सारे इश्क़ की तासीर के
जुस्तुजू-ए-दीद में फिरते हैं सर-गर्दा मुदाम
हर क़दम पर हैं मुक़ाबिल आप की तस्वीर के
बे-कसों मासूम की मुश्किल-कुशाई कीजिए
छूटना चक्कर से है गर आसमान-ए-पीर के
ख़िदमत-ए-हर-मुस्तहिक़ वो कार-गर तदबीर है
क़ुफ़्ल खुल जाते हैं जिस से बंदिश-ए-तक़दीर के
देखते हैं दूसरों की आँख के तिल में भी ऐब
बे-ख़बर हैं लेकिन अपनी आँख के शहतीर के
तुम फ़राएज़-मंसबी अंजाम दो 'रहबर' फ़क़त
मत पड़ो झगड़े में तुम तक़दीर-ओ-तदबीर के
- पुस्तक : Payam-e-rehber (पृष्ठ 73)
- रचनाकार : Jitendr Mohan Sinha'rehber'
- प्रकाशन : Karanti OM Parkashan, Lucknow (1995)
- संस्करण : 1995
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