ज़िंदगी चैन से बसर न हुई
ज़िंदगी चैन से बसर न हुई
कभी क़िस्मत ही बहरा-वर न हुई
ज़िंदगी बेश-ओ-कम मगर न हुई
एक पल भी इधर उधर न हुई
सरकशों को यहाँ फ़रोग़ कहाँ
ज़ुल्म की शाख़ बारवर न हुई
नाला अपना कोई रसा न हुआ
कोई भी आह पुर-असर न हुई
देखिए रोज़-ए-हश्र क्या होगा
अफ़्व अपनी ख़ता अगर न हुई
जिस जगह है निहाँ वो पर्दा-नशीं
हैफ़ उस जा मिरी नज़र न हुई
आमद-ए-मर्ग सुन के हँसता हूँ
एक दिन मेरी आँख तर न हुई
हो गए ख़ुद स्याह बाल सफ़ेद
शाम के बाद कब सहर न हुई
क्या जला कोई उस की महफ़िल में
ऊद की तरह बू अगर न हुई
क्या ख़बर हम कहाँ हुए बर्बाद
कुछ हमारी हमें ख़बर न हुई
इसी हसरत में हो गए मादूम
हाथ अपना तिरी कमर न हुई
ऐ शब-ए-वस्ल हैफ़ तेरी तरह
ज़िंदगी अपनी मुख़्तसर न हुई
उम्र भर दिल को इज़्तिराब रहा
कभी कम सोज़िश-ए-जिगर न हुई
शब-ए-हिज्राँ तिरा हो मुँह काला
मर गए हम मगर सहर न हुई
इस तरह 'सब्र' ले गए वो दिल
कि जिगर को भी कुछ ख़बर न हुई
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