बंदा-पर्वर दिन तसव्वुर कर रहे हैं रात को
बंदा-पर्वर दिन तसव्वुर कर रहे हैं रात को
सतीश बलराम अग्नीहोत्री
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बंदा-पर्वर दिन तसव्वुर कर रहे हैं रात को
या हमीं उल्टा समझ बैठे हैं सीधी बात को
दूसरों की राह में काँटे बिछा देने के बा'द
आदमी तकलीफ़ पहुँचाता है अपनी ज़ात को
हम उजाले के पुजारी तुम अंधेरे के धनी
दिन में ज़र्रे जगमगाते हैं सितारे रात को
बेकसों पर तंज़ के पत्थर तो भारी चीज़ हैं
ठेस फूलों से पहुँच जाती है एहसासात को
हम ग़रीबों का तअल्लुक़ रंग-महलों से कहाँ
खेतियों से वास्ता क्या शहर की बरसात को
वो हमें तल्क़ीन फ़रमाते हैं ऐसे मशवरे
जैसे अंधे से कहा जाए कि बाएँ हाथ को
अपने इरशादात पर ऐ 'शाद' पछताते हैं वो
रेज़ा-चीं मलते हैं मक्खन जिन के इरशादात पर
- पुस्तक : Lafz Magazine-01 Feb-2013
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