जोश मलीहाबादी: दीदा-ओ-शनीदा
मेरे वालिद मरहूम को उर्दू की नई मत्बूआत मंगाने का शौक़ था। किताबें और रिसाले छपते ही उनके पास पहुँच जाया करते थे। ग़ालिबन 25ई. या 26ई. का ज़िक्र है कि नई किताबों में एक किताब “रूह-ए-अदब” भी आई थी। ये किताब उस ज़माने में शाए होने वाली किताबों में यकसर मुख़्तलिफ़ थी। उसकी हर बात अनोखी थी। “बाँग-ए-दरा” के साइज़ पर छपी थी, जो उस ज़माने में बिल्कुल मुरव्विज नहीं था। किताबत-ओ-तबाअत बड़ी दीदा ज़ेब थी। चंद तस्वीरें भी उस किताब में शामिल थीं। “रूह-ए-अदब” में छोटे छोटे शायराना मज़ामीन थे। शायराना मुख़्तसर मज़ामीन लिखने का ख़ब्त अब से चालीस साल पहले हर अदीब को था। बल्कि उसे कमाल नस्र निगारी समझा जाता था कि ऐसी इबारत लिखी जाए जिसमें मोटे मोटे अरबी फ़ारसी के अलफ़ाज़ और मुग़्लक़ तरकीबें हों और अस्ल बात बहुत ज़रा सी हो। बल्कि अगर अस्ल बात सिरे से उसमें हो ही नहीं तो और भी अच्छा। इस सूरत में ये तहरीर अदीब का शाहकार बन जाती थी। ऐसे हर अदीब की हर तहरीर शाहकार तसव्वुर की जाती थी। कितने ही अदीब ऐसे थे जो सिर्फ़ शाहकार ही लिखा करते थे। अस्ल में ये बीमारी गीतांजलि के तर्जुमा से उर्दू में फैली थी। टैगोर की माबाद-उत-तिब्बियाती शायरी को यार लोग समझे हों या न समझे हों झट उसके तर्जुमे पर उतर आए। चूँकि टैगोर को नोबल प्राइज़ मिला था इसलिए ये समझ लिया गया कि ज़रूर इसमें कोई बड़े काम की बात कही गई है। हालाँकि आज तक यूरोप वालों ही की समझ में नहीं आया कि मुल्ला रुमी और मात्रलिंक क़िस्म के शायर ये क्या फ़रमा गए हैं कि
एक दरवाज़ा खुला
एक दरवाज़ा बंद हुआ और
एक बच्चे के रोने की आवाज़ आई।
उन्हें यही मालूम न हो सका कि इस पर कहाँ सर धुना जाए? टैगोर ने भी यही गुर इस्तेमाल किया और टीस से उसे झंडे पर चढ़ा दिया। उर्दू की शामत-ए-आमाल, ये किताब कहीं से नियाज़ फ़तहपुरी के हाथ लग गई। “अर्ज़-ए-नग़्मा” के नाम से उसका तर्जुमा फ़ौरन तैयार हो गया। नाम ही देख लीजिए “अर्ज़-ए-नग़्मा। इसके अंदर जो गत टैगोर के शाहकार की बनी है उसे किसी वक़्त फ़ुर्सत से देखिएगा तो उसके जौहर आप पर खुल जाएंगे। हमारे अदीबों के हाथ एक सहल नुस्ख़ा लिखने लिखाने का आया, लगे सब के सब “अर्ज़-ए-नग़मा” करने। अलबत्ता इतना इज़ाफ़ा टैगोर पर और किया कि अपनी तहरीरों में बहुत सारे आह... डैश और नुक़्ते और डंडे (!) जहाँ तहाँ डाल दिए ताकि पढ़ने वाले उन डैशों और डंडों से नफ़स-ए-मज़मून की भेली पर सर फुटव्वल करते रहें। प्याज़ को छीलिए, परत ही परत उतरते चले जाएंगे, मग़ज़ आप कहीं नहीं पाएंगे। यही हाल उस नियाज़ी या पियाज़ी अदब का था जिसे अदब-ए-लतीफ़ मौसूम किया गया, जो दरअस्ल हमारी नस्र का “चूमा चाटी और सांडे के तेल” का दौर था।
बात में से बात निकल आई।
ज़िक्र जब छिड़ गया क़यामत का
बात पहुंची तिरी जवानी तक
हाँ तो ज़िक्र था “रूह-ए-अदब” का। उसमें जो नस्र पारे दर्ज थे उनका अंदाज़-ए-तहरीर रविश-ए-आम से यकसर मुख़्तलिफ़ था। वाक़ई ये मालूम होता था कि नस्र में नज़्में लिखी गई हैं। मुसन्निफ़ का नाम नवाब शब्बीर हुसैन ख़ान जोश मलीहाबादी। मैंने जोश साहब को यहीं से जाना-पहचाना। इसके बाद “हुमायूं” में उनका कलाम बिल-इल्तिज़ाम शाए होने लगा और बा’ज़ और मुक़तदिर अदबी रिसालों में भी। साक़ी में जनवरी 1930ई., यानी पहले ही पर्चे से जोश साहब का कलाम आने लगा। 32ई. में मुझे अपने मंझले भाई मुबश्शिर अहमद और दूसरे अज़ीज़ों से मिलने हैदराबाद जाने का इत्तफ़ाक़ हुआ। मुझे जिन अदीबों और शायरों से हैदराबाद में मिलना था उनकी फ़ेहरिस्त ख़ासी तवील थी। मंझू साहब पुलिस के आदमी! उन्हें तमाम सिलसिलों की ख़बर थी। फ़ेहरिस्त देखकर बोले, “फ़रहतुल्लाह बेग से तुम्हें सय्यद वज़ीर हसन मिलवाएंगे। फ़ानी, जोश और अली अख़्तर से कर्नल अशरफ़-उल-हक़। मौलवी इनायतुल्लाह से ताबिश, मैं भी साथ चला चलूँगा। तमकीन काज़मी तो ये सामने इदारा-ए-इल्मिया में रोज़ शाम को आता है। और ये नाकारा और आवारा और कौन कौन है, उन्हें थाने में यहीं क्यों न बुलवा लिया जाए?” मैंने कहा, “मुनासिब नहीं होगा। पहले मैं एक एक-बार सब के हाँ हो आऊँ।” बोले, “तो फिर ये करते हैं कि थाने में नहीं खाने पर सबको बुलाए लेते हैं।” मैंने कहा, “इसे भी बाद के लिए उठा रखो।” ये बातें हो ही रही थीं कि कर्नल अशरफ़-उल-हक़ बाहर ही से आवाज़ें देते दर आए। “शाहिद कहाँ है, शाहिद कहाँ है?” मैं दौड़ कर उनसे लिपट गया। उस वक़्त मुझसे उम्र में दुगने थे। मेरे फूफीज़ाद भाई थे। चौदह साल विलायत में रह कर एडिंबरा से डाक्टरी की सनद लेकर आए थे और क़िला गोलकुंडा में अफ़्वाज-ए-बाक़ायदा के बड़े डाक्टर थे। अल्लाह उनकी रूह को न शरमाए हर वक़्त इतनी पीते थे कि मरने लगते थे। वो तो शराब को क्या छोड़ते शराब उन्हें छोड़ देती थी। अच्छे होने के बाद महीनों नहीं पीते थे, फिर कोई दोस्त हुश्का देता और सिलसिला फिर जारी हो जाता। मगर इतनी पीने पर भी मैंने डाक्टर साहब को कभी बहकते या मदहोश होते नहीं देखा। वो इस क़दर अजीब-ओ-ग़रीब किरदार के आदमी थे कि उन पर एक अलाहेदा मज़मून लिखने की ज़रूरत है। मुख़्तसरन यूं समझिए कि मिनजुमला और सिफ़ात के शे’र कहने का भी ख़ास मलिका रखते थे। मगर हज़ल तो क्या निरा खरा फ़ुहश।
उरियाँ तख़ल्लुस था। शे’र-ओ-शायरी की वजह से हैदराबाद के तमाम शायरों से ताल्लुक़ था। और सबका दम भी उनसे निकलता था क्यूंकि ज़रा सी बात पर फ़ुहश हज्व लिख दिया करते थे, और सितम बाला-ए-सितम ये कि ख़ुद जाकर उसे सुना भी देते थे। ख़ैर तो डाक्टर साहब से ये तै हो गया कि जोश साहब से मुझे वहाँ अगले दिन मिलवा देंगे। दूसरे दिन सुबह दस बजे डाक्टर साहब आए और मुझे दार-उल-तर्जुमा ले गए। सबसे पहले अबुल ख़ैर मौदूदी से मिलवाया जो अबुल आला मौदूदी के बड़े भाई थे। धान पान से नर्म-ओ-नाज़ुक आदमी थे मगर उनके लफ़्ज़ लफ़्ज़ से इल्मियत टपकती थी। डाक्टर साहब के ख़ास दोस्तों में से थे। ख़ुश-अख़्लाक़ी से खाने पर मदऊ किया। मौलाना इमादी से मिलवाया। उन्होंने भी दावत की पेशकश की। जोश साहब से मिलवाया। गर्मजोशी से मिले। दावत का दिन मुक़र्रर कर लिया। बाहर निकल कर मैंने कहा, “भाई जान, अगर दावतें ऐसी फ़राख़ दिली से मंज़ूर की गईं तो मंझू साहब बिगड़ जाएंगे।” बोले, “मैं मंझू को समझा लूँगा।” इसके बाद घड़ी देखकर बोले, “अभी दोपहर के खाने में कुछ देर है, लगे हाथों अली अख़्तर से भी मिल लो।” मैंने कहा, “चलिए।” अली अख़्तर के घर पहुंचे। दरवाज़ा खटखटाया। लड़का बरामद हुआ। डाक्टर साहब ने पूछा, “अब्बा हैं?” वो हैं कह कर अंदर भागा। डाक्टर साहब ने कहा, “सुनो, उनसे बोलो शाहिद अहमद देहलवी मिलने आए हैं।” लड़का मेरा नाम जानता था, एक नज़र उसने मुझे देखा और तीतरी हो गया। पांच मिनट गुज़र गए वापस नहीं आया। डाक्टर साहब ने बताया कि आजकल अली अख़्तर के सारे जिस्म पर फोड़े फुंसियां निकल आई हैं। दवा मले बैठा होगा। दफ़्तर से छुट्टी ले रखी है। बारे लड़का मुंह लटकाए वापस आया और नीची नज़रें किए बोला, “अब्बा कहीं बाहर गए हुए हैं।” जब हम कार में वापस आ बैठे तो डाक्टर साहब ने कहा, “घर ही में था।” मैंने पूछा, “तो मिले क्यों नहीं?” बोले, “कल मालूम हो जाएगा।” अगले दिन डाक्टर साहब अली अख़्तर के हाँ से होते हुए आए। उन्होंने बताया कि “अली अख़्तर मिले थे और बहुत शर्मिंदा थे कि कल तुमसे नहीं मिले। दर अस्ल उस बेचारे के पास इतने पैसे नहीं हैं कि तुम्हारी दावत कर सके। यहाँ का रिवाज यही है कि मेहमान की दावत ज़रूर की जाती है।” उनकी इस हरकत पर मुझे ग़ुस्सा भी आया और तरस भी आया कि महज़ एक बेहूदा रिवाज के बाइस इस दफ़ा उनसे मुलाक़ात न हो सकी।
जोश साहब के हाँ डाक्टर साहब मुझे ले गए। ख़ासी पुरतकल्लुफ़ दावत थी। दस्तरख़्वान पर हंसी मज़ाक़ की बातें होती रहीं। डाक्टर साहब बड़े ज़िंदा दिल आदमी थे। रोतों को हंसाते थे। जोश साहब शायर भी थे और बादा-ख़्वार भी, इसलिए डाक्टर साहब से उनकी ख़ूब निभती थी। डाक्टर साहब की ज़बानी मुझे जोश साहब के बहुत सारे वाक़िआत मालूम हुए। उनमें से चंद आगे बयान होंगे।
डाक्टर साहब उम्दा विलायती शराब पिया करते थे। जोश साहब बला-नोश थे, जो भी मिल जाए चढ़ा जाते थे। उन्हें जब भी फ़ुर्सत मिलती शाम को डाक्टर साहब के हाँ जा पहुँचते, उम्दा और मुफ़्त की मिलती थी इसलिए गिलास पर गिलास चढ़ाए चले जाते। डाक्टर साहब दो तीन गिलासों में छक जाते थे। बोतल या तो हफ़्ता में एक ख़र्च होती थी या अब तीसरे ही दिन उनकी बीवी कह देतीं कि आप शहर जाएं तो अपनी बोतल लेते आएं। शुरू शुरू में तो ये ढर्रा चलता रहा मगर जब महंगा पड़ने लगा तो डाक्टर साहब के नशे हिरन होने लगे। एक दिन शहर गए तो एक विलायती बोतल भी लाए और देसी ठर्रे की भी। ठर्रा देखकर उनकी बीवी चमकीं। “जब ठर्रा आपको नहीं पचता तो आप क्यूं लाए हैं? इस मूए शराबी ने आपको भी ठर्रे पर लगा दिया।” डाक्टर साहब ने बड़ी मतानत से कहा, “ये ठर्रा उसी मूए शराबी के लिए है।” डाक्टर साहब गिलास ख़ुद कभी नहीं बनाते थे। घर में बीवी बना कर देती थीं और घर के बाहर एक मुलाज़िम जो हमेशा साथ रहता था। अब ये होने लगा कि जब जोश साहब आ जाते तो डाक्टर साहब के आवाज़ लगाने पर मुलाज़िम दो गिलास बेगम साहब से बनवाकर या ख़ुद बनाकर लाता और ठर्रे वाला गिलास जोश साहब को भिड़ा देता। जोश साहब कहते कि आपने भी देसी पीनी शुरू कर दी? तो डाक्टर साहब कहते हाँ। मगर ये देसी अच्छी है। फ़रेब का ये सिलसिला दिनों जारी रहा। बाद में डाक्टर साहब ने ख़ुद ही इस का भांडा फोड़ दिया। उनके दिल में कोई बात रहती नहीं थी। शायद हर शराबी का दिल मुनाफ़िक़त से ख़ाली हो जाया करता है।
जब जोश साहब के लिए निज़ाम-ए-दन मीर उसमान अली ख़ान ने मुल्क बदरी का फ़रमान जारी किया तो मुझे किसी ने हैदराबाद से इत्तिला दी कि “साक़ी” में “ग़ज़ल-गो से ख़िताब” जो नज़्म जोश की छपी है उसपर ये इताब हुआ है। पेशी के एक मुँह चढ़े आदमी ने निज़ाम को सेंका दिया कि हुज़ूर ये गुस्ताख़ी जोश ने आपकी शान में की है। उस ज़माने में जरीदा शाही और रोज़नामा रहबर दन में रोज़नामा मीर उसमान अली ख़ां की एक फुसफुसी सी ग़ज़ल मअ राय उस्ताद जलील छपा करती थी। ये राय भी हज़रत ख़ुद ही लिख दिया करते थे कि “सुब्हान-अल्लाह! क्या ग़ज़ल हुई है।” मुझे इत्तिला देने वाले ने ये अंदेशा भी ज़ाहिर किया था कि शायद रास्त में साक़ी का दाख़िला ममनूअ क़रार दे दिया जाएगा। मगर उस की नौबत नहीं आई। जोश को चौबीस घंटे में मुमालिक-ए-महरूसा से निकल जाने का हुक्म मिला था। ये बारह ही घंटे में वहाँ से निकल लिए कि कहीं ज़ब्ती और क़ैद का दूसरा फ़रमान जारी न हो जाए। “रहबर-ए-दकन” में रोज़ाना ज़रा ज़रा सी बात पर फ़रमान निकलते रहते थे। सुब्हान-अल्लाह! पढ़ने के लायक़ होती थी इबारत उन फरमानों की। काश कोई उन्हें जमा कर के शाए कर दे। खोजी और हाजी बग़लोल को आप भूल जाएंगे। ख़ैर, ये एक अलग कहानी है। दर-अस्ल निज़ाम के मंझले शहज़ादे मुअज़्ज़म जाह के शबीना दरबार में जोश का अमल दख़्ल ज़रूरत से ज़्यादा हो गया था। उस दरबार के वाक़िआत सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। मुख़्तसरन यूं समझिए कि शरर का दरबार-ए-हरामपुर इसके आगे गर्द था। जोश इस दरबार के हाज़िरबाश थे। मैंने हैदराबाद के सिक़ा रावियों से सुना है कि मुअज़्ज़म जाह के इशारे पर कुल हाज़िरबाश नंगे हो कर नाचने लगते थे, और उसके बाद जो कुछ होता था वो लिखा नहीं जा सकता। अगर कोई पखेरू ज़रा नहीं नुकर करता तो पेश ख़िदमतों को हुक्म होता कि आपको बना लाओ। वो उस ग़रीब को उठाले जाते और पछाड़ कर इतनी पिलाते कि उसे अपने तन-बदन का होश न रहता, फिर उसे दरबार में बरहना करके पेश किया जाता और उसे औंधा कर के जलती हुई मोमबत्ती लगादी जाती। ये मंज़र देखकर सबके दिलों के कंवल खिल जाते। और जब वो होश में आता तो उससे कहा जाता आइन्दा सरकार के किसी हुक्म से सरताबी न करना। इन तमाम बेहूदगियों की इत्तिला आलीजाह को पहुँचती रहती थी मगर वो शफ़क़त-ए-पिदरी में मरे जाते थे। बेटे से तो कुछ न कहते उसके हाज़िर बाशों की ताक में लग जाते। चुनांचे तवेले की बला बंदर के सर, जोश पर नज़ला गिराने का उन्हें बहाना हाथ आगया। जोश साहब हैदराबाद छोड़ने के कुछ अर्से बाद दिल्ली आ गए।
हैदराबाद में जोश साहब दार-उल-तर्जुमा में नाज़िर अदबी थे। सुना है कि अल्लामा इक़बाल से किसी बड़े आदमी के नाम तआरुफ़ी और सिफ़ारशी ख़त ले कर हैदराबाद गए थे। निरा खुरा शायर सिवाए शे’र कहने के और क्या कर सकता है? मगर उस वक़्त महाराजा कृष्ण प्रशाद जैसे इल्म दोस्त बरसर-ए-इक़्तिदार थे। वो शायरों को भी कहीं न कहीं खपा दिया करते थे। चुनांचे फ़ानी को उन्होंने किसी स्कूल का हेडमास्टर बना दिया था और यगाना को कहीं अज़्ला में सब रजिस्ट्रार रखवा दिया था। जोश को उन्होंने दार-उल-तर्जुमा की चूल में धांस दिया। उनका काम ये था कि तराजिम की नज़र-ए-सानी किया करें। वहाँ वो क्या करते होंगे? इसका अंदाज़ा यहाँ तरक़्क़ी उर्दू बोर्ड में उनकी कारकर्दगी से हुआ। बोर्ड ने उर्दू की नायाब और कमयाब किताबों के शाए करने का इंतज़ाम किया है। मौलवी नज़ीर अहमद की किताब “मुंतख़िब-उल-हिकायात” के मुताल्लिक़ बोर्ड के सेक्रेटरी शान-उल-हक़ साहब का एक मुरासला मेरे नाम आया कि आप इस मत्बूआ किताब में जो गलतियां किताबत-ओ-तबाअत की वजह से दाख़िल हो गई हैं उनकी तस्हीह कर दीजिए और किताब पर आठ दस सफ़े का मुक़द्दमा लिख दीजिए। पाकिस्तान में ये किताब मुझे कहीं नहीं मिली, लिहाज़ा दिल्ली से उसका एक नुस्ख़ा किसी न किसी तरह मंगाया और उसे ठीक ठाक करके बोर्ड को भेज दिया। एक महीना बाद हक़्क़ी साहब का टेलीफ़ोन आया कि “मुंतख़िब-उल-हिकायात” का कोई और नुस्ख़ा हो तो बोर्ड को भेज दीजिए। बोर्ड उसकी क़ीमत अदा कर देगा। मैंने कहा, “क़ीमत तो उसकी छः आने या आठ आने ही है, मगर वो किताब मिलती कहाँ है? पहले भी मुश्किल से मिली थी।” मालूम हुआ कि नाज़िर अदबी ने न सिर्फ़ मेरे मुक़द्दमा की ज़बान ठीक कर दी बल्कि अस्ल किताब की ज़बान भी ठीक कर दी। और फ़िक़रे के फ़िक़रे इस बुरी तरह काटे हैं कि अस्ल इबारत पढ़ी नहीं जा सकती। मैंने कहा, “ख़ैर मेरी ज़बान तो वो ठीक कर सकते हैं मगर जिसकी किताबें पढ़ कर हम सबने उर्दू ज़बान सीखी है, उसकी ज़बान में भी जोश साहब को गलतियां नज़र आ गईं। ज़रा मुझे इस्लाह शुदा नुस्ख़ा भेज देजिए। ताकि मैं भी जोश साहब के इफ़ादात से महरूम न रहूं।” हक़्क़ी साहब बुर्दबार आदमी हैं, उन्होंने ब-लताइफ़-उल-हील इस क़ज़िया को टाला और मैंने दिल्ली से एक और नुस्ख़ा मुहय्या करके उन्हें भेजा। दार-उल-तर्जुमा के नाज़िम मौलवी इनायत उल्लाह मरहूम बड़े मरनजान मरंज आदमी थे। उनकी बातों से मुझे अंदाज़ा हुआ था कि वो जोश साहब से ख़ुश नहीं थे। जब काम करने का ये उस्लूब हो तो कोई ख़ुश हो भी कैसे सकता है?
दिल्ली आने के बाद जोश साहब ने एक अदबी माहनामा जारी किया। उन्होंने ये नहीं देखा कि जो अदबी माहनामे शाए हो रहे हैं उनकी माली हालत कैसी है और उन्हें कैसे चलाया जा रहा है। यार लोगों ने वरग़लाया और जोश साहब चढ़ गए सूली पर। दरियागंज में एक मकान किराया पर लिया गया और बड़ियों के कड़े में दफ़्तर के लिए एक बाला-ए-ख़ाना कर-ओ-फ़र से सजाया गया। एक दफ़ा मुझे भी उस दफ़्तर में जाने का इत्तफ़ाक़ हुआ। जोश साहब को वाह वाह करने वाले घेरे रहते। दिन भर चाय, शर्बत, पान, सिगरेट से तवाज़ो होती। उधर सूरज ग़ुरूब हुआ इधर जोश साहब पैमाना-बकफ़ तुलू हुए। मुफ़्त ख़ोरों को भी चुपकी लगाने का मौक़ा मिला। घंटा डेढ़ घंटा ये शुग़ल रहा। इसके बाद सब अपने अपने घर सिधारे। अदबी रिसाले कहीं ऐसे शाह ख़र्चियों से चलते हैं? चंद महीने बाद दफ़्तर छोड़ना पड़ा। घर ही में दफ़्तर भी चला गया। पर्चा चलने की कोई सूरत नहीं निकली। जोश साहब को ये मुग़ालता था कि जितनी अच्छी वो नज़्म लिखते हैं उतनी ही अच्छी नस्र भी लिखते हैं। एक नया मज़मून निगार इसराईल अहमद ख़ां उन्होंने ख़ुदा जाने कहाँ से तलाश करके निकाला था। वो एण्डे बेण्डे मज़ामीन लिखा करता था। ये ज़माना था हुमायूँ, अदबी दुनिया, नैरंग-ए-ख़याल, आलमगीर और साक़ी के शबाब का। जोश साहब ने महसूस कर लिया कि पब्लिक बड़ी नाक़द्र शनाश है, वो नस्ल कभी मुस्तक़बिल बईद में पैदा होगी जो उनके रिसाला “कलीम” की सही क़द्रदानी कर सकेगी। रिसाला बंद करने के बाद उन्होंने एक मक़ामी पब्लिशर से अपनी किताबें छपवाने का मुआमला किया। चंद दिन उनकी रॉयलटी पर गुज़ारा हुआ। फिर ये सुना कि मलीहाबाद की तरफ़ उनका कोई बहुत बड़ा ज़मींदार अज़ीज़ मर रहा है या मर गया है और उसकी पूरी अम्लाक के वारिस जोश साहब ही हैं। अब उन्हें कई करोड़ रुपया मिलने वाला है इसलिए वो दिल्ली से चले गए हैं। ये सुनने में आज तक नहीं आया कि उन्हें वहाँ से क्या मिला।
जोश साहब के दौरान-ए-क़ियाम दिल्ली ही में एक दफ़ा कर्नल अशरफ़-उल-हक़ दिल्ली आए तो मुझसे कहा कि “जोश साहब के हाँ चलो।” मैंने कहा, “मुझे तो उनका घर मालूम नहीं कि कहाँ है। कहीं दरियागंज में रहते हैं। फिर आप ही ने तो कहा था कि जोश से दूर की दोस्ती रखना। वैसे भी मैं शे’र शायरी का आदमी नहीं, और न जोश का हम मशरब। आज तक मैं उनके घर नहीं गया और न वो मेरे घर आए। सर-ए-राहे-गाहे या किसी इज्तिमा में उनसे सरसरी सी मुलाक़ात हो जाया करती है। आप उनके हाँ हो आइए मैं साथ जा कर क्या करूँगा?” डाक्टर साहब ने उस ज़माने में शराब बिल्कुल छोड़ रखी थी। बोले, “तुम्हारा चलना ज़रूरी है। अगर वहाँ पीने-पिलाने का क़िस्सा हुआ तो तुम मुझे रोक सकोगे।” लिहाज़ा मुझे उनके साथ जाना पड़ा।
मग़रिब के बाद हम जोश साहब के मकान पर पहुंचे। नीचे एक बड़ा सा कमरा था जिसमें जोश साहब के साथ पांच-सात आदमी बैठे ख़ुश गप्पियाँ कर रहे थे। डाक्टर साहब को देखा तो सबने उठकर ताज़ीम दी। डाक्टर साहब ने कहा, “शाहिद को तो जानते हो ना?” जोश साहब ने कहा “जी हाँ, मगर कभी मुलाक़ात नहीं होती।” बैठने के बाद औरों से तआरुफ़ हुआ। हकीम आज़ाद अंसारी को मैं पहले से जानता था। अब वो जोश साहब के हाँ मुस्तक़िलन आन पड़े थे। बुढ़ापे और बीमारी में उनका कोई पुरसान-ए-हाल नहीं रहा था। कभी किसी के हाँ और कभी किसी के हाँ जा पड़ते। मेज़बान उनके हुनर की वजह से उन्हें हाथों-हाथ लेता। इसके बाद उनसे शे’र कहलवा कहलवा कर अपनी बयाज़ भरता। जब वो अपने शे’र देने में पस-ओ-पेश करते तो मेज़बान उपराने लगता। हकीम साहब इस बेग़ौरी और नाक़द्री को ताड़ जाते और किसी और शागिर्द या क़द्रदान के हाँ उठ जाते। एक साहब का तो पूरा दीवान आज़ाद अंसारी ही का कहा हुआ है। दिल्ली में उन्होंने कई ठिकाने बदले। आख़िर में एक मुफ़लिस मगर मुख़लिस शागिर्द के हाँ चले गए थे, और जब उनकी हालत बिगड़ी और डाक्टरों ने जवाब दे दिया तो वो ग़रीब शागिर्द हैदराबाद उन्हें लेकर पहुंचा, और उनके बेटे के घर उन्हें छोड़ आया। बेटा अच्छा-ख़ासा पैसे वाला था। मगर ब इस्तिकराह उसने बाप को वुसूल किया। बुड्ढे में धरा ही क्या था। दो-चार दिन बाद अल्लाह को प्यारा हो गया। तो ये आज़ाद अंसारी भी जोश साहब के हाँ मौजूद थे। निहाल सेवहारवी भी पहुंचे हुए थे। दौर-ए-शराब तो हो ही रहा था, एक गिलास डाक्टर साहब के लिए और एक मेरे लिए तैयार कर के पेश किया गया। डाक्टर साहब ने कहा शाहिद तो नहीं पीते, और मैंने भी आजकल छोड़ रखी है। जोश साहब ने हैरत से मेरी तरफ़ देखा और बेसाख़्ता उनके मुँह से निकला,
साक़ी के मुदीर और नहीं हैं मख़मूर
बर-अक्स नाम-नहंद ज़ंगी-ए-काफ़ूर!
“क्या वाक़ई बिल्कुल नहीं?” मैंने कहा, “जी हाँ, मैं नहीं पीता।” जोश साहब ने अज़राह-ए-इनायत मज़ीद इसरार नहीं किया मगर डाक्टर साहब से बोले, “जी ये नहीं हो सकता। आपको तो पीनी पड़ेगी।” ये कह कर उनके हाथ में गिलास थमा दिया, मैंने डाक्टर साहब को टहोका दिया मगर उन्होंने मुतास्सिफ़ नज़रों से मेरी तरफ़ देखा और चुपके से बोले, “जोश नहीं मानता। थोड़ी सी पी लेने में कोई मुज़ाइक़ा नहीं।” जोश साहब को सुरूर गंठ रहा था, उनकी गुल अफ़्शानी शुरू हो गई। बला का हाफ़िज़ा पाया है उस शख़्स ने। नशा बढ़ता जाता था और ज़बान खुलती जाती थी। मुलहिदाना रुबाइयों के बाद अपना फ़ुहश कलाम सुनाना शुरू कर दिया। जब वो भी ख़त्म हो गया तो फ़िलबदीह कहना शुरू कर दिया। मगर आख़िर में एतिराफ़ भी किया कि उसका उस्ताद तो रफ़ी अहमद ख़ां है। दो घंटे बाद मैंने इजाज़त चाही तो डाक्टर साहब भी उठ खड़े हुए। उनके क़दम लड़खड़ा रहे। बोले, “शाहिद, तुम मुझे घर पहुंचा कर जाना।” बाहर निकल कर मैंने तिराहा बैरम ख़ां का तांगा किया। फाटक से टेढ़ी हवेली तक उन्हें सहारा देकर ले गया। नीचे किराएदार थे, ऊपर की मंज़िल में डाक्टर साहब का क़ियाम था। ज़ीना तै करना एक अज़ाब हो गया। जब उन्हें उनके कमरे में पहुँचाया तो उनकी छोटी बेगम जो उनके साथ आई थीं बोलीं, “शाहिद मियां, ये क्या किया?” डाक्टर साहब फटी फटी आँखों से बीवी की तरफ़ देखते रहे, मैंने कहा, “भाबी, ये जोश साहब के हाँ से आ रहे हैं?” चीख़ कर बोलीं, “उस माटी मिले के पास इन्हें कौन ले गया था?” मैं ने कहा, “ख़ुद ही गए थे।”
“शाहिद मियां, तुमने भी इन्हें नहीं रोका?”
“रोका था, भला ये रुकने वाले हैं?”
डाक्टर साहब बड़बड़ाए, “अब्बासी, शाहिद को जाने दो। उसे देर हो रही है।”
उसके बाद ख़ुदा जाने मियां-बीवी में क्या फ़ज़ीहता हुआ। अगले दिन डाक्टर साहब मेरे हाँ आए तो उनके बैग में विलायती बोतल मौजूद थी और वो हर आध घंटा बाद गिलास बनवाते और पीते रहे। उनकी शराब फिर शुरू हो गई थी और अब ख़ुद उनके रोके भी नहीं रुक सकती थी। फिर दो दिन तक डाक्टर साहब नहीं आए तो मुझे मिज़ाज पुर्सी के लिए उनके घर जाना पड़ा। पहले भाभी और बच्चों का कमरा बीच में पड़ता था। भाबी का चेहरा उतरा हुआ था। बोलीं, “न कुछ खा सकते हैं और न पी सकते हैं। उबकाई लगी हुई है।” डाक्टर साहब के कमरे में जाकर देखा कि वो बेसुध पलंग पर पड़े हुए हैं और डाक्टर मुहम्मद उमर उनके सिरहाने बैठे हुए हैं। मेरे जाते ही डाक्टर उमर ने मेरी टांग ली। “अमां क्यूं ले गए थे इन्हें उसके पास?” मैंने कहा, “अब कैफ़ियत क्या है?” बोले, “मर रहे हैं।” मेरे पैरों तले की ज़मीन निकल गई। लो भई, उल्टी आँतें गले पड़ीं। फिर डाक्टर साहब को भी खांसी उठी और वो ओकते हुए उठ बैठे। आँखों में हलक़े पड़े हुए, चेहरे पर ज़र्दी खूंडी हुई। सीने में सांस न समाता था। मगर ख़ुश-मिज़ाजी की वही कैफ़ियत। हांप कर बोले, “भाई ये उमर कहता है कि मैं मर रहा हूँ, मगर मैं मरूँगा नहीं, अब्बासी एक गिलास बना देना।” डाक्टर उमर ने कहा, “मरने से बदतर तो हो गए मगर छोड़ते अब भी नहीं।” बोले, “तेरी तरह कम ज़र्फ़ थोड़ी हूँ, पीने का नाम भी बदनाम करता है।” इतने में अब्बासी बेगम गिलास बना लाईं। डाक्टर साहब के मुँह से लगा दिया। पी कर बोले, “भाई अब मेरी दवा भी यही है।” ग़रज़ डाक्टर साहब एक हफ़्ता तक ज़िंदगी और मौत की कश्मकश में मुब्तला रहे। बेहोशी में डाक्टर उमर उनके इंजेक्शन लगाते रहे। होश में आने के बाद उन्होंने शराब नहीं पी। महीना भर में सावंटे हो गए और ख़ैर से हैदराबाद सिधारे।
एक दफ़ा का ज़िक्र है कि पतरस बुख़ारी ने मुझे रुक़ा भेजा और ज़बानी भी कहलवा भेजा कि सालिक साहब आए हुए हैं, कल रात का खाना मेरे साथ खाना। मैं वक़्त-ए-मुक़र्ररा से किसी क़द्र पहले पहुँच गया ताकि सालिक साहब से बातें करने का मौक़ा मिल जाए। हम दो-चार आदमी सालिक साहब से गपशप कर रहे थे कि जोश साहब भी आन पहुंचे। अलैक सलैक के बाद कोठी के बरामदे में गए। वहाँ जुगल किशोर मेहरा बैठे हुए थे जो उस वक़्त तक मुसलमान नहीं हुए थे और पतरस बुख़ारी के पर्सनल अस्सिटेंट थे। जोश साहब ने उनसे पूछा “पीने पिलाने के लिए क्या है?” उन्होंने घबराकर कहा, “बुख़ारी साहब तो नहीं पीते।” जोश साहब ने कहा, “वो नहीं पीते तो क्या हम तो पीते हैं। जाओ बुख़ारी साहब से कहो कि हमारे लिए कुछ पीने को भेजें।” वो दौड़े हुए आए और बुख़ारी से कुछ खुसर फुसर करके फिर जोश साहब के पास पहुंचे। ख़बर नहीं उन दोनों के दर्मियान क्या गुज़री। मेहमान आने शुरू हो गए, आने वालों में बड़े मुतज़ाद क़िस्म के लोग थे। ख़्वाजा हसन निज़ामी भी थे और दीवान सिंह मफ़तून भी। तक़रीबन बीस जग़ादरी क़िस्म के हज़रात खाने पर जमा हो गए। जोश साहब अलग घास पर टहलते रहे थे। मुझे उनके क़रीब जगह मिली। पूछने लगे इसे किस ने बुला लिया? मैंने कहा, “किसे?” ख़्वाजा साहब की तरफ़ इशारा किया। बोले, “जब से ये आया है वल्लाह कफ़न-ओ-काफ़ूर की बू चली आ रही है।” उनके इस फ़िक़रे का मज़ा औरों ने भी लिया और बात शुदा-शुदा बुख़ारी साहब तक भी पहुँच गई। वो खिलखिला कर हंसे। इसके बाद जोश साहब ने भरी मेज़ पर बुख़ारी साहब को मुख़ातिब कर के कहा, “दो शे’र हो गए हैं, सुन लीजिए।” मुझे तो शे’र-वेर याद नहीं रहते। मतलब ये था कि नाम तो बुख़ारी है मगर जिंदड़ी इतनी सी है कि पीने को शराब माँगो तो, मिलता है ठंडा, बर्फ़ का सादा पानी। सबने वाह वाह सुब्हान-अल्लाह में उन अशआर को उड़ा दिया। ख़ुद बुख़ारी साहब ने किसी क़िस्म की नागवारी का इज़हार नहीं किया बल्कि ख़ूब दाद दी।
फ़तहपुरी के क़रीब एक होटल में फ़िराक़ गोरखपुरी दिल्ली आ कर ठहरे थे। शाम को उनके कमरे में बहुत सारे पीने वाले शायर जमा हुए। उनमें जोश, निहाल, मजाज़ और तासीर भी थे। जोश साहब तो शायर-ए-इन्क़िलाब होने के अलावा शायर-ए-आज़म भी हैं मगर अपने पिंदार में फ़िराक़ उनसे अपने आपको कम नहीं कुछ ज़्यादा ही समझते थे। जोश ने जब रुबाइयाँ कहनी शुरू कीं तो फ़िराक़ ने भी उर्दू हिन्दी आमेज़ ज़बान में रूप सरूप की रुबाइयों की भरमार शुरू कर दी। जोश साहब ने कभी किसी से मुक़ाबला नहीं किया। ख़बर नहीं ये उनकी बुज़दिली है या शराफ़त। मगर फ़िराक़ साहब हमेशा मैदान में उतर आते हैं और शमशीर बरां बन जाते हैं। वैसे तो जोश और फ़िराक़ में बड़ा दोस्ताना था और दोनों हमनिवाला-ओ-हमप्याला थे मगर फ़िराक़, जोश को अपना हरीफ़ समझते थे। जब होटल के कमरे में कई दौर हो गए तो पीने वालों के दिल खुल गए और दिलों के साथ ज़बानें भी खुल गईं। जोश और फ़िराक़ में चलनी शुरू हुई, पहले मज़ाक़ ही मज़ाक़ में फिर नशा ज़दा संजीदगी के साथ। हाज़िरीन में से कुछ जोश के साथ हो गए और कुछ फ़िराक़ के साथ। फ़िराक़ कुछ हद से आगे ही निकल गए। नौबत तेज़म ताज़ी और गाली गलौज तक पहुंची। इसमें ज़रा कमी आती तो तासीर कभी जोश को शह देता और कभी फ़िराक़ को। फ़िराक़ ऐसे बेक़ाबू हुए कि माँ बहन की गालियों पर उतर आए। जोश ने उन गालियों को भी कड़वा घूँट बना कर हलक़ से नीचे उतार लिया मगर जब फ़िराक़ ने बेटी की गाली दी तो जोश के तेवर बिगड़ गए। बोले, “हम पठान हैं, अब हम आपको क़त्ल कर देंगे।” ये कह कर उठने लगे तो सब ने बढ़ कर उनको पकड़ लिया और मुआमला रफ़ा दफ़ा किया। इस सारे क़ज़िए में तासीर के चेहरे पर जो ख़बासत की ख़ुशी थी वो देखने की चीज़ थी।
जोश साहब और अली अख़्तर मरहूम का किसी बात पर इख़्तिलाफ़ हुआ। दोनों में बड़ी दोस्ती थी। कोई बड़ी बेहूदा बात हुई होगी जोश साहब की तरफ़ से जो अली अख़्तर जैसे साधू क़िस्म के आदमी को नागवार गुज़री। उस ज़माने में नियाज़ फ़तहपुरी भी हैदराबाद पहुंचे हुए थे। उनके मरासिम दोनों शायरों से थे। अली अख़्तर तो बेचारे ख़ामोश हो गए मगर नियाज़ साहब ने महसूस किया कि उन्हें जोश से बदला लेना चाहिए। चुनांचे लखनऊ वापस पहुँच कर नियाज़ साहब ने “निगार” में कलाम-ए-जोश पर तन्क़ीद लिखने का सिलसिला जारी कर दिया। जोश ने बड़ी अक्लमंदी का सुबूत दिया कि यकसर ख़ामोशी इख़्तियार की। नियाज़ साहब बक झक कर ख़ुद ही ख़ामोश हो रहे। जिस नौइयत की तन्क़ीद नियाज़ साहब लिखते हैं उससे ख़ुद अपनी इल्मी फ़ौक़ियत जताना मक़सूद होता है मगर पढ़ने वाला भाँप जाता है कि इसमें जोंझ तो बहुत होती है ख़ुलूस मुतलक़ नहीं होता। “इस मिसरा में हे दब रही है। यह मिसरा चुस्त नहीं है। पहले मिसरा का दूसरे मिसरा से रब्त नहीं है। इसमें तनाफ़ुर है। अगर ये मिसरा यूं होता तो बेहतर था।” इसके बाद वो अपनी इस्लाह पेश कर देते हैं और शे’र का अगला रूप भी खो देते हैं। हाल ही में उन्होंने “निगार” का जिगर नंबर शाए किया है। उनका अंदाज़-ए-तन्क़ीद मुलाहज़ा फ़रमा लिया जाए।
कर्नल अशरफ़-उल-हक़ बड़े जहाँदीदा और गर्म-ओ-सर्द ज़माना चशीदा आदमी थे। ऊपर से बिल्कुल ठंडे और अंदर लावा खौलता रहता था। दो-चार ही बातों में ताड़ जाते थे कि कौन कितने पानी में है, वरना आज़माने के लिए कोई अशक़ला छोड़ देते थे। दकन में कामाटीनें रखने का आम रिवाज था। ये नीच क़ौम की जवान औरतें होती हैं जो उमूमन ऊपर के काम के लिए रखी जाती हैं। ऐसी ही एक संग-ए-अस्वद की तुरशी हुई जवान कामाटिन यल्ला डाक्टर अशरफ़ के हाँ मुलाज़िम थी। रावी ने बयान किया कि एक शाम को आवाज़ देने पर यल्ला दो गिलास अंदर से बनवाकर लाई। जोश साहब उस काली परी को देखकर देखते ही रह गए। डाक्टर साहब ने कहा, “देखते क्या हो, ऊपर ले जाओ।” बस इतना कहना काफ़ी था, आ गए तड़ी में। लगे एक तरफ़ ले जा कर इल्तिफ़ात करने। उसने झिड़क दिया। नाकाम वापस आए तो डाक्टर साहब ने कहा, “सुनो जोश, बीवी मेरी भी जवान है। तुम्हारा क्या एतिबार, कल को तुम उस पर भी हाथ डाल दोगे। लिहाज़ा आज से ये सिलसिला बंद।” जोश पर घड़ों पानी पड़ गया और शर्मिंदगी में उन्होंने वाक़ई गोलकुंडा आना जाना छोड़ दिया। डाक्टर साहब ही जोश के पास पहुँच जाया करते थे।
दिल्ली में एक जय्यद आलिम हैं मौलाना अबदुस्सलाम। क़लंदर मिज़ाज और यूनान-ए-क़दीम के रिवायती फ़लसफ़ियों जैसे आदमी हैं। अरबी, फ़ारसी और उर्दू के मुंतही हैं। जिस इल्म से कहो ख़ुदा के वजूद को साबित कर देते हैं। उनका सुकूत पहाड़ों का सुकूत और गुफ़्तगू दरियाओं की रवानी है। अब तो उसी से ऊंचे होंगे। जोश साहब जब दिल्ली आए तो उनकी तारीफ़ सुन कर उनसे मिलने गए। मौलाना ने जब जोश साहब के ख़यालात सुने तो उनका नारियल चटख़ा। बोले, “तुम्हारा दिमाग़ तो शैतान की खुड्डी है।” इससे मुख़्तसर और जामे तज्ज़िया जोश साहब का नहीं हो सकता।
जोश साहब कट्टर कांग्रेसी थे। मुसलमानों से उन्हें क्या मिलता? मुसलमान उनके मुलहिदाना और गुस्ताख़ाना ख़यालात की वजह से उन्हें बुरा समझते थे, लिहाज़ा ये हिन्दुओं से जा मिले थे। पण्डित जवाहर लाल नेहरू और मिसेज़ सरोजनी नायडू जैसे अदब दोस्तों ने उनकी सरपरस्ती क़ुबूल कर ली थी। ऐसे रिकाबियह मज़हब वालों का कोई किरदार तो होता ही नहीं। जहाँ देखता तवा पात, वहीं गुज़ारी सारी रात। किरदार था यगाना का कि भूकों मरा, ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी उठाई, और मरते मर गया मगर अपनी बात पर अड़ा रहा। जोश ने हमेशा अपने तर निवाले की ख़ैर मनाई। जो शख़्स ख़ुदा का मज़ाक़ उड़ा सकता है और इबलीस ओ अबू जहल की अज़मत की क़सम खा सकता है। उसके लिए पाकिस्तान और क़ाइद-ए-आज़म को बुरा-भला कहना क्या मुश्किल है। जो शख़्स अज़राह-ए-तमस्ख़ुर नहीं बल्कि निहायत संजीदगी से ऐसी बातें करता हो तो उसके लिए मुसलमान क्या और पाकिस्तान क्या! डट कर पाकिस्तान की मुख़ालिफ़त की और क़ियाम-ए-पाकिस्तान के बाद हिंदुस्तान ही में रह गए। हिंदू परस्ती का ये आलम रहा कि गाँधी जी के हलाक होने पर जोश साहब ने अपनी नज़्म “शहीद-ए-आज़म” लिखी। हर-चंद कि जोश साहब के गुज़श्ता आमाल इस लायक़ थे कि उन्हें पाकिस्तान बदर कर दिया जाता ताहम पाकिस्तान की हुकूमत और पाकिस्तान के अवाम ने वसी-उल-क़ल्बी से काम लेकर उन्हें अमान दी और तरक़्क़ी-ए-उर्दू बोर्ड में सोलह सौ रुपये माहाना पर लुग़त नवीसी के काम पर उन्हें लगा दिया। जोश और लुग़त नवीसी! मारों घुटना फूटे आँख! यही वो ज़माना था कि मौसूफ़ ने एक तवील नज़्म “चना जोर गर्म” लिखी जिसमें पाकिस्तान की भट्टी उड़ाई और जिसे वो बड़े तुमतराक़ से अपने मख़सूस हलक़ों में सुनाने फिरते थे। बेदीनी और पाकिस्तान दुश्मनी के बावजूद, और हुकूमत-ए-हिंद की सरपरस्ती के बावस्फ़ जोश साहब हिंदुस्तान में नहीं रह सके और पाकिस्तान आ गए। ख़बर नहीं उनकी ग़ैरत ने इसे कैसे क़ुबूल कर लिया। बेदीनी का दाग़ छुपाने के लिए उन्होंने मरसिए कहने शुरू किए और पाकिस्तान दोस्ती के इज़हार के लिए सदर अय्यूब की शान में एक नासिहाना क़सीदा कहा जूतियों समेत आँखों में घुसना इसको कहते हैं।
पाकिस्तान बन जाने के बाद जो मुसलमान हिंदुस्तान में रह गए थे उनकी वफ़ादारी को हमेशा शुबहा की नज़र से हकूमत-ए-हिन्द ने देखा। यहाँ तक कि अबुल कलाम आज़ाद के बा’ज़ बयानात पर पटेल ने उन्हें भी मतऊन किया। मगर जोश साहब की वफ़ादारी किसी को मुश्तबहा नज़र न आई। पण्डित नेहरू मुरव्वत के आदमी हैं, उन्होंने उनके हलवे मांडे का इंतज़ाम कर दिया। तक़रीबन दो हज़ार रुपये माहाना की उन्हें याफ़्त करा दी गई। काम कुछ नहीं, सिर्फ़ निगरानी और मश्वरा। हकूमत-ए-हिन्द ने उन्हें “पद्म भूषण” के आला ख़िताब से भी नवाज़ दिया। दस साल तक जोश साहब हिंदुस्तान में ख़ूब मौज मारते रहे। लेकिन हिंदू एक मुसलमान को अच्छे हालात में देखना भला कैसे पसंद कर सकते थे। ताक में लगे रहते। और उनकी ज़रा ज़रा सी बात की गिरफ़्त करते। जोश साहब एक ग़ैर मोहतात आदमी, क़दम क़दम पर उनसे लग़्ज़िश होती। ख़फ़ीफ़ उल हरकती और बा’ज़ ग़लत बातें भी करते। यार लोग बढ़ा चढ़ा कर ऊपर के हलक़ों में पहुंचाते और वज़ीर-ए-आज़म के कान भरते। पंडित जी तरह दे जाते। मगर चश्मपोशी की भी एक हद होती है। सुना है कि जोश साहब की साख इतनी बिगड़ गई कि हिंदुस्तान में उनका मज़ीद क़ियाम ख़तरे में पड़ गया। जब दिल्ली की फ़िज़ा उनके लिए ज़रूरत से ज़्यादा गर्म हो गई तो उन्होंने पाकिस्तान का रुख़ किया। यहाँ आ कर कराची के चीफ़ कमिशनर नक़वी से मिले और उनके ज़रिए सदर सिकन्दर मिर्ज़ा से। लो साहब! यहाँ कोई चार हज़ार रुपये माहाना का उनके लिए इंतज़ाम हो गया। यहाँ का मुआमला पक्का कर के मौसूफ़ फिर दिल्ली पहुंचे और सुना है कि पाकिस्तान की पेशकश दिखा कर पंडित जी से फिर मुआमलत करनी चाही। मगर वहाँ से जवाब मिल गया कि आपका पाकिस्तान चला जाना ही बेहतर है। चुनांचे उर्दू हिन्दी और अपने बच्चों के मुस्तलहा पर एक बयान देकर जोश साहब कराची चले आए। उधर अख़बार वालों को सुन-गुन मिल गई कि नक़वी साहब ने जोश पर दर्सी के लिए क्या क्या अस्बाब मुहय्या किए हैं। उर्दू अख़बारों में ले दे शुरू हो गई और जोश साहब “अज़-आन सू राँदे व अज़-ईं सू दर-मान्दे” की ज़िंदा मिसाल बन कर रह गए। चार हज़ार रुपये माहवार का सुहाना ख़्वाब शर्मिंदा-ए-ताबीर न हुआ।
अपने मौजूदा हालात से जोश साहब सख़्त नामुतमइन-ओ-नाख़ुश हैं। उनका कहना ये है कि मुझ पर पंद्रह बीस अफ़राद-ए-ख़ानदान का बार है। अपनी औलाद के अलावा औलाद की औलाद के भी जोश साहब ही कफ़ील हैं। ब्याही त्याही बेटी और दामाद भी उन्ही के सर हैं। सुना है कि दामाद साहब बी.ए., बी.टी हैं। स्कूल की मुलाज़िमत को बहुत घटिया चीज़ तसव्वुर करते हैं। हज़रत जोश का दामाद और स्कूल मास्टरी! दुनिया क्या कहेगी? लिहाज़ा मअ बीवी और जवान जवान बच्चों के जोश के घर में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं और शायर-ए-इन्क़िलाब की इज़्ज़त-ओ-आबरू की हिफ़ाज़त कर रहे हैं। जोश साहब सत्तर के लपेटे में हैं। इतनी उम्र और इतनी दुनिया देखने के बाद भी उनके मिज़ाज का भोलपन नहीं गया।
भोलपन पर उनके मिज़ाज का एक और पहलू याद आ गया। अपनी शायरी की बदौलत जोश साहब हमेशा से हुक्काम रस रहे हैं। अहल-ए-ग़रज़ उन्हें घेरे रहते हैं। सई सिफ़ारिश करने में ज़रा भी हचर मचर नहीं करते। सिफ़ारिश बेश्तर नालायक़ों ही की की जाती है। जोश साहब ने किसी बड़े आदमी से किसी की सिफ़ारिश की और उसकी तारीफ़ के पुल भी बाँध दिए। बड़े आदमी ने कहा, “मगर जोश साहब, ये साहब तो इस जगह के लिए मौज़ूं नहीं हैं।”
“जी और क्या बिल्कुल नामौज़ूं हैं।”
“तो इस सूरत में ये जगह तो उन्हें नहीं दी जा सकती।”
चलिए छुट्टी हुई। उम्मीदवार से कह दिया कि “साहब आप तो इस जगह के लिए क़तई ना-मौज़ूं हैं।”
उसने वावेला मचाया कि “हज़रत मुझसे ज़्यादा मौज़ूं तो कोई और है ही नहीं।”
“यक़ीनन आपसे ज़्यादा मौज़ूं कोई और कैसे हो सकता है।”
“साहब ये बड़ा मुतअस्सिब अफ़सर है।”
“जी हाँ, मेरा भी यही अंदाज़ा है। सख़्त मुतअस्सिब है कमबख़्त।”
ग़ालिबन जोश साहब सबको ख़ुश करने की कोशिश करते हैं इसलिए उनकी गुफ़्तगू हमेशा इस्बाती होती है। उसे आप चाहें तो उनका भोलपन कह लें, चाहे ये कह लें कि जोश साहब बे पेंदी के बधने हैं।
इसी से मिलता जुलता वाक़िआ गिल्ड के क़ियाम के वक़्त पेश आया। जमील जालबी साहब से जोश साहब का ख़ासा रब्त-ज़ब्त है। तै पाया कि जमील साहब जा कर जोश साहब को गिल्ड के पहले इजलास में शिरकत की दावत दें। जमील साहब ने मुझे भी साथ ले लिया। ड्रग रोड में उनकी कोठी पर पहुँच कर फाटक पीटा तो एक अधेड़ उम्र के साहब तशरीफ़ लाए और बोले, “आहा, मैं इत्तिला करता हूँ।” जमील साहब ने बताया कि यही वो जोश साहब के मारूफ़ दामाद हैं जो कुछ नहीं करते। थोड़ी देर में लौट के आए और बोले, “चले जाइए।” कमरे में जोश साहब बिराजमान थे और उनके चंद हवा-ख़्वाह उन्हें घेरे हुए थे। जमील साहब ने गिल्ड की मुख़्तसर रूदाद सुनाई और जोश साहब से शिरकत की इस्तिदआ की। बोले “ज़रूर, ज़रूर। मगर आप आ कर मुझे ले जाएं।” जमील साहब ने कहा, “मैं ख़ुद आ कर आपको ले जाऊँगा।” मगर वक़्त-ए-मुक़र्ररा पर जब जमील साहब इन्हें लेने गए तो बे नील-ए- मराम वापस आए। बाद में मालूम हुआ कि जो लोग उन्हें घेरे रहते हैं। उन्होंने जोश साहब को ये कह कर हुश्का दिया कि गिल्ड की तरफ़ से आपको कोई ओहदा तो पेश ही नहीं किया गया। इस सूरत में आपका जाना मुनासिब नहीं। दूसरे दिन इलेक्शन होने वाला था। उसमें पांच छः सौ अदीब और शायर ओहदेदारों और मजलिस-ए-आमला वग़ैरा का इंतिख़ाब करने वाले थे। घर बैठे जोश साहब को ओहदा कौन दे जाता? चुनांचे आज तक जोश साहब गिल्ड के मेंबर नहीं बने और उनके दिल में यही समाई हुई है कि उन्हें गिल्ड में कोई बड़ा ओहदा मिलना चाहिए। गोया गिल्ड में ओहदों की ख़ैरात बट रही है जिसकी तक़सीम उनके घर से शुरू होनी चाहिए।
बहुत सी ख़राबियां हैं जोश साहब में। ख़राबियां सब में होती हैं, किसी में कम किसी में ज़्यादा। मगर अपनी तमाम ख़राबियों के बावजूद जोश एक मक़नातीसी शख़्सियत के मालिक हैं। उनसे तबीयत मुतनफ़्फ़िर नहीं होती। उनसे मुहब्बत करने को जी चाहता है। शे’र का तो उनके जवाब ही नहीं है। मुशायरों में जब वो पढ़ते हैं तो सब के चराग़ गुल हो जाते हैं। बातें भी भोली भोली और मज़ेदार करते हैं। बस, वो कहें और सुना करे कोई। एक पिटा हुआ मुफ़लिस शायर पाकिस्तान में उनसे लिपट गया। कभी हैदराबाद में उनकी जान को लगा रहता था। कुछ अरसा हुआ अचानक उसका इंतिक़ाल हो गया। अल्लाह उसकी रूह को न शरमाए, बड़ा ही बेग़ैरत था। जोश साहब ने उसका नाम ही कुत्ता रख दिया था। सेंट्रल होटल में जोश साहब को किसी ने अस्राना दिया। अस्राना ख़त्म हुआ, जोश साहब ने अपना कलाम सुनाना शुरू किया कि मरहूम सपड़ सपड़ करता आ पहुंचा। जोश साहब ने मेज़बान से कहा, “देखो, वो कुत्ता आया है, उसे कुछ खाने को दो।” कुत्ते ने ख़ूब सेर हो कर खाया और दाद देने आ बैठा। मरहूम हरफ़न मौला था, नस्र भी लिखता था, शे’र भी कहता था, यज़ीद की तारीफ़ में एक पूरी किताब भी उसने लिखी थी जिसे छापने के लिए उसे कोई पब्लिशर नहीं मिलता था। गाने बजाने में भी कुछ दख़ल था। खाने भी पका लेता था। एक दफ़ा जोश साहब से बोला, “मछली तो कभी मैं आपको पका कर खिलाऊंगा। आप उँगलियाँ ही चलाटते रह जाएंगे।”
“अरे भई तो खिलाओ न किसी दिन।”
“कल ही लीजिए।”
अगले दिन वो मछली पकाकर ले गया। अच्छी पकाई थी, मगर चलते वक़्त पतीली के साथ सोलह रुपये कुछ आने भी लागत के जोश साहब से ले गया।
जोश साहब जिस घन-गरज के शे’र कहते हैं पढ़ते भी उसी घन-गरज से हैं। रोज़ाना सुबह को बाक़ायदगी से शे’र कहते हैं। शाइक़ीन उनका कलाम सुनने के लिए बेताब रहते हैं। आज तक कोई फुसफुसा शे’र उनका नहीं सुना। साबिक़ चीफ़ कमिशनर नक़वी ने साबिक़ सदर सिकन्दर मिर्ज़ा को बावर करा दिया था कि जोश उर्दू का सबसे बड़ा शायर है, ये लतीफ़ा हुकूमत के एक बड़े ओहदेदार ने सुनाया कि कोई वज़ीर क़िस्म का अंग्रेज़ पाकिस्तान आया हुआ था। ऐवान-ए-सदर में उसके एज़ाज़ में डिनर था। मुअज़्ज़िज़ मेहमानों में जोश साहब भी शामिल थे। आजकल तो खड़ा खाना (बुफ़े) होता है। खाते भी जाओ और ज़रा टहल टहल कर मेहमानों से बातें भी करते जाओ। मुअज़्ज़िज़ मेहमान के साथ टहलते हुए सिकन्दर मिर्ज़ा जोश साहब के क़रीब आ गए। जोश साहब का नाम तो उन्हें याद न आया, तआरुफ़ कराते हुए बोले।
“MEET THE GREATEST POET OF URDU”
वो भी एक ही बूझ बुझक्कड़ था। हाथ बढ़ा कर बोला,
“OH! SEE! SO YOU ARE MR. GHALIB.”
अंजुमन दानिश्वरान-ए-अदब के सदर जनाब अब्दुल ख़ालिक़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ एक क़ाबिल और इल्मदोस्त आदमी हैं। अस्ल वतन तो दिल्ली था मगर सालहा साल से कराची में रहते हैं। सिगरेट किंग कहलाते हैं। महीने दो महीने में उनके हाँ एक पुरतकल्लुफ़ दावत होती है। जिसमें पंद्रह बीस मेंबर और दो-चार एज़ाज़ी मेहमान शरीक होते हैं। इत्तफ़ाक़ से उस अंजुमन के तक़रीबन तमाम मेंबर ख़ुश ख़ौर भी हैं (सिवाए जनाब-ए-सद्र के, जो खाते कम हैं मगर खिलाकर ज़्यादा ख़ुश होते हैं) लिहाज़ा शेख़ साहब खाने का नित नया एहतिमाम करते हैं। कभी बिरयानी और क़ोरमा की दावत होती है, कभी सीख़ के कबाब और पूरियों की। कभी मुर्ग़-मुसल्लम की, और कभी आमों की। जाड़ों में निहारी और पायों की दावत होती है। कभी कभी उसमें जोश साहब भी शरीक होते हैं। शेख़ साहब उनके क़द्रदान और नाज़ बर्दार हैं। इसलिए उनके लिए उम्दा से उम्दा शराब भी मंगवाते हैं। मग़रिब के बाद ही मेहमान जमा हो जाते हैं। फ़ज़ली, माहिर-उल-क़ादरी, मुहम्मद तक़ी, रईस अमरोहवी, जौन एलिया, रज़्ज़ाक़-उल-ख़ैरी, ए.डी. अज़हर, सहबा लखनवी, मुमताज़ हुसैन, शान-उल-हक़ हक़्क़ी, अलताफ़ गौहर, मुहाजिर साहब और कई और हज़रात जिनके नाम इस वक़्त याद नहीं आ रहे, शेख़ साहब की कोठी के कुशादा और सर सब्ज़ सेहन में बैज़वी हलक़े में कुर्सियाँ लगी हुई हैं। मेहमान आते-जाते हैं और बैठते जाते हैं। हंसी मज़ाक़ की बातें होती हैं। जोश साहब की मेज़ अलग एक तरफ़ लगी हुई है। शराब की बोतल है, सोडा है, थर्मस में बर्फ़ की डलियां हैं, दो गिलास हैं। एक टाइम पीस भी मेज़ पर धरी हुई है। क्यूंकि जोश साहब घड़ी रख कर पिया करते हैं। वक़्त ख़त्म हुआ शराब का दौर ख़त्म हुआ। मजाज़ मरहूम को भी जोश साहब ने नसीहतें की थी कि मियाँ घड़ी रख कर पिया करो। इस बला नोश ने जवाब में कहा था कि “मेरा बस चले तो घड़ा रखकर पियूँ।”
जोश साहब का साथ देने के लिए एक और साहब जा बैठे हैं। जोश पीते रहते हैं, ये चुस्की लगाते रहते हैं। घंटा डेढ़ घंटा में जोश साहब पांच छः गिलास पी जाते हैं, ये दो ही में छक जाते हैं और जब खड़े होते हैं तो उनकी टांगें लड़खड़ाने लगती हैं। जोश साहब में कोई फ़र्क़ दिखाई नहीं देता। खाने का वक़्त हो गया। लम्बी मेज़ पर खाना चुना गया। खड़ा खाना भी होता है और बिठा खाना भी। जोश साहब का खाना उन्ही की मेज़ पर पहुँच गया। माशा-अल्लाह ख़ुश ख़ोर हैं। जभी तो सत्तर साल की उम्र में भी टांटे बने हुए हैं। सच है “एक डाढ़ चले, सत्तर बला टले।” शेख़ साहब एक एक के पास जा कर कहते हैं, “आपने ये तो लिया ही नहीं।” “आप तो कुछ खा ही नहीं रहे।” “भाई आप क्या कर रहे हैं? ये लीजिए न।” इसरार कर करके सबको खिला रहे हैं। “शेख़ साहब, आप भी तो कुछ लीजिए न।” “जी हाँ, मैं भी खा रहा हूँ।” ये कह कर उन्होंने कुछ चैंग लिया और आगे बढ़ गए। माहिर-उल-क़ादरी खाने के साथ पूरा पूरा इन्साफ़ करते हैं। यानी इतना कि उसके बाद मज़ीद इन्साफ़ करने की गुंजाइश नहीं रहती। इतने में बर्फ़ में लगे हुए आम आ जाते हैं तो मौलाना तास्सुफ़ से फ़रमाते हैं, “अरे! ये तो पहले बता देना चाहिए था कि आम भी हैं।” मैंने कहा, “यही तो नुक़्सान है मौलाना शॉर्ट हैंड में खाने का।” और सहबा कहते हैं, “क़ौम का नुक़्सान कर दिया शेख़ साहब ने।” फिर क़ौम आमों पर दस्त दराज़ी शुरू करती है मगर मौलाना माहिर-उल-क़ादरी भी तीन दानों से ज़्यादा नहीं खा सकते। आमों से निमटने नहीं पाते कि आइसक्रीम आ जाती है। मौलाना अफ़्सुर्दगी से कहते हैं, “लीजिए अभी ये भी बाक़ी है।” इसके लिए भी कहीं न कहीं गुंजाइश निकल आती है।
खाने से फ़ारिग़ हो कर सब कुर्सियों के हलक़े में आ बैठते हैं। जोश साहब भी हलक़े में शामिल हो जाते हैं। उनके दाएं हाथ से शे’र-ख़्वानी का चक्कर चलता है। शायर अपना अपना कलाम सुनाते हैं। आख़िर में जोश साहब का नंबर आता है। वो ख़ूब स्टीम भर चुके हैं। एक बयाज़ सामने रखकर शुरू हो जाते हैं। किस बला का कलाम है! सुनने वाले फड़क फड़क कर दाद देते। बीसियों बंद की तवील नज़्म है मगर अखरती नहीं। जी यही चाहता है कि नज़्म कभी ख़त्म न हो। और माशा अल्लाह कितनी जान है पढ़ने वाले में। पूरी आवाज़ से पढ़ते घंटा डेढ़ घंटा हो गया। आवाज़ खर खराई तक नहीं। क्या इस शायर का यही एक वस्फ़ ऐसा नहीं कि उसके तमाम उयूब को नज़र अंदाज कर के उसे गले से लगा लिया जाए?
नाज़त ब-कशम के नाज़-ए-नैनी
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