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    ये उस मशहूर ऐक्ट्रेस का नाम है जो हिंदुस्तान के मुतअद्दिद फिल्मों में चुकी है और आपने यक़ीनन उसे सीमीं पर्दे पर कई मर्तबा देखा होगा। मैं जब भी उस का नाम किसी फ़िल्म के इश्तिहार में देखता हूँ तो मेरे तसव्वुर में उस की शक्ल बाद में, लेकिन सबसे पहले उसकी नाक उभरती है... तीखी, बहुत तीखी नाक और फिर मुझे बंबई टॉकीज़ का वो दिल-चस्प वाक़िया याद जाता है जो मैं अब बयान करने वाला हूँ।

    बंटवारे पर जब पंजाब में फ़सादात शुरू हुए तो कुलदीप कौर जो लाहौर में थी, और वहां फिल्मों में काम कर रही थी, हिज्रत कर के बंबई चली गई। उस के साथ उस का दाश्ता प्राण भी था जो पंचोली के कई फिल्मों में काम कर के शोहरत हासिल कर चुका था।

    अब प्राण का ज़िक्र आया है तो उस के मुताल्लिक़ भी चंद तआरुफ़ी सुतूर लिखने में कोई मज़ाइक़ा नहीं। प्राण अच्छा ख़ासा ख़ुश शक्ल मर्द है। लाहौर में उस की शोहरत इस वजह से भी कि वो बड़ा ही ख़ुश-पोश था। बहुत ठाट से रहता था, उस का तांगा घोड़ा लाहौर के रईसी टांगों में से ज़्यादा ख़ूबसूरत और दिलकश था।

    मुझे मालूम नहीं, प्राण से कुलदीप कौर की दोस्ती कब और किस तरह हुई इसलिए कि मैं लाहौर में नहीं था लेकिन फ़िल्मी दुनिया में दोस्तियाँ अजाइब में दाख़िल नहीं। वहां एक फ़िल्म की शूटिंग के दौरान में एक्ट्रेसों का दोस्ताना ब-यक-वक़्त कई मर्दों से हो सकता है जो इस फ़िल्म से वाबस्ता हों।

    जिन दिनों प्राण और कुलदीप कौर का मुआशक़ा चल रहा था। उन दिनों श्याम मरहूम भी वहीं था। पूना और बंबई में क़िस्मत आज़माई करने के बाद वो लाहौर चला गया था जिससे उसे वालिहाना मुहब्बत थी। इश्क़ पेशा इन्सान था और कुलदीप भी इस मैदान में उस से पीछे नहीं थी... दोनों का तसादुम हुआ। क़रीब था कि वो एक दूसरे में मुदग़म हो जाते कि एक और लड़की श्याम की ज़िंदगी में दाख़िल हो गई।

    उस का नाम मुम्ताज़ था जो ताजी के नाम से मशहूर हुई। ये ज़ेब क़ुरैशी, एम. ए. की छोटी बहन थी। कुलदीप कौर को श्याम की ये कलाबाज़ी पसंद आई चुनांचे वो इस से नाराज़ हो गई और हमेशा नाराज़ रही। मैं यहां आपको ये बता दूं कि कुलदीप बड़ी हटीली औरत है जो बात उस के दिमाग़ में समा जाये उस पर अड़ी रहती है। मैं आपको एक दिलचस्प बात बताऊं। ये वाक़िया बंबई का है।

    हम तीनों बंबई टॉकीज़ में थे और शाम को बर्क़ी ट्रेन से अपने घर जा रहे थे। फ़र्स्ट क्लास डिब्बा उस दिन क़रीबन क़रीबन ख़ाली था। हम तीनों के सिवा उस में और कोई मुसाफ़िर था।

    श्याम तबअन बड़ा बलंद बांग और मुंह-फट था। जब उसने देखा कि कम्पार्टमेंट में कोई ग़ैर नहीं तो उसने कुलदीप कौर से छेड़ख़ानी शुरू कर दी लेकिन मैं समझता हूँ कि इस का असल मक़सद ये था कि वो रिश्ता जो लाहौर में क़ायम होते होते रह गया था, अब यहां बंबई में क़ायम हो जाये क्यों कि ताजी से उस की खटपट हो गई थी। रमोला कलकत्ता में थी और निगार सुल्ताना नग़्मा नवीस मधोक के पास। वो उन दिनों ब-क़ौल उस के ख़ाली हाथ था।

    चुनांचे उसने कुलदीप कौर से कहा “के के तुम मुझ से दूर दूर क्यूं रहती हो, इधर आओ मेरी जां मेरे पास बैठो।” कुलदीप की नाक और तीखी हो गई।

    “श्याम साहब! आप मुझ पर डोरे डालें।”

    मैं उनकी गुफ़्तगू जो मुझे मुकम्मल तौर पर याद है यहां नक़्ल करना नहीं चाहता इसलिए कि वो बहुत बे-बाक थी। वैसे उस की रूह अपने लफ़्ज़ों में बयान किए देता हूँ। श्याम कभी संजीदगी से बात नहीं करता था। इस के हर लफ़्ज़ में एक क़हक़हा होता था। उसने कुलदीप से उसी मख़सूस अंदाज़ में कहा। “जान-ए-मन! उस उल्लू के पट्ठे पर उनको छोड़ो और मेरे साथ नाता जोड़ो। वो मेरा दोस्त है लेकिन ये मुआमला बड़ी आसानी से तय हो सकता है।”

    कुलदीप कौर की आँखें उस की नाक की तरह बड़ी और तीखी हैं। उस का लब-ए-दहान भी बड़ा तीखा है। उस के चेहरे का हर ख़द्द-ओ-ख़ाल तीखा है जब वो अपनी बड़ी बड़ी आँखें झपका कर बात करती है तो आदमी बौखला जाता है कि ये क्या मुसीबत है।

    उसने तेज़ तेज़ निगाहों से श्याम की तरफ़ देखा और उस से ज़्यादा तेज़ लहजे में उस से कहा “मुंह धो कर रखिए श्याम साहब” श्याम पर औरतों की तेज़ गुफ़्तारी का भला क्या असर होता उसने एक क़हक़हा लगाया और कहा “के के मेरी जान तुम लाहौर में मुझ पर मरती थीं याद नहीं तुम्हें।”

    अब कुलदीप कौर ने क़हक़हा लगाया जिसमें निस्वानी तंज़ भरा था। “आप को वहम हो गया था।”

    श्याम ने कहा “तुम ग़लत कहती हो तुम मुझ पर मरती हो।”

    मैंने कुलदीप की तरफ़ देखा और मुझे महसूस हुआ कि उस के जिस्म पर सुपुर्दगी की ख़्वाहिश है मगर उस का हटीला दिमाग़ उस की इस ख़्वाहिश को रद करने की कोशिश में मसरूफ़ है। चुनांचे उसने अपनी तीखी पलकें फड़फड़ा कर कहा। “मरती थी लेकिन अब मैं नहीं मरूँगी।”

    श्याम ने इसी लाउबालियाना अंदाज़ में कहा। “अब नहीं मरोगी तो कल मरोगी। मरना बहर हाल तुम्हें मुझ पर ही है।”

    कुलदीप कौर भन्ना गई। “श्याम तुम मुझ से आज आख़िरी बार सुन लो कि तुम्हारा मेरा कोई सिलसिला नहीं हो सकता। तुम इतराते हो। हो सकता है लाहौर में कभी मेरी तबीयत तुम पर आई हो लेकिन जब तुमने बे-रुख़ी बरती तो मैं क्यों तुम्हें मुंह लगाऊँ। अब इस क़िस्से को ख़त्म करो।”

    क़िस्सा ख़त्म हो गया। सिर्फ़ वक़्ती तौर पर क्यूं कि श्याम ज़्यादा बहस का आदी नहीं था, कुलदीप कौर अटारी के एक मशहूर-ओ-मारूफ़ और मालदार सिख घराने से ताल्लुक़ रखती है, इस का एक फ़र्द लाहौर की एक मशहूर मुसलमान औरत से मुंसलिक है जिसको उसने लाखों रुपये दिए और सुना है कि अब भी देता है।

    ये मुसलमान औरत किसी ज़माने में यक़ीनन ख़ूबसूरत होगी मगर अब मोटी और भद्दी हो गई है मगर वो अटारी के सिख हज़रात अब भी बाक़ायदा यहां लाहौर में फ़लीटी होटल में आते हैं और अपनी मुसलमान महबूबा के साथ चंद रोज़ गुज़ार कर वापस चले जाते हैं।

    जब बटवारा हुआ तो कुलदीप कौर और प्राण को अफ़रा-तफ़री में लाहौर छोड़ना पड़ा। प्राण की मोटर (जो ग़ालिबन कुलदीप कौर की मिल्कियत थी) यहीं रह गई लेकिन कुलदीप कौर एक बा-हिम्मत औरत है। इस के अलावा उसे ये भी मालूम है कि वो मर्दों को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है। उस के लिए वो कुछ देर के बाद लाहौर आई और फ़सादात के दौरान में ये मोटर ख़ुद चला कर बंबई ले गई।

    जब मैंने मोटर देखी और प्राण से पूछा कि ये कब ख़रीदी गई है तो उसने मुझे सारा वाक़िया सुनाया कि के के लाहौर से लेकर आई है और ये कि रास्ते में उसे कोई तकल्लुफ़ नहीं हुई, एक सिर्फ़ दिल्ली में उसे चंद रोज़ ठहरना पड़ा कि एक गड़-बड़ हो गई थी ये गड़-बड़ क्या थी, उस के मुताल्लिक़ मुझे कुछ इल्म नहीं।

    जब वो मोटर लेकर आई तो उसने सिखों पर मुसलमानों के मज़ालिम बयान किए और इस अंदाज़ से बयान किए कि मालूम होता था कि वो मेज़ पर से मक्खन लगाने वाली छुरी उठाएगी और मेरे पेट में घोंप देगी लेकिन मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो जज़्बाती हो गई थी वर्ना मुसलमानों से कोई अदावत या बुग़्ज़ नहीं।

    असल में उस का कोई मज़हब नहीं, वो सिर्फ़ औरत है, एक ऐसी औरत जो जिस्मानी लिहाज़ से बड़ी पुर-ख़ुलूस है।

    उस की नाक बेहद तीखी है। उस की आँखें बहुत तेज़ हैं। उस का लब-ए-दहन बहुत बारीक है। यही वजह है कि उस के चेहरे पर ज़रा सा चढ़ाव बहुत तेज़-ओ-तुंद बन जाता है। इस के अलावा उस का लहजा और उस की आवार भी ग़ैर मानवी तौर पर तुंद-ओ-तरह रहे।

    कुलदीप कौर की तीखी नाक का ज़िक्र मैं कई बार कर चुका हूँ इस सिलसिले में आप एक लतीफ़ा सुन लीजिए।

    फ़िल्मिस्तान छोड़कर अपने दोस्त अशोक कुमार और साइक वाचा के साथ बंबई टॉकीज़ चला गया था, उस ज़माने में फ़सादाद का आग़ाज़ था। इसी दौरान में कुलदीप कौर और उस का दाश्ता प्राण मुलाज़िमत के लिए वहां आया।

    प्राण से जब मेरी मुलाक़ात श्याम के तवस्सुत से हुई तो मेरी उस की फ़ौरन दोस्ती हो गई। बड़ा बेरिया आदमी है। कुलदीप कौर से अलबत्ता कुछ रस्मी क़िस्म की मुलाक़ात रही।

    उन दिनों तीन फ़िल्म हमारे स्टूडियो में शुरू होने वाले थे। चुनांचे जब कुलदीप स्वर ने मिस्टर साइक वाचा से मुलाक़ात की तो उन्होंने जोज़िफ़ वाशिंग जर्मन कैमरा मैन से कहा कि “वो इस का कैमरा टेस्ट ले ताकि इत्मिनान हो जाये।”

    वाशिंग गोरे रंग और अधेड़ उम्र का मोटा सा आदमी है। उस को हिमानसू राय मरहूम अपने साथ जर्मन से लाए थे। जब जंग शुरू हुई तो उसे देव लाल में नज़र-बंद कर दिया गया। एक अरसे तक वहां रहा जब जंग ख़त्म हुई तो उसे रिहा कर दिया गया और वो फिर वापस बंबई टॉकीज़ में गया। इसलिए कि मिस्टर वाचा से उस के दोस्ताना ताल्लुक़ात थे क्यूं कि वो अरसा हुआ बंबई टॉकीज़ में इकट्ठे एक दूसरे के साथ काम करते रहे थे। उन दिनों मिस्टर वाचा साऊंड रिकार्ड सेट थे।

    वाशिंग ने स्टूडियो में रौशनी का इंतिज़ाम कराया और मेक-अप मैन से कहा कि वो कुलदीप कौर को तैयार कर के कैमरा टेस्ट के लिए लाए। वो ख़ुद तैयार था। कैमरा नया था। उस को उसने अच्छी तरह देखा। रोशनियां दुरुस्त कराईं और अपना चुरट सुलगाए एक तरफ़ खड़ा हो गया।

    कुलदीप कौर आई, मैंने उसे देखा, उस की नाक पर मेक-अप मैन ने सुर्ख़ी और सफ़ेदे कुछ ऐसे ख़त लगाए थे कि वो दस गुना और तीखी हो गई थी। जब वाशिंग ने उस को देखा तो वो घबरा गया क्यूं कि वो सर-ता-पा नाक थी।

    कुलदीप कौर बिलकुल बे-ख़ौफ़, बे-झिजक कैमरे के सामने खड़ी हो गई। वाशिंग ने अब उस को कैमरे की आँख से देखा मगर महसूस कर रहा था कि उस को बड़ी उलझन हो रही है, वो उस की नाक ऐसे ज़ाविए पर बिठाने की कोशिश कर रहा था कि मायूब मालूम हो।

    बेचारा इस कोशिश में पसीना पसीना हो गया। आख़िर उसने थक हार कर मुझ से कहा कि “मैं अब एक कप चाय पियूँगा। मैं सारा मुआमला समझ गया। चुनांचे हम दोनों कैंटीन में पहुंच गए। वहां उसने अपना पसीना पोंछते हुए मुझसे कहा। “मिस्टर मंटो! उस की नाक भी एक आफ़त है कैमरे में घुसी चली आती है। चेहरा बाद में आता है, नाक पहले आती है अब मैं क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता।” “मेरी समझ में ख़ुद कुछ नहीं आता,” मैंने कहा। “तुम जानो तुम्हारा काम जाने।”

    फिर उसने एक और उलझन का इज़हार किया लेकिन वो मेरे कान में “मिस्टर मंटो... इस वक़्त मुआमला ठीक नहीं है। लेकिन मैं उसे कैसे कहूं” और ये कह कर मोटे वाशिंग ने अपना पसीना फिर पोंछा।

    मैं उस का मतलब समझ गया लेकिन वाशिंग ने फिर भी मुझे वज़ाहत से सब कुछ बता दिया और मुझसे दरख़्वास्त की कि मैं के के से दरख़्वास्त करूँ वो इस मुआमले को ठीक करे कि वो बहुत ज़रूरी है, नाक का वो कोई कोई ज़ाविया निकाल लेगा मगर इस मुआमले के मुताल्लिक़ वो कुछ भी नहीं कर सकता कि वो ये उस का काम है। मैंने उस की तशफ़्फ़ी की कि मैं सब ठीक कर दूंगा क्यूं कि उसने मुझे इस मुआमले की दुरुस्ती का हल बता दिया था कि जो पैंतीस रुपये में वाईट वे ऐंड लीडाला की दुकान से दस्तियाब हो सकता था।

    उस रोज़ टेस्ट किसी बहाने से मौक़ूफ़ कर दिया गया। कुलदीप जब स्टूडियो से बाहर निकली तो मैंने बे-तकल्लुफ़ी से सारी बात जो इस मुआमले के मुताल्लिक़ थी बता दी और उस से कहा कि “वो आज ही फोर्ट में जा कर चीज़ें ख़रीद ले जिससे उस के जिस्म का नुक़्स दूर हो जाएगा।”

    उसने बिला झिजक मेरी बात सुनी और कहा “ये कौन सी बड़ी बात है।” चुनांचे वो उसी वक़्त प्राण के साथ गई और वो चीज़ ख़रीद लाई, जब दूसरे स्टूडियो में उस से मुलाक़ात हुई तो ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ था। ये चीज़ें ईजाद करने वाले भी बला आदमी हैं जो यूं चुटकियों में मुआमलों को कहाँ से कहाँ पहुंचा देते हैं।

    वाशिंग ने जब उसे देखा तो वो मुतमइन था। गो कुलदीप की नाक उसे तंग कर रही थी मगर अब दूसरा मुआमला बिलकुल ठीक था। चुनांचे उसने टेस्ट लिया और जब उस का प्रिंट तैयार हुआ और हम सबने उसे अपने हाल में देखा तो उस की शक्ल-ओ-सूरत को पसंद किया और ये राय मुत्तफ़िक़ा तौर पर क़ायम हुई कि वो ख़ास रोलज़ के लिए बहुत अच्छी रहेगी। ख़ुसूसन वीम्प रोल के लिए। कुलदीप कौर से मुझे ज़्यादा मिलने जुलने का इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ। प्राण चूँकि दोस्त था और उस के साथ अक्सर शामें गुज़रती थीं इसलिए कुलदीप भी कभी मेरे साथ शरीक हो जाती थी, वो एक होटल में रहती थी जो साहिल समुंद्र के पास था, प्राण भी इस से कुछ दूर एक सिक्वेल में मुक़ीम था जहां उस की बीवी और बच्चा भी था लेकिन उस का ज़्यादा वक़्त कुलदीप कौर के साथ गुज़रता था। मैं अब आपको एक दिलचस्प वाक़िया सुनाता हूँ।

    मैं और श्याम ताजी होटल में बियर पीने जा रहे थे कि रास्ते में मशहूर नग़्मा नवीस मधवक से मुलाक़ात हुई। वो हमें इरोस सिनेमा की बार में ले गए। वहां हम सब देर तक बियर नोशी में मशग़ूल रहे। मधवक टैक्सियों का बादशाह मशहूर है। बाहर एक ग्रांडील टैक्सी खड़ी थी। ये मधवक के पास तीन दिन से थी।

    जब हम फ़ारिग़ हुए तो उन्होंने पूछा कि “हमें कहाँ जाना है।” मधवक साहब को अपनी महबूबा निगार सुल्ताना के पास जाना था जिससे किसी ज़माने में श्याम का भी ताल्लुक़ था और कुलदीप कौर भी उस के आस-पास ही रहती थी। श्याम ने मुझसे कहा “चलो प्राण से मिलते हैं।”

    चुनांचे मधवक साहब की टैक्सी में बैठ कर हम वहां पहुंचे। वो तो अपनी निगार सुल्ताना के पास चले गए और हम दोनों कुलदीप कौर के हाँ। प्राण वहां बैठा था। एक मुख़्तसर-सा कमरा था। बैर पी हुई थी। ग़ुनूदगी हुई थी। इस को ज़ाइल करने के लिए श्याम ने सोचा कि ताश खेलनी चाहिए। कुलदीप फ़ौरन तैयार हो गई। प्राण ने कहा कि “फ्लश होगी।” हम मान गए।

    फ्लश शुरू हो गई। कुलदीप और प्राण एक साथ थे। प्राण ही पत्ते बाँटता था, वही उठाता था और कुलदीप उस के कांधे साथ अपनी नोकीली ठोढ़ी लगाए बैठी थी। अलबत्ता जितने रुपये प्राण जीतता था उठा कर अपने पास रख लेती।

    इस खेल में हम सिर्फ़ हारा किए। मैंने फ्लश कई मर्तबा खेली है लेकिन वो फ्लश कुछ अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्म की थी। मेरे पचहत्तर रुपये पंद्रह मिनट के अंदर अंदर कुलदीप कौर के पास थे। मेरी समझ में नहीं आता था कि आज पत्तों को क्या हो गया है कि ठिकाने के आते ही नहीं।

    श्याम ने जब ये रंग देखा तो मुझ से कहा। “मंटो अब बंद करो।” मैंने खेलना बंद कर दिया। प्राण मुस्कुराया और उसने कुलदीप कौर से कहा। “के के पैसे वापस कर दो मंटो साहब के।”

    मैंने कहा “ये ग़लत है। तुम लोगों ने जीते हैं। वापसी का सवाल ही कहाँ पैदा होता है।” इस पर प्राण ने मुझे बताया कि वो अव्वल दर्जे का नौसर बाज़ है। उसने जो कुछ मुझसे जीता है अपनी चाबुक-दस्ती की बदौलत मुझसे जीता है। चूँकि मैं उस का दोस्त हूँ इसलिए वो मुझसे धोका करना नहीं चाहता। पहले समझा कि वो इस हीले से मेरे रुपये वापस करना चाहता है लेकिन जब उसने ताश की गड्डी उठा कर तीन चार बार पत्ते तक़सीम किए और हर बार बड़े दाव जीतने वाले पत्ते अपने पास गिराए तो मैं उस के हथकंडे का क़ाइल हो गया। ये काम वाक़ई बड़ी चाबुकदस्ती का है। प्राण ने फिर कुलदीप कौर से कहा कि “वो रुपये वापस कर दे” मगर उसने इनकार कर दिया। श्याम कबाब हो गया। प्राण नाराज़ हो कर चला गया। ग़ालिबन उसे अपनी बीवी के साथ कहीं जाना था। श्याम और मैं वहीं बैठे रहे। थोड़ी देर श्याम उस से गुफ़्तगू करता रहा। फिर उसने कहा। “आओ चलो सैर करें।” कुलदीप राज़ी हो गई।

    टैक्सी मँगवाई। हम सब बाई खल्ला रवाना हुए। क्लेयर रोड पर मेरा फ़्लैट था। हम सीधे वहां पहुंचे, घर में उन दिनों कोई भी नहीं था। श्याम मेरे साथ रहता था। हम फ़्लैट में दाख़िल हुए तो श्याम ने कुलदीप से छेड़ख़ानी शुरू कर दी। कुलदीप बहुत जल्द तंग आने वाली औरत नहीं, वो किसी मर्द से घबराती भी नहीं। उस को ख़ुद पर पूरा पूरा एतिमाद है चुनांचे वो देर तक श्याम के साथ हंसती खेलती रही।

    हाँ मैं आपको ये बताना भूल गया कि जब हम क्लेयर रोड पर पहुंचे तो कुलदीप ने एक स्टोर के पास टैक्सी रोकने के लिए कहा कि वो सेंट की शीशी ख़रीदना चाहती है। श्याम सख़्त कबाब था कि वो उस रुपये से हर चीज़ ख़रीदेगी जो प्राण ने नौसर बाज़ी के ज़रिये मुझसे जीते थे। पर मैंने उस से कहा कि “कोई हर्ज नहीं, तुम इस बात का कुछ ख़याल करो, हटाओ इस क़िस्से को।” कुलदीप के साथ में स्टोर गया, उसने पारए का सेंट पसंद किया। उस की क़ीमत बाईस रुपये आठ आने थी। कुलदीप ने ख़ूबसूरत शीशी अपने पर्स में रखी और मुझसे कहा। “मंटो साहब! क़ीमत अदा कर दीजिए।”

    मैं उस सेंट के दाम हरगिज़ अदा नहीं करना चाहता था मगर दुकानदार मेरा वाक़िफ़ था और फिर एक औरत ने इस अंदाज़ में मुझसे क़ीमत अदा करने को कहा था कि इनकार करना मर्दाना वक़ार की तज़लील का बाइस होता। चुनांचे मैंने जेब से रुपये निकाले और अदा कर दिए। फ़्लैट में जब श्याम को मालूम हुआ कि सेंट मैंने ख़रीद कर दिया है तो वो आग बगूला हो गया। उसने मुझे और कुलदीप कौर को पेट भर कर गालियां दीं लेकिन बाद में नर्म हो गया। उस का अस्ल मक़सद ये था कि कुलदीप किसी किसी तरह राम हो जाये। मैंने भी कोशिश की और कुलदीप मान गई। मैंने श्याम और उस से कहा कि “मैं जाता हूँ, तुम दोनों आपस में समझौता कर लो।” मगर उसने कहा कि “नहीं ये समझौता उस के होटल में होगा।” टैक्सी नीचे खड़ी थी। दोनों उस में चले गए।

    मैं ख़ुश था कि चलो ये क़िस्सा तै हुआ।

    मगर पौन घंटे बाद ही श्याम लौट आया। सख़्त ग़ुस्से में भरा हुआ था। मैंने उसे ब्रांडी का गिलास पेश किया तो मैंने देखा कि उस का हाथ ज़ख़्मी है। ख़ून बह रहा है, मैंने बड़ी तश्वीश के साथ पूछा। वो कबाब था, लेकिन ब्रांडी ने उस के मूड को किसी क़दर दरुस्त कर दिया। उसने बताया कि “जब वो के के, के साथ उस के होटल में पहुंचा और वो टैक्सी से बाहर निकले तो वो (कुलदीप कौर गाली देकर) मुनकिर हो गई। मुझे सख़्त ग़ुस्सा आया। हम दोनों एक पथरीली दीवार के पास खड़े थे। मैंने उस से कहा कि तुम लाहौर में मुझ पर मरती थी। अब ये क्या नख़रा है। उसने जवाब में कुछ ऐसी बात कही कि मेरे तन-बदन में आग लग गई। मैंने तान कर घूंसा मारा लेकिन वो... एक तरफ़ हट गई और मेरा घूंसा दीवार के साथ जा टकराया। वो हंसती, क़हक़हे लगाती ऊपर होटल में चली गई और मैं खड़ा अपना ज़ख़्मी हाथ देखता रहा।”

    कुलदीप कौर अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सियत की मालिक है जिस तरह उस की नाक तीखी है, उसी तरह उस का किरदार तीखा और नुकीला है।

    पिछले दिनों ये ख़बर आई कि उस पर हिंदुस्तान में पाकिस्तान की जासूसी का इल्ज़ाम लगाया गया है। मालूम नहीं इस में कहाँ तक सदाक़त है लेकिन मैं वुसूक़ से इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि उस जैसी औरत माता हरी कभी नहीं बन सकती जिसका ज़ाहिर बातिन एक हो।

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