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मंटो

MORE BYशाहिद अहमद देहलवी

    दुबला डील, सूखे सूखे हाथ पांव, म्याना क़द, चम्पई रंग, बेक़रार आँखों पर सुनहरे फ्रे़म की ऐनक, क्रीम कलर का सूट, सुर्ख़ चहचहाती टाई, एक धान पान सा नौजवान मुझसे मिलने आया।

    ये कोई चौबीस-पच्चीस साल उधर का ज़िक्र है। बड़ा बेतकल्लुफ़, तेज़-तर्रार, चर्ब ज़बान। बोला, “मैं मंटो हूँ सआदत हसन। आपने “हुमायूँ” का रूसी अदब नंबर देखा होगा। अब मैं “साक़ी” का फ़्रांसीसी अदब नंबर निकालना चाहता हूँ।”

    पहली ही मुलाक़ात में उसकी ये ज़रूरत से बढ़ी हुई बेतकल्लुफ़ी तबीयत को कुछ नागवार गुज़री। मैंने उसका पानी उतारने के लिए पूछा, “आपको फ़्रांसीसी आती है?”

    बोला, “नहीं!”

    मैंने कहा, “तो फिर आप क्या कर सकेंगे।”

    मंटो ने कहा, “अंग्रेज़ी से तर्जुमा करके में आपका ये ख़ास नंबर एडिट करूँगा।”

    मैंने कहा, “अपना पर्चा तो मैं ख़ुद ही एडिट करता हूँ। फिर “साक़ी” के चार ख़ास नंबर मुक़र्रर हैं। उनके अलावा और कोई नंबर फ़िलहाल शाए नहीं हो सकता।”

    मंटो ने दाल गलती देखी तो फ़ौरन उस मौज़ू ही को टाल गया और रुख़्सत होने से पहले मुझ पर वाज़ेह कर गया कि अगर किसी मज़्मून की ज़रूरत हो तो मुआवज़ा भेज कर उससे मंगाया जा सकता है।

    उस ज़माने में मंटो तर्जुमे ही किया करता था। उसकी किताब “सरगुज़िश्त-ए-असीर” छप कर आई थी। मंटो से कभी कभी ख़त-ओ-किताबत होती रही और उसके चंद मज़ामीन “साक़ी” में छपे भी। मगर क़ल्बी ताल्लुक़ात उससे क़ाएम हो सके। मुझे यही गुमान रहा कि ये शख़्स बहुत बहका हुआ है। शेख़ी खोर और छिछोरा सा आदमी है। उसमें “मैं” समा गई है। ज़माने की छुरी तले आएगा तो सब ठीक हो जाएगा।

    मालूम हुआ कि बड़ा कट्टर कम्युनिस्ट है और मुस्लिम यूनीवर्सिटी से उसे ये कह कर निकाल दिया गया है कि उसको दिक़ है। अलीगढ़ से निकाले जाने के बाद वो अपने घर अमृतसर चला गया। घरवाले भी उसके बाग़ियाना ख़यालात से नालां थे। इसलिए उनसे भी बिगाड़ हो गया था। अमृतसर में अपने चंद हम-ख़याल दोस्तों के साथ उसने अपनी सरगर्मीयां जारी रखीं। उनके लीडर कंपनी की हुकूमत वाले बारी (अलीग) थे। मगर ये सब लोग तो कुछ दबे दबे से रहे। इसलिए हुकूमत की क़ैद-ओ-बंद से बचे रहे। फिर बारी रंगून चले गए और मंटो बंबई जाकर अख़बार “मुसव्विर” में नौकर हो गया।

    कई साल गुज़र गए। मंटो से एक-आध मुलाक़ात और हुई। मगर दिल की जवारी उनसे अब भी खुली। जैसा और बहुत से मज़्मून निगारों से ताल्लुक़ था उनसे भी रहा, यहाँ तक कि पिछली बड़ी जंग के ज़माने में वो दिल्ली रेडियो में आगए और अब जो उन से पहली मुलाक़ात हुई तो उन्होंने छूटते ही कहा, “अब मैं आपसे मुआवज़ा नहीं लूँगा।”

    मैंने पूछा, “क्यों?”

    बोले, “मुआवज़ा मैं इसलिए लेता था कि मुझे पैसों की ज़रूरत रहती थी।”

    दिल्ली रेडियो स्टेशन पर जंग के ज़माने में अदीबों और शायरों का बड़ा अच्छा जमघटा हो गया था। अहमद शाह बुख़ारी (पतरस) कंट्रोलर थे, ख़बरों के शोबे में चराग़ हसन हसरत और डाक्टर अख़्तर हुसैन रायपुरी, प्रोग्राम के शोबे में नून-मीम-राशिद। अंसार नासरी, महमूद निज़ामी और कृश्न चंदर। हिन्दी के मुसव्वदा नवीस उपेन्द्रनाथ अश्क और उर्दू के मंटो और मीरा जी थे। उस ज़माने में मंटो को बहुत क़रीब से देखने का मुझे मौक़ा मिला।

    मंटो ने कुछ रुपये जमा करके दो टाइपराइटर ख़रीद लिये, एक अंग्रेज़ी का और एक उर्दू का। उर्दू का टाइपराइटर वो अपने साथ रेडियो स्टेशन रोज़ाना लाते थे। मंटो के ज़िम्मे जितना काम था उससे वो कहीं ज़्यादा करने के ख़्वाहिशमंद रहते थे। रोज़ाना दो-तीन ड्रामे और फ़ीचर लिख देते। लिखना तो उन्होंने बिल्कुल छोड़ ही दिया था। काग़ज़ टाइपराइटर पर चढ़ाया और खटाखट टाइप करते चले जाते। फ़ीचर लिखना उस ज़माने में बड़ा कमाल समझा जाता था, मगर मंटो के लिए ये बाएं हाथ का खेल था।

    ज़रा सी देर में फ़ीचर टाइप करके बड़ी हक़ारत से फेंक दिया जाता कि...

    लो, ये रहा तुम्हारा फ़ीचर!

    मंटो की इस तेज़ रफ़्तारी पर सब हैरान होते थे। चीज़ भी ऐसी जची तुली होती कि कहीं उंगली धरने की उसमें गुंजाइश होती।

    दिल्ली आने के बाद मंटो की अफ़साना निगारी का दौर-ए-जदीद शुरू हुआ। उन्होंने तबाज़ाद अफ़साने एक अछूते अंदाज़ में लिखने शुरू किये। साक़ी के लिए हर महीने एक अफ़साना बग़ैर मांगे मिल जाता। “धुआँ” उस रेले में लिखा गया और उसकी इशाअत पर दिल्ली के प्रेस एडवाइज़र ने मुझे अपने दफ़्तर बुलवाया। वो पढ़ा लिखा और भला आदमी था। अंग्रेज़ी अदबीयात में मेरा हमजमाअत भी रह चुका था। बोला, भाई, ज़रा एहतियात रखो। ज़माना बुरा है। बात आई गई हुई। मैंने मंटो से इसका ज़िक्र किया। हस्ब-ए-आदत बहुत बिगड़ा मगर “साक़ी” के बाब में कुछ एहतियात बरतने लगा।

    लेकिन ये नासूर दिल्ली में बंद हुआ तो लाहौर में फूटा और “बू” पर हकूमत-ए-पंजाब ने मंटो को धर लिया। सफ़ाई के गवाहों में मंटो ने मुझे भी दिल्ली से बुलवा लिया था। अदालत-ए-मातहत तो क़ाइल हो सकी। लेकिन अपील में ग़ालिबन मंटो बरी हो गए थे। उसके बाद रहा- सहा ख़ौफ़ भी मंटो के दिल से निकल गया और उन्होंने धड़ल्ले से “फ़ुहश” मज़ामीन लिखने शुरू कर दिए। हुकूमत-ए-पंजाब के प्रेस एडवाइज़र चौधरी मुहम्मद हुसैन एक अजीब-ओ-ग़रीब बुज़ुर्ग थे। थे तो अल्लामा इक़बाल के हाशिया नशीनों में से। मगर उन्हें ये ज़ो'म था कि इक़बाल को इक़बाल मैंने बनाया है। ये साहब हाथ धो कर मंटो के पीछे पड़ गए और यके बाद दीगरे उन्होंने मंटो पर कई मुक़द्दमात क़ायम करा दिए। फिर उनका नश्शा-ए-इक़्तिदार इतना बढ़ गया कि उन्होंने मज़्मून निगारों के साथ नाशिरों और कुतुब फ़रोशों को भी लपेटना शुरू कर दिया। मुक़द्दमात के सिलसिले में मंटो को बंबई से लाहौर आना पड़ता था। उधर हम भी दिल्ली से मुल्ज़िमों की बरात लेकर पहुंचे थे। चंद रोज़ लाहौर के अदबी हलक़ों में ख़ासी चहल पहल रहती। शायद एक-आध ही अफ़साने में जुर्माना क़ाएम रहा, वरना अपील में सब बरी होते रहे और चौधरी साहब किलसते रहे। मंटो ने अपने मुक़द्दमात की रूदाद किसी किताब के दीबाचे में लिखी है और उस किताब को चौधरी साहब के नाम से मा’नून किया है।

    मंटो की बातें बड़ी दिलचस्प होती थीं। उन्हें हमेशा ये एहसास रहता था कि मैं ही सबसे अच्छा लिखने वाला हूँ, इसलिए वो अपने आगे किसी को गरदानते थे। ज़रा किसी ने दून की ली और मंटो ने अड़ंगा लगाया। ख़राबी-ए-सेहत की वजह से मंटो की तबीयत कुछ चिड़ चिड़ी हो गई थी। मिज़ाज में सहार बिल्कुल नहीं रही थी। बात बात पर अड़ने और लड़ने लगते थे। जो लोग उनके मिज़ाज को समझ गए थे वो उनसे बात करने में एहतियात बरता करते थे। उनका मर्ज़ बक़ौल उनके किसी डाक्टर से तशख़ीस हो सका। कोई कहता दिक़ है। कोई कहता मेदे की ख़राबी है, कोई कहता जिगर का फे़'ल कम हो गया है और एक सितम ज़रीफ़ ने कहा कि तुम्हारा पेट छोटा है और अंतड़ियां बड़ी हैं। मगर मंटो इन सब बीमारियों से बेपर्वा हो कर सारी बद परहेज़ियाँ करता रहा।

    मंटो की ज़बान पर “फ्रॉड” का लफ़्ज़ बहुत चढ़ा हुआ था। मीरा जी के हाथ में दो लोहे के गोले रहते थे, मैंने उनसे पूछा, इनका मसरफ़ क्या है? मंटो ने कहा, “फ्रॉड” है। मीरा जी ने सेवईयों के मुज़ाअफ़र में सालन डाल कर खाना शुरू कर दिया। मैंने कहा, ये आप क्या कर रहे हैं? मंटो ने कहा “फ्रॉड।” उपेन्द्र नाथ अश्क ने कोई चीज़ लिखी, मंटो ने कहा “फ्रॉड” है। उसने कुछ चीं चीं की तो कहा, “तू ख़ुद एक फ्रॉड है।”

    यादश बख़ैर! एक साहब थे देवेन्द्र सत्यार्थी। थे क्या, अब भी हैं और उर्दू और हिन्दी के बहुत बड़े अदीब हैं। लोक गीतों पर अंग्रेज़ी में भी एक किताब छपवा चुके हैं। उसी ज़माने में वो दिल्ली आए तो उन्हें भी अफ़साना निगारी का शौक़ चर्राया। ख़ासे जहाँदीदा आदमी थे मगर बातें बड़ी भोली-भोली करते थे, भारी भरकम। क़द्द आवर आदमी, चेहरे पर बहुत ज़बरदस्त दाढ़ी। दरअसल उन्होंने अपनी वज़ा क़ता टैगोर से मिलाने की कोशिश की थी। टैगोर के साथ उन्होंने एक तस्वीर भी खिंचवाई थी जिसके नीचे लिखा हुआ था “गुरु और चेला।” एक तरफ़ सफ़ेद बगुला उस्ताद और दूसरी तरफ़ काला भुजंग शागिर्द।

    हाँ तो सत्यार्थी साहब ने अफ़साने लिखने और सुनाने शुरू किए। इब्तिदा में तो सबने लिहाज़ मुरव्वत में चंद अफ़साने सुने फिर कन्नी काटने लगे, फिर उन्हें दूर ही से देखकर भागने लगे। मगर मंटो भागने वाले आदमी नहीं थे। मंटो ने एक-आध अफ़साना तो सुना। उसके बाद सत्यार्थी साहब को गालियों पर धर लिया। मंटो ने बरमला कहना शुरू कर दिया, “तू बहुत बड़ा फ्रॉड है। तेरी डाढ़ी डाढ़ी नहीं है, प्रोपेगंडा है। तू अफ़साने हमसे ठीक कराता है और जाकर अपने नाम से छपवा लेता है।”और उसके बाद मुग़ल्लिज़ात सुनाना शुरू कर दीं। मगर साहब, मजाल है कि सत्यार्थी की तेवरी पर बल भी आया हो! उसी तरह मुस्कुराते और भोली-भाली बातें करते रहे। मैं कहता था कि उस शख़्स में वलियों की सी सिफ़ात हैं।

    मंटो कहता था, “ये रास्पोटीन है, इब्लीस है।”

    दरअसल मंटो को बनावट से चिड़ थी। ख़ुद मंटो का ज़ाहिर-ओ-बातिन एक था। इसलिए लगी-लिपटी रखता था। जो कुछ कहना होता साफ़ कह देता, बल्कि मंटो बदतमिज़ी की हद तक मुँहफट था।

    एक दफ़ा अहमद शाह बुख़ारी ने बड़े सरपरस्ताना अंदाज़ में कहा, “देखो मंटो, मैं तुम्हें अपने बेटे के बराबर समझता हूँ।”

    मंटो ने झल्लाकर कहा, “मैं आपको अपना बाप नहीं समझता।”

    मज़ा तो उस वक़्त आया जब चराग़ हसन हसरत से मंटो की टक्कर हुई। वाक़िआ दिल्ली रेडियो का है जहाँ इत्तिफ़ाक़ से सभी मौजूद थे और चाय का दौर चल रहा था। हसरत अपनी इल्मियत का रोब सब पर गांठते थे। ज़िक्र था सोमरसट माहम का जो मंटो का महबूब अफ़साना निगार था और मौलाना झट बात काट कर अपनी अरबी-फ़ारसी को बीच में ले आए और लगे अपने चिड़ावने अंदाज़ में कहने, “मक़ामात-ए-हरीरी में लिखा... आपने तो क्या पढ़ी होगी, अरबी में है यह किताब। “दीवान-ए-हमासा” अगर आपने पढ़ा होता... मगर अरबी आपको कहाँ आती है।” और हसरत ने ताबड़तोड़ कई अरबी-फ़ारसी किताबों के नाम गिनवा दिए।

    मंटो ख़ामोश बैठा पेच-ओ-ताब खाता रहा। बोला तो सिर्फ़ इतना बोला, “मौलाना हमने अरबी-फ़ारसी इतनी नहीं पढ़ी तो क्या है? हमने और बहुत कुछ पढ़ा है।”

    बात शायद कुछ बढ़ जाती मगर कृश्न चंदर वग़ैरा ने बीच में पड़ कर मौज़ू ही बदल दिया। अगले दिन जब फिर सब जमा हुए तो हसरत के आते ही भूंचाल सा आगया। मंटो का जवाबी हमला शुरू हो गया, “क्यों मौलाना, आपने फ़ुलां किताब पढ़ी है? मगर आपने क्या पढ़ी होगी, वो तो अंग्रेज़ी में है। और फ़ुलां किताब? शायद आपने इस जदीद तरीन मुसन्निफ़ का नाम भी नहीं सुना होगा।” और मंटो ने जितने नाम किताबों के लिये उनमें शायद ही कोई ऐसी किताब हो जिसका नाम मशहूर हो। मंटो ने कोई पच्चास नाम एक ही सांस में गिनवा दिए और मौलाना से कहलवा लिया कि उनमें से एक भी किताब नहीं पढ़ी। हम चश्मों और हम नशीनों में यूं सुबकी होते देखकर मौलाना को पसीने आगए।

    मंटो ने कहा, “मौलाना अगर आपने अरबी-फ़ारसी पढ़ी है तो हमने अंग्रेज़ी पढ़ी है। आप में कोई सुरख़ाब का पर लगा हुआ नहीं है। आइन्दा हम पर रोब जमाने की कोशिश कीजिए।”

    मौलाना के जाने के बाद किसी ने पूछा, “यार तू ने ये इतने सारे नाम कहाँ से याद कर लिये?”

    मंटो ने मुस्कुराकर कहा, “कल शाम यहाँ से उठकर सीधा अंग्रेज़ी कुतुबफ़रोश जेना के हाँ गया था। जदीद तरीन मतबूआत की फ़ेहरिस्त उससे लेकर मैंने रट डाली।”

    हसरत ने कहा, “नहीं तुम माहम हो।”

    मंटो ने कहा, “तुम इब्न-ए-ख़ुलदून हो।”

    और दोनों एक दूसरे के गले लग गए।

    मंटो बड़ा ज़हीन आदमी था। अगर ज़रा कोई अपनी हद से बढ़ता तो वो समझता कि ये शख़्स मेरी तौहीन कर रहा है, मुझे अहमक़ समझ रहा है। दिल में बात रखने का वो क़ाइल नहीं था। इस काम के लिए उपेन्द्र नाथ अश्क बना था। बड़ी गट्ठल तबीयत का आदमी था। मंटो महीने में तीस-चालीस ड्रामे और फ़ीचर लिख देता था, और अश्क सिर्फ़ दो ड्रामे लिखता था, और वो भी रो रोकर। फिर बड़ी ढिटाई से कहता फिरता था कि जितनी तनख़्वाह मुझे मिलती है उससे ज़्यादा के ये दो ड्रामे मैंने लिखे हैं। मंटो उसकी बड़ी दुरगत बनाता था। सब के सामने उसे “फ्रॉड” और हरामज़ादा तक कह देता था। अश्क उस वक़्त तो रुंखा होजाता लेकिन मंटो की बातें दिल में रखता गया, और बाद में बंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में मंटो की जड़ काटता फिरा।

    शेख़ी की बातें मंटो को सख़्त नापसंद थीं। और शेख़ी किरकरी करने में उसे लुत्फ़ आता था। नून-मीम-राशिद से मैंने कहा, “ये आपकी छोटी बड़ी शायरी हमें तो अच्छी नहीं लगती। आख़िर इसमें क्या बात है?”

    राशिद ने RHYME और RYTHYM पर एक मुख़्तसर लेक्चर झाड़ने के बाद अपनी नज़्म “ऐ मेरी हम रक़्स मुझको थाम ले” मुझे सुनानी शुरू की और कहा, “देखिए! मैंने इस नज़्म में डांस का रुम रखा है।”

    मैं बड़ी सआदत मंदी से सुनता रहा मगर मंटो भला कब ताब ला सकते थे। चटख़ कर बोले, “कौन सा डांस? वाल्ज़, रम्बा, संबा, कथाकली, कत्थक, मनीपुरी? फ्रॉड कहीं का।”

    बिचारे राशिद खिसियानी हंसी हंसकर रह गए।

    मंटो के दिमाग़ में नई से नई बात आती थी। ऐसी उपज किसी और में देखी ही नहीं। एक मेम साहिब की हसीन टांगों को देखकर कहने लगे, “अगर मुझे ऐसी चार टाँगें मिल जाएं तो उन्हें कटवाकर अपने पलंग के पाए बनवा लूं।”

    रेडियो स्टेशन पर मंटो एक दिन बड़े बेज़ार बठे थे। मैं ने कहा, “खैरियत तो है?” बोले, “सख़्त बदतमीज़ और जाहिल हैं यहाँ के लोग। फ़ेस फ़ोन receive करके कहता हूँ “मंटो” तो उधर से वो हैरान हो कर पूछता है “वन टू?” मैं कहता हूँ “वन टू” नहीं, “मंटो” तो वो कहता है भनटो?”

    मंटो को अपनी ज़बानदानी पर बड़ा नाज़ था, और वाक़ई में मंटो बहुत सही और उम्दा ज़बान लिखते थे। उन्होंने अपनी किसी अफ़साने में एक औरत का हुलिया लिखने के सिलसिले में ये भी लिखा था कि बच्चा होने के बाद उसके पेट पर शिकनें पड़ गई थीं। मैंने शिकनें बदल कर चुरसें कर दिया। जब अफ़साना “साक़ी” में छप कर आया तो मंटो उस लफ़्ज़ पर उछल पड़े। बोले, “मैंने जिस वक़्त शिकनें लिखा तो मैं सोच रहा था कि ये लफ़्ज़ ठीक नहीं है। मगर मेरी समझ में और कोई लफ़्ज़ नहीं आया। असल लफ़्ज़ यही है जो मैं लिखना चाहता था। उसके बाद खुले दिल से उन्होंने सबके सामने कहा कि मैं सिर्फ़ दो एडिटरों की इस्लाह क़बूल करता हूँ, एक आप और दूसरे हामिद अली ख़ां। आप दोनों के अलावा किसी और को मेरा एक लफ़्ज़ भी बदलने की इजाज़त नहीं है।”

    मंटो बज़ाहिर बड़ा अख्खड़, और बदतमीज़ आदमी नज़र आता था मगर दरअसल उसके पहलू में एक बड़ा हस्सास दिल था। दुनिया ने उसे बड़े दुख पहुंचाए थे। अमीर घराने का लाडला बच्चा था। बिगड़ गया और ख़ूब पटम भर के बिगड़ा। दोस्त अहबाब, कुम्बादार, रिश्तेदार, सबसे उसे तकलीफ़ पहुंची थी। इसलिए उसमें नफ़रत का जज़्बा बहुत बढ़ गया था, मगर उसकी इंसानियत मरते दम तक क़ाएम रही, मंटो का गुल गोथना सा बच्चा अच्छा-ख़ासा खेलता खालता ज़रा सी बीमारी में चट-पट हो गया। मुझे मालूम हुआ तो मैं भी उसके घर पहुंचा, एहतियातन सौ रुपये साथ लेता गया कि शायद मंटो को रुपये की ज़रूरत हो। सफ़िया का रोते-रोते बुरा हाल हो गया था। मौता का घर था। इसलिए मेरी बीवी खाना लेकर पहुँचीं, उन्होंने सफ़िया को सँभाला। मंटो की आँखों में पहली और आख़िरी बार मैंने आंसू देखे। बच्चा दफ़नाया जा चुका था। मैंने मंटो को रस्मी दिलासा दिया और चुपके से रुपये उनकी तरफ़ बढ़ा दिए। मंटो ने रुपये नहीं लिये। मगर थोड़ी देर के लिए वो अपना ग़म भूल गया और हैरत से मेरा मुँह तकता रहा। बाद में इस वाक़िए का तज़्किरा उसने अक्सर अहबाब से किया, और मुतअज्जब होता रहा कि बे मांगे कोई रुपये किसी को कैसे दे सकता है।

    मंटो को शराब पीने की लत ख़ुदा जाने कब से थी। जब तक वो दिल्ली रहे उनकी शराब बढ़ने नहीं पाई थी। बंबई जाने के बाद उन्होंने पैसा भी ख़ूब कमाया और शराब भी ख़ूब पी। जब पाकिस्तान बना तो वो लाहौर आगए। यहाँ फिल्मों का काम नहीं था, इसलिए उन्हें क़लम का सहारा लेना पड़ा। हमारे अदबी जरीदों की बंजर ज़मीन से रोज़ी पैदा करना मंटो ही का काम था। सेहत पहले ही कौन सी अच्छी थी। रही सही शराब ने ग़ारत कर दी। कई दफ़ा मरते-मरते बचे। रोटी मिले या मिले बीस रुपये रोज़ इन्हें शराब के लिए मिलने चाहिऐं। उसके लिए उन्होंने अच्छा बुरा सब कुछ लिख डाला। रोज़ाना दो एक अफ़साने लिखना उनका मामूल हो गया था। उन्हें लेकर वो किसी नाशिर के पास पहुँच जाते। नाशिरों ने पहले ज़रूरत से उन्हें ख़रीदा। फिर बेज़रूरत। फिर कतराने और मुँह छुपाने लगे। दूर से देखते कि मंटो आरहा है तो दुकान से टल जाते। मंटो की अब बिल्कुल वही हालत हो गई थी जो आख़िर आख़िर में अख़्तर शीरानी, और मीरा जी की। बेतकल्लुफ़ लोगों की जेब में हाथ डाल देते और जो कुछ जेब में होता निकाल लेते। उसमें से घर कुछ नहीं पहुँचता था। शराब से बचाने की बहुत कोशिश की गई। ख़ुद मंटो ने उससे बचने के लिए अपने आपको पागलखाने में दाख़िल करा लिया। मुँह से ये काफ़िर लगी छूट भी गई थी मगर अल्लाह भला करे दोस्तों का, एक दिन फिर पिला लाए। नतीजा ये कि रात को ख़ून की क़ै हुई। अस्पताल पहुँचाया गया। महीनों पड़े रहे और जीने का एक मौक़ा और मिल गया।

    अगस्त 1954 में कई साल बाद लाहौर गया था। लाहौर के अदीब, शायर, एडिटर और पब्लिशर एक बड़ी पार्टी में जमा थे कि ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर मंटो भी वहाँ आगए और सीधे मेरे पास चले आए। उनकी हालत ग़ैर थी। मैंने कहा, “आप तो बहुत बीमार हैं। आप क्यों आए? मैं यहाँ से उठकर ख़ुद आपके पास आने वाला था।”

    इतने में एक शामत का मारा पब्लिशर इधर निकला। मंटो ने आवाज़ दी, “ओए इधर आ।” वो रुकता झिजकता आगया। “क्या है तेरी जेब में? निकाल।” उसने जेब में से पांच रुपये निकाल कर पेश किए। मगर मंटो पांच रुपये कब क़बूल करने वाले थे। “हरामज़ादे दस रुपये तो दे।” ये कह कर उसकी अंदर की जेब में हाथ डाल दिया और दस रुपये का नोट निकाल कर फिर मुझसे बातें करने लगे। गोया कुछ हुआ ही नहीं। पब्लिशर ने भी सोचा कि चलो सस्ते छूटे, वहाँ से रफूचक्कर हो गया। मंटो पन्द्रह बीस मिनट तक बैठे बातें करते रहे मगर उनकी बेचैनी बढ़ गई और उज़्र करके रुख़्सत हो गए। मुझसे हमेशा के लिए रुख़्सत हो गए।

    पांच महीने बाद अख़बारों से मालूम हुआ कि मंटो इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। उन्होंने फिर चुपके से शराब पी ली थी, ख़ून डालते डालते मर गए। हमें तो मंटो की अज़मत का एतिराफ़ है ही, ख़ुद को भी एहसास था, चुनांचे जो कत्बा उन्होंने अपनी लौह-ए-मज़ार के लिए ख़ुद लिखा था उसमें इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया।

    “यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़न है। उसके सीने में फ़न-ए-अफ़साना निगारी के सारे इसरार-ओ-रुमूज़ दफ़न हैं। वो अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वो बड़ा अफ़साना निगार है या ख़ुदा?”

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