मीर बाक़र अली
ग़दर के बाद से दिल्ली पर कुछ ऐसी साढ़ सती आई कि अव्वल तो पुराने घरों का नाम-ओ-निशान ही मिट गया। न मकान रहे न मकीं। सारा शहर ही बारह बाट हो गया। और जिनकी नाल नहीं उखड़ी वो पेट की ख़ातिर तितर बितर हुए। रोटी की तलाश में जिसको देखो ख़ाना बदोश। बारह बरस हुए मुलाज़मत के सिलसिले में देस निकाला जो मिला तो दिल्ली की सूरत देखनी नसीब नहीं हुई। वो तो ख़ुदा भला करे बादशाह सलामत का, न वो दिल्ली में दरबार करते न मेरा यहाँ आना होता। तक़दीर में एक मर्तबा फिर दिल्ली देखनी थी आगया वरना यूँही रोज़ी की अलसेट में तरसता हुआ मरजाता।
रात के वक़्त रेल से उतरा। बीवी बच्चे साथ थे। मगर आया तो अजीब नक़्शा। अस्बाब कोठरियों में बंद, उजड़ा हुआ समां। सफ़र की थकन थी। यूँही ज़मीन पर बिछौने कर सो गए। सुबह से दुरुस्ती शुरू की, दो रोज़ इसी टेटक मंजा में लग गए। घर से बाहर तक न निकल सका। वतन मकान की चारदीवारी का तो नाम नहीं। तीसरे दिन बाहर निकल कर सोच रहा था कि पहले कहाँ चलना चाहिए। राहगीर आ जा रहे थे। सब शक्लें अजनबी। बीसियों बूढ़े जवान गुज़र गए। न मैंने किसी को पहचाना न मुझे किसी ने जाना। इतने में एक साहब मुनहनी से जैसे सफ़ेद अमचूर की फांक, नीची नज़रें किए सामने से चले। उनकी सूरत कुछ जानी-पहचानी सी दिखाई दी। उनकी नज़र जो मुझ पर पड़ी, ठिटके और बोले, “आपका इस्म मुबारक?” मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। दरबार के सबब, सी आई डी का बड़ा ज़ोर था। गुमान हुआ कि कोई खु़फ़िया पुलिस वाला है, कौन जवाब देकर उलझन में पड़े। एक मिनट इंतज़ार करके उन्होंने फिर मुझे मुख़ातिब किया, “जनाब मैं आपसे अर्ज़ कर रहा हूँ।”
मैं: (ज़रा तेवरी चढ़ा कर) जनाब को मेरे नाम से मतलब?
वह: बस जनाब, जो मैं मालूम करना चाहता था मालूम हो गया।
मैं: क्या?
वह: आपको दिल्ली शरीफ़ से कोई निस्बत नहीं।
मैं: फिर आपने कहाँ का रहने वाला समझा?
वह: कम अज़ कम जमुना पार का।
मैं: (किसी क़दर भन्ना कर) चलिए अपना काम कीजिए।
वह: हज़्ज़त ये ज़माना बेकारी का है काम कहाँ?
मैं याद कर रहा था कि ये आवाज़ और ये बोल-चाल तो सुनी है, कहाँ सुनी है। कब सुनी है? समझ में नहीं आया। सूरत हाफ़िज़े में आती और निकल जाती। उन्होंने मुझे ख़ामोश देखकर फ़रमाया, “आपने ये मकान किराए पर लिया है?”
मैं: बंदा-ए-ख़ुदा तुम तो सरेश बन गए। जान न पहचान बड़ी ख़ाला सलाम।
वह: भई दिल्ली की बोली तो ख़ासी बोलते हो। बीवी का सदक़ा है शायद।
मुझे इस फ़िक़रे पर कुछ हंसी सी आई और मैंने कहा, “जनाब आख़िर आप मुझसे क्या चाहते हैं?”
उनकी दाहिनी बग़ल में एक ख़ासी बड़ी पोटली सी थी जिसे एक एक दो दो मिनट के बाद सहारते सँभालते जाते थे और बाएं हाथ में एक बस्ता सा इस तरह छाती से लगा हुआ जैसे बड़ी जमातों के तालिब इल्मों का क़ायदा है। दरवाज़े की चौकी पर अपना पोटला रखे हुए बोले, “जनाब इजाज़त है?” मैंने अर्ज़ किया, “शायद आपके हाँ कार बरारी के बाद इजाज़त तलबी का दस्तूर है?” ख़ुदा जाने उन्हों मेरा ये फ़िक़रा सुना या नहीं वो अपना बस्ता खोलने में मसरूफ़ थे। बस्ते में छोटी छोटी किताबें थीं। किताबें क्या दो-दो तीन-तीन जुज़ु के रिसाले (एक किताब मेरे आगे करके) “हज़्ज़त दिल्ली काना बाती भी सुनी है” मुलाहिज़ा हो। पुरानी कहानियां हैं। ये देखिए पाजी पड़ोस, ख़लील ख़ां और फ़ाख़्ता, पढ़िए और हंसिए, बादशाह का मौला बख़्श हाथी, क़िले की आबादी के ज़माने का एक क़िस्सा है। सियासी रंग मिज़ाज पर ग़ालिब हो तो गाढे ख़ां का दुखड़ा और मलमल जान की औंवटें लीजिए। क़ीमत कुछ ज़्यादा नहीं सवा रुपये में पूरा सेट।”
किताबों के अजीब नाम सुनकर मैंने किताबें हाथ में लीं। एक किताब के टाइटल पर नज़र पड़ी तो मुसन्निफ़ा मीर बाक़र अली दास्तानगो। फ़ौरन मीर साहब की तस्वीर आँखों के सामने आगई। अब जो हुलिया मिलाता हूँ तो ख़ुद बदौलत हैं। वही वज़ा वही क़ता, वही लट्ठे की गोल ख़ाना साज़ टोपी, कानों से रूमाल लिपटा हुआ। वही चौड़ी आस्तीनों का कुर्ता, वही छींट की अध सेरी नीमा आस्तीन, वही सवा इंची चुग्गी दाढ़ी, वही पोस्तियों की सी आँखें, वही मल गजा मल गजा चेहरे का रंग। मीर आँखों का क़सूर रहा वरना उनकी शबाहत में फ़र्क़ न था। हाँ किसी क़दर झुरिया गए थे।
मीर साहब को पहचानने के बाद मुझे कहाँ ताब थी, लिपट गया। “हाएं मीर साहब आप हैं? वल्लाह ग़ज़ब किया। आख़िर ये कौन सी अय्यारी थी। क्या सचमुच आपने भी मुझे नहीं पहचाना था।”
मीर साहब: न पहचानने के क्या मअनी? मैं जब इधर से गुज़रता था। आँखें आपको ढूंढती थीं। मियां कब आए?
मैं: ओफ्फ़ोह, कितने अर्से बाद मिलना हुआ है। गुज़श्ता इतवार की रात को आया हूँ। आपने किस से सुन लिया। मैं तो अभी कहीं गया भी नहीं।
मीर साहब: मेरे दिल को ख़बर हो गई थी।
मैं: और आपने मुझे पहचान लिया? मुझमें तो ज़मीन आसमान का फ़र्क़ हो गया है।
मीर साहब: मियां हम लोग नई रोशनी के नहीं कि ज़ाहिर में उजाला और दिल में अँधेरा। जो आँखों में बस गया। बस गया,
ब-हर रंग कि ख़्वाही जामा मी-पोश
मन अंदाज़-ए-क़दत रा मी-शनासम
मैं: क्या कहूं आपको देखकर किस क़दर ख़ुशी हुई है।
मीर साहब: तुम्हारी सआदत मंदी है, वरना मन आनम कि मन दानम। अच्छा आदाब अर्ज़ करता हूँ। इंशा अल्लाह फिर किसी वक़्त मुलाक़ात होगी।
मैं: मगर ये तो फ़रमाइए कि ये किताबें आपने कब लिखीं और कब छपवाईं?
मीर साहब: पढ़ोगे तो मालूम हो जाएगा।
मैं: और इस पोटली में क्या है?
मीर साहब: छालिया, किताबें भी बेचता हूँ और छालिया भी।
मैं: आप छालिया भी बेचते हैं? दास्तान गोई का सिलसिला ख़त्म?
मीर साहब: तुम दिल्ली को अब क्या समझते हो। काया पलट गई। बिजली की रोशनी में पुराने दीवट को कौन पूछता है। मियां “इक धूप थी कि साथ गई आफ़ताब के” ' ख़ुदा हम्माली कराए दलाली न कराए। आबरू के साथ बसर करने की आख़िर कोई शक्ल तो होनी चाहिए।
मैं: लेकिन कहाँ वो सबक़ आमोज़ और शरीफ़ फ़न, कहाँ ये छालिया फ़रोशी। क्या आप इसमें ख़ुश हैं?
मीर साहब: अरे साहब ख़ुशी दिल्ली वालों की ख़ुशइक़बाल के साथ रुख़सत हुई। आज जो ख़ुश होता है दरअसल ख़ुशी को मुँह चिढ़ाता है और मैं तो भई दास्तान गोई से छालिया बेचने में ज़्यादा ख़ुश हूँ।
मैं: भला क्यों?
मीर साहब: क़ब्रिस्तानों में जाकर सुनाऊँ? ज़िंदों में तो कहीं चर्चा रहा नहीं, क्योंकर रहे? जो है ज़बान से नाआशना, अगले वक़्तों की मुआशरत पर मुँह आने वाला। अगले इंसानों को इंसान ही नहीं समझता। ज़िंदगी का फ़लसफ़ा ही बदल गया है। बचे खुचे कुछ लोग रह गए थे जिनके हाँ कभी कभी जाकर बुज़ुर्गों की फ़ातिहा पढ़ आता था। उनकी सोहबतें भी दरहम-बरहम हो गईं।
मैं: लेकिन छालिया बेचना तो बहरहाल आपकी शान के ख़िलाफ़ है।
मीर साहब: शान, हाथी का निशान, मियां, शान का मफ़हूम दुनिया ने ग़लत समझ रखा है। दूसरे दास्तान की तरह मैंने इसमें भी कमाल पैदा किया है। मेरी छालिया खाकर देखो दास्तान का मज़ा न आए तो कहना। बात ये है कि पान खाना दिल्ली वाले भूलते जाते थे (हंसकर) मैंने उन्हें फिर सिखाना शुरू किया है और पंजाबी तक कहने लगे हैं कि आहो मीर साहब हनु पान दा सवाद आया।
मैं: (ताज्जुब से) आपका मतलब मैं समझा नहीं। दिल्ली वाले पान खाना किस तरह भूल गए?
मीर साहब: अपनी मुआशरत बदल कर। अपने बड़ों की हंसी उड़ाते उड़ाते। मैं देख रहा था कि अगर कुछ दिन और पान खाने वालों में बेशऊरी बढ़ती रही तो हमारे तमद्दुन की ये चीज़ भी गई। सोचते सोचते ये समझ में आया कि छालिया बेचो। चुनांचे उसकी तिजारत शुरू कर दी। अब जहाँ छालिया लेकर जाता हूँ मेरा फ़र्ज़ है कि पान खाने का सलीक़ा भी बताऊँ।
मैं: पान खाने में भी सलीक़े की ज़रूरत है?
मीर साहब: सुब्हान अल्लाह। फिर आदमी घास के पत्ते न चबाले। मियां, तुम्हारे बड़ों ने जानवरों की तरह पेट भरने के लिए पान नहीं खाए। न ये कोई ताय्युश की चीज़ थी।
मैं: फिर क्यों खाते थे?
मीर साहब: गले, दांतों और मेदे वग़ैरा की दवा समझ कर और इसलिए वो पान और उसके जुमला लवाज़िम से वाक़िफ़ होते, छालिया कैसी होनी चाहिए। पान किस मौसम में किस हालत में कौन सा खाया जाए। कत्था क्यों-कर पकाएं। चूना किस तरह बुझाएं। आजकल पहले की निस्बत पान ज़्यादा खाए जाते हैं। जिसे देखो पनवाड़ी की दुकान पर खड़ा है या डिबिया जेब में है। बकर बकर चबाए जाता है। मगर पूछो कि क्या खाया, पान या पीपल का पता। छालिया या पंसारी की दुकान का कूड़ा तो दांत निकोस देते हैं। ऐसों ही ने तो हमें बदनाम किया है। हमारी मुआशरत में कीड़े डलवाए हैं।
मैं: तो क्या दास्तान कहनी बिल्कुल छोड़ दी?
मीर साहब:
बुलबुल की चमन में हमज़बानी छोड़ी
बज़्म-ए-शोअरा में शे’र ख़्वानी छोड़ी
जब से दिल ज़िंदा तू ने हमको छोड़ा
हमने भी तिरी राम कहानी छोड़ी
यूँ दो-चार लगे बंधे ठिकाने हैं। कभी बुलाया जा बैठा। दास्तान क्या, वक़्त के मुताबिक़ कोई चुटकुला सुनाया। दिल बहलाया। अपना नहीं बुलाने वालों का और चला आया। हाँ, ग़रीब ख़ाने पर हफ़्ते के हफ़्ते पुराने खंडरों के कुछ रोड़े इकट्ठे हो जाते हैं और सच पूछो तो सर फोड़ने का मज़ा आजाता है। अच्छा तो रुख़सत होता हूँ। यार ज़िंदा सोहबत बाक़ी।
यह कह कर दो क़दम चले थे कि फिर पलटे और फ़रमाने लगे, “भई ख़ूब याद आया। अब के हफ़्ते को (उँगलियों पर गिन कर) तीसरे दिन जी चाहे तो ग़रीबख़ाने पर तशरीफ़ ले आइए। लखनऊ के चंद अह्ल-ए-ज़ौक़ आने वाले हैं। उनकी फ़र्माइश है कि दिल्ली के रंग की दास्तान सुनाऊँ। नौ बजे शुरू करूँगा ग्यारह बजे महफ़िल बर्ख़ास्त हो जाएगी।”
मैं: मीर साहब मैं और न आऊँ। आख़िर दिल्ली आया किसलिए हूँ? मगर आप वक़्त पर किसी को भेज कर बुलवा लें तो बड़ा काम करें। दूसरी मस्रूफ़ियतों में शायद मैं भूल जाऊँ।
दिल्ली जब हिंदुस्तान का दिल थी, क़िला आबाद था, उसमें ज़िंदगी के आसार थे तो हरफ़न का साहब-ए-कमाल पैदा होता था। फ़ारिग़ उल बालियाँ थीं। क़दर दानियाँ थीं। लोग अपने अपने हुनर दिखाते थे। देखने वाले कभी बतौर परवरिश कभी “ए वक़्त-ए-तू ख़ुश कि वक़्त-ए-माख़ोशी कर दी” के मिस्दाक़ और कभी शान-ए-इमारत दिखाने के लिए दिल बढ़ाते रहते थे। जब तक सिपाहियाना जोश और फ़ुतूहात के वलवले रहे अंदर और बाहर का वही नक़्शा था। तीर अंदाज़ी, शमशीरज़नी, कुश्ती, घोड़े की सवारी खेलों में दाख़िल थी। वो वक़्त न रहा। हुकूमत दूसरे रंग पर आगई तो रज़्म ने बज़्म की सूरत इख़्तियार करली। ख़ून आशामी के जज़्बात मुर्ग़बाज़ी, बटेर बाज़ी वग़ैरा में और सवारी शिकारी के ख़्यालात, नाच रंग और दूसरे तफ़रीही मशाग़ल में बदल गए। हयात-ए-मुतहर्रिक पर जमूदी कैफ़ियत तारी हुई। तमाम दिन मस्नद तकिया लगाए बैठने में आ’ज़ा शल होजाते थे, रातों की नींद बदमज़ा होने लगी। लोरियों की ज़रूरत पड़ी। क़िस्से कहानियां शुरू हो गईं। ये गोया दास्तान गोई की इब्तिदा है। ख़्वाह उसका मूजिद ईरान हो या हिंदुस्तान, लेकिन है ये क़ौम की ग़नूदगी और हुकूमत की अफ़्सुर्दगी के दौर की पैदाइश।
मीर बाक़र अली के बाप दादा दास्तानगो न थे। उनके नाना मीर अमीर अली क़िले में क़िस्साख़्वां थे। मीर अमीर अली 57ई. की बिसात के साथ लिपट गए। मीर साहब के मामूं मीर काज़िम अली ने क़िस्साख़्वानी से बढ़कर दास्तान गोई शुरू की और इस फ़न को ऐसी तरक़्क़ी दी कि लखनऊ और फ़ैज़ाबाद के वाजिद अली शाही क़िस्साख़्वानों की चीं बुलवा दी। दिल्ली वालों का सिक्का बिठा दिया। उनकी हज़ार दास्तानी का ग़लग़ला हैदराबाद पहुँचा। सर आसमाँ जाह बहादुर का दौर दौरा था। शौहरत के हाथों वहाँ बुलाए गए और क़दरदानी ने ऐसा पकड़ा कि वहीं के हो रहे। मीर बाक़र अली उन ही के शागिर्द थे। मामूं भांजे का रिश्ता, उस्ताद लावल्द। शागिर्द होनहार और बकाए फ़न का शौक़। ख़ूब सिखाया और ख़ूब सीखा। मामूं को तो हमने सुना नहीं। भांजे को सुना है और पेट भर कर सुना है। क्या कहना इस फ़न के ख़ातिम थे। वो क्या मरे कि फ़न ही मर गया। मीर काज़िम अली तो मीर बाक़र अली जैसा शागिर्द छोड़ गए। लेकिन मीर बाक़र अली ने नाम के सिवा कुछ न छोड़ा। लड़का कोई उनका भी न था। एक लड़की थी जिसे उन्होंने क़ाबिला की तालीम दिलाई। काश दास्तानगोई सिखाते कि इस मरहूम फ़न का सिलसिला तो न मुनक़ते होता। मर्दों की निस्बत औरतों में दास्तानगोई ज़्यादा कारा॓मद साबित होती।
अमीर हमज़ा और उमर अय्यार के तक़रीबन सारे क़िस्से मैंने पढ़े हैं। मीर बाक़र अली मरहूम की दास्तानें उन ही का ज़मीमा होती थीं। वही कुफ़्र-ओ-इस्लाम की जंग आज़माइयाँ, वही तिलिस्म कुशाइयाँ। वही अय्यारियां। मगर उनकी तर्ज़-ए-अदा, ऐसी दिलचस्प होती थी कि क्या कहिए। अस्वात-ओ-हरकात के पूरे अदाकार थे। मैदान-ए-जंग का नक़्शा खींचते तो ये मालूम होता कि रुस्तम-ओ-असफंदयार की कुश्ती देखकर अभी आए हैं। बज़्म-ए-ऐश का समां बाँधते तो फ़िज़ा में मस्ताना रंग नज़र आने लगता। हर जज़्बे की तस्वीर खींचना क्या मअनी ख़ुद तस्वीर बन जाते थे। हाफ़िज़ा इस बला का था कि दफ़्तर के दफ़्तर नोक-ए-ज़बाँ थे। खानों का ज़िक्र आया तो अलवान-ए-नेअमत की फ़ेहरिस्त खोल दी। कुश्ती का बयान किया तो गोन्दी शाह वालों और शेख़ो वालों के सारे दांवपेच गिनवा दिए। बयान की रवानी इस क़दर थी कि कभी कभी हुक्के का कश या इत्तफ़ाक़िया अफ़्यून की चुस्की लगा लेने की सही नहीं, वरना उमूमन दास्तान शुरू करके ख़ातमे ही पर दम लेते थे। क्या मजाल है कि नज़्म या नस्र में कहीं हिचकी लें या किसी मैदान में झोल आए। मूसीक़ी से वाक़फ़ियत का सामान तो ख़ुदा साज़ था। तुर्कमान दरवाज़े डोमों की गली के असली रहने वाले थे, जहाँ की दुनिया ही सुरों में गठी हुई थी। ये तो तहक़ीक़ हो नहीं सका कि मूसीक़ी का इल्म किस हद तक था। गले से भी काम लेते थे या नहीं। अलबत्ता कन रसिए पूरे थे। बड़े बड़े जलसों में अच्छे अच्छे गवैयों को टोक दिया है। आवाज़ की बारीकियों और संगीत पर इतनी अच्छी नज़र थी कि अक्सर पंडितों से मुबाहिसे के लिए तैयार हो गए।
आख़िरी उम्र में तिब्ब पढ़ने का शौक़ हुआ था। बाक़ायदा तिब्बिया कॉलेज दिल्ली में जाकर लेक्चर सुनते थे। तबीब बनने के लिए नहीं बल्कि इस ख़्याल से कि दास्तान में इल्मी रंग पैदा हो जाए। क्योंकि तिब्ब इस्लामी के निसाब में फ़लसफ़ा, रियाज़ी, अदब, नफ़सियात, मंतिक़, फ़लकियात वग़ैरा तक़रीबन सारे उलूम कम-ओ-बेश दाख़िल हैं। चुनांचे उन्होंने अपनी दास्तान में इस बिद्अत से काम लेना शुरू कर दिया था। लेकिन अफ़सोस ये उनकी इज्तिहादी ग़लती साबित हुई। कव्वा चला हँस की चाल अपनी चाल भी भूल गया। मीर साहब ख़ैर अपनी चाल तो नहीं भूले, अलबत्ता छालिया ज़रूर बेचने लगे। बात ये थी कि मीर बाक़र अली दास्तानगो थे, इल्म के किसी शोबे के लेक्चरर नहीं। लोग उनसे सिर्फ़ अपना दिल बहलाना और अपने जज़्ब-ए-हैरत की तस्कीन चाहते थे, या दिल्ली के करख़ंदारों की बोलियाँ ठोलियाँ सुनना मक़सद होता था। हक़ीक़त में दास्तान भी अगर साइंस, फ़लसफ़ा और हिक्मत की ख़ुश्की से मुतास्सिर हो जाए तो क़हक़हे के लिए कोई चीज़ बाक़ी नहीं रहती।
ख़ैर आमदम बरसर-ए-मतलब। हफ़्ता आया और इत्तफ़ाक़ से मैं मीर साहब के हाँ जाना भूला भी नहीं, लेकिन उस दिन यकायक कुछ इतने काम आ पड़े, अगर मीर साहब अपने बिरादर-ए-निस्बती को न भेजते तो ग़ालिबन मैं न जा सकता और इस न जाने का उम्र भर अफ़सोस रहता। ठीट दास्तान गोई के रंग में बयान की आख़िरी दास्तान थी। लखनऊ वालों में एक साहब तिलिस्म-ए-होश रुबा के मुतर्जिम बैठे थे और उन्हें दावा था कि मेरे वालिद से बेहतर दास्तानगोई क्या कह सकता है। इसलिए मीर साहब को भी अपना कमाल दिखाना पड़ा।
जाड़े का मौसम था। मैं मीर साहब के हाँ पहुँचा तो क्या देखता हूँ कि छोटे से दालान में दस बारह आदमी बैठे हैं। चाय का दौर चल रहा है। तूल में पखवाई के क़रीब एक चौकी बिछी हुई है। अफ़्यून की डिबिया, लोटा पानी का, दो तीन प्यालियां आसपास रखी हैं। चौकी के आगे दीवार की तरफ़ एक मुनहनी सा आदमी लिपटा लिपटाया बैठा है। आगे डोरी में टंगी हुई लालटेन टिमटिमा रही है। मद्धम रोशनी, मेरी आँखों पर ऐनक चढ़ी हुई, क्या पहचानता। सलाम अलैक करके चारों तरफ़ देखने लगा। आवाज़ आई,
“मियां बड़ी राह दिखाई। मैं तो हार कर दासाटन शुरू करने वाला ही था।”
मैं: आप हैं कहाँ? आवाज़ आरही है नज़र नहीं आते।
मीर साहब: भाई सर्दी है सर्दी। नाक की सीध में चले आओ मेरे पास पहुँच जाओगे।
मैं आगे बढ़ा और आवाज़ पर जा पहुँचा। उनकी उस वक़्त की बर्ज़ख़ भी देखने के क़ाबिल थी। सिर पर रूई का कनटोप जिसके दोनों सिरे ऊपर को उलट कर टोपी सी बना ली गई थी। स्याह ज़मीं और लाल लाल बूटियोंदार छींट की कुमरी। ऊपर से ख़ुदा झूट न बुलवाए कोई डेढ़ सेर रूई की रज़ाई। टांगों में ख़ाकी ज़ीन का पाएजामा। पाँव में सुर्ख़ धारीदार लुधियाने के मोटे मोटे मोज़े पाएजामे की मोरियों के ऊपर चढ़े हुए। मैंने जो उन्हें ग़ौर से देखा तो ताड़ गए, कहने लगे, “क्या देखते हो बन्नू लाल बना हुआ हूँ। सुब्हान अल्लाह अपना लिबास भी कैसा आरामदेह होता है। मियां सर्दी रूई से भागती है या दुई से। भाई मैं तो अपनी राहत और तंदुरुस्ती को मुक़द्दम समझता हूँ। अब देखो सीने की हिफ़ाज़त कुमरी से हो गई। कान और गर्दन वग़ैरा का बचाओ कनटोप से हो गया। रही रज़ाई, ओढ़ना का ओढ़ना है और बिछौने का बिछौना। सर्दी लगे ओढ़ लो वरना गदेला बनाकर बिछा लो। बंदा बशर है, कहीं रात ज़्यादा आजाए, वहीं सोना पड़े तो दूसरों के झूटे लिहाफ़ की ज़रूरत, न बिस्तर का टंटा। जहाँ नींद आए गंडली मंडली मॉरो और पड़जाओ।”
इस मुख़्तसर सी मजलिस में मीर साहब के कई हममुश्रब यानी चुनिया बेगम के आशिक़ भी थे। मीर साहब को घोलवे की लत कब से थी और किस तरह लगी इसका तो इल्म नहीं, मगर थी और इस हद तक थी कि बग़ैर नहग गठे दास्तान नहीं कह सकते थे। अलबत्ता और बातें अफ़ीमियों की सी न थीं। मिज़ाज सफ़ाई पसंद था। तबीयत में कभी कसाफ़त न थी। जब प्याली चढ़ाकर दास्तान कहने बैठते तो अनजानों को अफ़ीमी होने का शुबहा भी न होता। मीर साब फ़रमाया करते थे कि “सतही नज़र वाले जानते ही नहीं कि अफ़ीम क्या है? वो सिर्फ़ इतना ही जानते हैं कि देखने में काली और मज़े में कड़वी एक शय है, जिसे अह्ल-ए-ज़ाहिर ने मकरूह कह दिया है। उन्हें क्या ख़बर कि इसके चोगे में एक ज़बरदस्त फ़लसफ़ा, एक आला मज़हब बंद है। मर्दान-ए-ख़ुदा से पूछो उसका बातिन कैसा लालों का लाल है। मोतू क़ब्ल इन तमोतो की मुजस्सम तफ़सीर बन जाते हैं, जहाँ उसे घोलना शुरू किया और दुरुस्ती अख़लाक़-ओ-तज़्किए नफ़्स की बुनियाद पड़ी। सरकश से सरकश और ज़ालिम से ज़ालिम आदमी उसे पीते ही रहम का पुतला और ख़ुदातरस बन जाता है। इसके असर से बड़े बड़े मग़रूर और ख़ुद पसंद सर निगूँ हो गए हैं। हज़ारों सूरमा इसकी बदौलत मैदानों से ज़िंदा आगए। सैकड़ों पैराक पानी में डूबने से बच गए। इसके सदक़े में बीसवीं सिफ़तें पैदा होजाती हैं। आवाज़ में वो शीरीनी कि मक्खियां होंट चाटें। ख़्याल आफ़रीनियाँ इस बला की कि बोस्तान-ए-ख़्याल को मात कर दें। ज़बानी बहादुरी के ये ठाट कि रस्म-ओ-असफंदयार थर्रा जाएं और मुनकसिर मिज़ाजी यहाँ तक कि अगर एक लौंडा झांपड़ मारे तो सर मुक़द्दस ज़मीन के बोसे लेकर भी ऊँचा न हो। ज़बान से सिवाए मिनमिनाहट के क्या मक़दूर है कि कोई लफ़्ज़ तो अख़लाक़ से गिरा हुआ निकल जाए। तवाज़ो का ये हाल कि एक गंडेरी के जब तक चार टुकड़े करके भाईयों को न ख़िलालें चैन न आए।
नौ बज चुके थे। मीर साहब के एक हममुश्रब दोस्त मियां फ़ज्जू ख़ां ने पहले तो “कसम्बे” की कटोरी पेश की। ये पी चुके तो चाय की प्याली सामने रख दी, और बोले, “हाँ जनाब मीर साहब, शुरू कर दीजिए।” मीर साहब, “बहुत मुनासिब” कह कर दो ज़ानू बैठ गए, और अपनी निस्बत चंद इन्किसार के अलफ़ाज़ कहने के बाद दास्तान के मैदान में उतरे। मुझे पूरी दास्तान तो क्योंकर याद रह सकती थी, न ऐसा हाफ़िज़ा न कल की बात, हाँ कुछ टुकड़े हाफ़िज़े में महफ़ूज़ हैं। पेश करता हूँ ,सुनिए,
मुग़न्नी ख़बर देह अज़ां दोस्तां
कि बूदंद चूँ गुल, दरीं बोस्तां
चमन रा तर-ओ-ताज़ा आरास्तंद
चू शब्नम नशिस्तन्द-ओ-बरख़ास्तन्द
कमतरीन यह दास्तान-ए-फ़र्हत उनवान यहाँ से गुज़ारिश करता है कि दफ़्तर कोचक बाख़्तर-ओ-बाला बाख़्तर ख़त्म हो चुका है और लुक़ाए बेबक़ा रान्द-ए-दरगाह-ए-ज़मुर्रद शाह बाख़री मुक़ाबला जनाब आफताब-ए-आलम ताब दौलत क़ाहिरा-ओ-माहताब-ए-जहाँ अफ़रोज़ सल़्तनत-ए-बाह्रा। शिकनन्दा गर्दन-ए-गर्दान-ए-गर्दन कुशान-ए-आलम सुलतान-उल-मोअज्ज़म अमीर-उल-मुकर्रम साहब क़िरान-ए-अरब-ओ-अजम से भाग चुका है और बड़े बड़े मग़रूर दर-ए-दौलत पर सर पर ग़रूर ख़म कर चुके हैं। उन ही अय्याम सुरूर-ए-अंजाम में एक रोज़ का ज़िक्र है कि मियान-ए-बारगाह-ए-सुलेमानी दरबार-ए-जहाँबानी मुनाक़िद है और क़रीब क़रीब सौ सवा सौ ताएफ़ा अर्बाब-ओ-निशात का हाज़िर, थाप तबलों पर पड़ रही है। सारंगी का लहर और बाएं की गमक आसमान को जा रही है। तरह तरह के बाजे, अलग़ोज़े, बरब्त, बीन, बाँसुरी, बंग दायरा, पुर्णा, जल तरंग, चंग दफ़, ढोलक, दमनानी, रबाब, सरनाई, नफ़ीरी, सुर सिंघार, ताऊस, सितार, तरब जोश, क़ानून, कमान्चा, मृदंग, हंजीरा, ने नस्तरन बज रहे हैं। साक़ियान गुलफ़ाम जाम-ओ-सुराही लिए होश उड़ा रहे हैं... उसी हंगाम ऐश-ओ-निशात में दफ़्अतन एक जोड़ी अय्यारान-ए-तरार और जासूसान-ए-होशियार की गर्द में आलूदा और पसीने में ग़र्क़ ब हुज़ूर-ए-शाहनशाह-ए-वाला जाह गेती पनाह ज़िल अल्लाह सुलतान साद बिन कबाद ग़ाज़ी हाज़िर हुए। हद्द-ए-अदब से ज़मीन-ए-ख़िदमत को बोसा देकर दस्त-बस्ता अर्ज़ किया,
शाहा बक़ा-ए-उम्र-ए-तू बादा हज़ार साल
लेकिन ब-ईं हिसाब ब-सद हशमत-ओ-जलाल
साले हज़ार माह-ओ-महे सद हज़ार रोज़
रोज़े हज़ार साअत-ओ-साअत हज़ार साल
सुरूर-ए-आलम की उम्र-ए-दराज़ हो। ख़ानाज़ाद हस्ब-ए-हुक्म अक़ब लिक़ा बाख़्तरी में सरगर्म रफ़्तार थे कि एक दर्रा-ए-कोह मिस्ल दर-ए-फ़िरदौस-ए-नज़र से गुज़रा। जब इससे सरबदर किया तो वो आलम देखा कि,
शजर शजर से हुवैदा है रंग-ए-बूक़लमूं
चमन चमन है बना रश्क-ए-तब्ला-ए-अत्तार
रविश-रविश में दरख़्तान-ए-बाग़ इस्तादा
क़दम क़दम पे सनोबर जुदा क़तार-क़तार
बिछा है सब्ज़ा-ए-सहरा में फ़र्श-ए-मख़मल-ए-सब्ज़
खिंचा है रू-ए-ज़मीं साएबान-ए-अब्र-ए-बहार
हर एक ग़ुंचे से पैदा है यार की शोख़ी
हर एक गुल से हुवैदा है रंग-ओ-बू-ए-लंगार
नसीम-ए-मस्त निकलती है जोश-ए-मस्ती में
लिपट-लिपट के जवानान-ए-बाग़ से हर बार
ब-रंग-ए-बादा-कशां मस्त हैं वुहूश-ओ-तुयूर
मिसाल-ए-सूफ़ी-ए-सरमस्त वज्द में अश्जार
नमक ख़्वार इस कैफ़ियत-ए-बहार में मसरूफ़ थे कि सामने से एक गर्द-ए-तीरह रंग बुलंद हुई। जब क़रीब उस गर्द के पहुँचे तो देखा कि कई हज़ार फैलान-ए-कोह शिकवा मस्त-ओ-मिलिंद जिनकी जल हाय मुकल्लिल ता पाश्ना लटकती और काठियाँ पोला दी जौहर दार पुश्तों पर कसी। उन पर दो दो जवानान-ए-ज़बरदस्त सवार हाथों में निशान-ए-सरबलंद और आलाम फ़लक पैवंद संभाले फुरेरे हवा से उड़ाते, गिर्द-ओ-पेश सांटे मार, भाले बर्दार, बान अंदाज़, चरकटे उगद् उगद् बुरी बुरी गुल मचाते। उनके बाद सांडनी सवार, क़तार दर क़तार सांडनियों की गर्दनें गोदियों में लिये चौरासियाँ लटकतीं। घुंघरु बजते। दरोयां शत्री बानात की पहने। बत्तियां सुरमई सरों पर बाँधे। पीछे उनके नेज़ा-बाज़ मुरक्कबों पर सवार। नेज़ों से निस्बतान फूला नज़र आता था। उनके बाद दो बादशाह ज़बरदस्त अलक़ाब-ओ-अंसाब, नाम ताज ज़रीन बरसर क़बाएँ शहनशाही दरबर। बीच में उनके लुक़ा रे बेबक़ा एक फ़ील-ए-कोह पैकर पर सवार। अक़ब में उसके याक़ूब शाह बिन लुक़ा और बख़्तियारक बिन बख़्तक बिन अलफ़श बिन मादर्श बिन सग सफ़ेद... और अलक़ा लुक़ाए अर्ज़ करता जाता था कि ख़ुदावंद, मेरे नाम तक़दीर तबाही लश्कर-ए-ख़ुदा परिस्तान फ़रमाइए। लुक़ा ने कहा कि ख़ुदावंद दर्रा-ए-आज़र कोह और ग़लतियाँ बाद में तुम्हारे ही हाथ पर बर्बादी इन नादीदा ख़ुदा परस्तों की कई हज़ार बरस पहले तक़दीर फ़रमा चुका है। ये कह कर दोनों अय्यार आदाब बजा ला पिछले क़दमों हट रुख़सत हुए। और यहाँ बादशाह-ए-इस्लाम ने वास्ते रवानगी अमीर किशवरगीर को इरशाद फ़रमाया। साहब-ए-क़िरां ने पहलवान आदी को कि हरावल-ए-लश्कर था हुक्म सुनाया। पहलवान आदी सलाम कर अपने खे़मे पर आए और... दूसरे रोज़ लश्कर-ए-ज़फ़र असर और फ़ौज-ए-दरिया मौज जनाब साहब क़िरान-ए-दौरां मा पांच हज़ार पांच सौ पचपन सरदारान नामी, बहादुरान-ए-गिरामी। दिलेरान-ए-सफ़ शिकन और जवानान-ए-तेग़ज़न, तीन सौ ज़ंगी, चार सौ फ़िरंगी, पांच सौ मदाईनी, छे सौ हिन्दी, सात सौ ख़जन्दी, आठ सौ तुर्की, एक हज़ार अजमी, बारह सौ बाख़्तरी, बाक़ी शेरान-ए-पेशा-ए-इराक़ और शाहज़ादगान-ए-आफ़ाक़ जो ख़ास ख़ानदान-ए-क़ुरैश से थे मा अमीर-ए-नाम दारद बादशाह इस्लाम-ओ-महर सिपहर अय्यारी क़ुतुब फ़लक-ए-ख़ंजर गुज़ारी शाहनशाह-ए-अय्यारान-ए-रोज़गार यानी ख़्वाजा उमर बिन उम्मिया ज़मीरी नामदार और शागिर्दान-ए-ख़ास चार महतर चौदह सरहंग एक लाख अस्सी हज़ार अय्यार-ओ-क़ाइम मक़ाम महतर क़िरान-ओ-औलाद उमर रवाना हुआ... बदी उल्ज़मां कि साहब क़िरान-ए-कुश्तीगीरी में उनका आलम है कि अभी गर्द गुल रुख़सार के सब्ज़ा-ए-नौ ने नुमाइश नहीं की है। शोला-ए-हुस्न बे दूद नज़र आता है। शजर क़ामत बाग-ए-नौजवानी में माइल नौख़ेज़ी है और ग़ज़ाल-ए-चश्म शबाब में आमाद-ए-शोख़ी है। उनके दिल में शिकार की उमंग उठी। हुक्म की देर थी कि मीर-ए-शिकार ने जानवरान-ए-सैदगीर, बाज़, जुरा, बाशेन, कोही, कोहीला, तुरमती, शिकरा मूसा नेवले, बहरी, चिपक, लगड़ बगड़, स्याह गोश, चीते वग़ैरा को दुरुस्त कर दर-ए-दौलत-ए-शाहज़ादा पर हाज़िर हुए और इधर एक मुरक्कब-ए-सबा रफ़्तार कि सुम जिसके फ़राख़ी में सिपर। आँखें उबली हुई, जिल्द बारीक लग़ल हिलाल-ए-ईद, ग़ुन्चा सी थुतनी, कनौतियां छोटी छोटी, कलाइयाँ शेरी की सी, गर्दन मोर की, पुट्ठे हाथी के से, कमर चीते की और रफ़्तार का वो हाल कि,
अगर खड़ा हो मशरिक़ में और सामने हो उसके ग़र्ब
टुक उसे राकिब कहे इतना कि चल तू याँ से वाँ
पहुँचने पाए सदा-ए-हाँ न मुँह से ता ब-लब
पहुँचे है ये बाद पैमाइयाँ से वाँ और वाँ से याँ
अलक़िस्सा जब वो गर्दूं मुक़ाम ब कमाल तजम्मुल-ओ-एहतिशाम लश्कर से चार या पांच फ़र्सख़ पर पहुँचा तो देखा कि एक दरयाए ज़ख़्ख़ार और बह्र मव्वाज कि हर मौज जिसकी मिस्ल ज़ुल्फ़-ए-जानां पेच दर पेच और हर गर्दाब सूरत-ए-हलक़ा काकुल, माशूक़ान-ए-फ़ित्ना अंग़ेज़ नज़र आता है। बड़े ज़ोर शोर से मस्तानावार बह रहा है और किनारे पर उसके एक मर्ग़ेज़ार सरसब्ज़-ओ-शादाब कोसों तक चला गया है। सब्ज़-ए-ज़मुर्रद कूँ लहलहा रहा है, सब्ज़ी और तरावत आँखों में खुबी जाती है,
तुर्फ़ा सर-सब्ज़ी ने की है हर तरफ़ से सर-कशी
है ज़मीं फ़ीरोज़ा-गूं और लाजवर्दी आसमां
सज्दा-ए-ख़ालिक़ में है हर शाख़ नख़्ल-ए-पुर समर
हम्द में ख़ल्लाक़-ए-आलम के है सोसन तर-ज़बां
कहीं धानों के खेत पानी से सैराब, किसान जहाँ-तहाँ ढेंकुलियाँ और पुरोहे है चलाते। रखवाले दरख्ता न-ए-समरदार के खटके हिलाते तोते उड़ाते। वो हरे हरे दरख़्तों की ठंडी ठंडी छांव, डाबर और तालाब पानी से लबरेज़, झीलें कटोरा सी छलकतीं, नदियाँ रवां। किनारे पर मुरग़ान-ए-आबी का हुजूम। तालाबों में कँवल और सिंघाड़ों की बेलें पड़ें, कहीं को कनार फूला हुआ। अल्लाह रे फ़िज़ा उस सब्ज़ाज़ार की। वो शाम का क़ुर्ब हवा की ख़ुनकी, झलकता सूरज, शफ़क़ की सुर्ख़ी। सरसों की ज़र्दी और घने घने दरख़्तों में कोयल का कूकना, मोरों की झनकार, मौसम का एतिदाल, बाद-ए-बहारी का चलना। तूतिया न-ए-शीरीं मक़ाल का अमरय्यों पर झूम-झूम कर गिरना, रखवालों के शोर, गोफन के तड़ाके। खटकों की आवाज़, झुटपुटे का वक़्त,
कहूं क्या समां अख़्तरी रोज़ का
मसीहाई करती थी वाँ की हवा
हर इक सिम्त सरसों के खेतों का रूप
मुलाइम मुलाइम वो धानों पे धूप
भली लगती थी ठंडी ठंडी हवा
ग़रज़ ज़िंदगी का वहाँ था मज़ा
वो दरिया का पुर पेच आब-ए-रवां
हर एक मौज थी सूरत-ए-कहकशां
दरख़्तों पे हर सू वो शोर-ए-तुयूर
वो छुपता सा सूरज वो मह का ज़हूर
कि दफ़्अतन दूर से उस दरिया में एक रोशनी पैदा हुई। जब वो रोशनी क़रीब आई तो देखा कि साठ सत्तर कश्ती, बजरा, मोर पंखी, लचका, होड़ी, टीन मनव्वर हैं। उनमें नाज़नीनाँ-ए-परी तिम्साल और मह्व शान-ए-हूरख़सां। ज़ुल्फ़ें ता कमर छूटी हुई, दुपट्टे सरों से ढलके हुए। नशों में सरशार ज़र्क़-बर्क़ जोड़े पहने, गहने पातों से लदी आलम-ए-बेख़ुदी में आपे से बेख़बर। नशा-ए-हुस्न-ओ-शबाब में बेख़ौफ़-ओ-ख़तर बाहम चुहलें कर रही हैं और क़हक़हे मार रही हैं, बीच में एक ताऊसी अज़ दुम ता मिनक़ार जवाहर अबदार से तैयार, जवान-ए-जवान औरतें सब्ज़ा रंग, साड़ियां बनारसी भारी भारी बाँधे, गातियाँ मारे, मोटे मोटे कड़े। मगर वहाँ जुड़ाव हाथों में पड़े। फ़तह पेच के सर गुँधे। कौड़िया ले मूबाफ़, मांगें निकलीं, कानों में मीनाकारी बिजलियाँ, गलों में दुहरे गजरों के तोड़े, गंगा-जमुनी चप्पू हाथों में लिये डांडें लगाती चली आती हैं। अंदर उसके सूरज मुखियां रोशन, मसनद-ए-ज़रतार लगी, बीस बाईस अनीसान ख़ास ख़ुश-रू ज़ुलीदा मू, मौसमी रंग के जोड़े, हल्के हल्के ज़ेवर चुप रास्त खड़ी बालाए मस्नद एक माह-ए-तलअत कमाल नाज़-ओ-अदा से जलवा फ़रमा। गोरा गोरा बदन चाँद सा मुखड़ा, भोली-भाली सूरत, लम्बे लम्बे बाल, बड़ी बड़ी आँखें, जट्टी भवें, फूल से गाल, सुत्वाँ नाक ग़ुंचा दहन, पतले पतले होंट, दांत मोतीयों की लड़ी, सुराहीदार गर्दन, प्यारी प्यारी वज़ा,
सुमन सीना-ओ-नाज़ुक अंदाम-ओ-नर्म
अयाँ शर्म में शोख़ी शोख़ी में शर्म
गोल गोल शाने, कलाइयाँ बिल्लौर की बल्कि नूर की। पंज-ए-हिना में याक़ूत की सफ़ाई,
ये साअदों का है इसके आलम कि जिसने देखा हुआ वो बेदम
नियाम-ए-तेग़ क़ज़ाए मबर्म, लक़ब है क़ातिल की आस्तीं का
उभरा उभरा सीना, उठती जवानी, आईना सा पेट, चीते की सी कमर,
बरस पंद्रह या कि सोलह का सिन
जवानी की रातें मुरादों के दिन
कांसी जोड़ा पहने, जाम-ए-शराब गुलफ़ाम हाथ में लिये मख़मूर बादा-ए-नशात, पीछे दो ख़वासें पुश्ता रां हाथों में, सामने कुछ गाएँ, सितार, तंबूरा, ढोलक के साथ धीमे धीमे सुरों में छोटे छोटे दलें और बिहाग के ख़्याल गा रही हैं। जूं ही निगाह शाहज़ादे की उस जादू अदा पर पड़ी मुर्ग़-ए-दिल नय्यर निगाह्-ए-नाज़ का शिकार हुआ,
थी नज़र या कि जी की आफ़त थी
वो नज़र ही विदाअ-ए-ताक़त थी
होश जाता रहा निगाह के साथ
सब्र रुख़सत हुआ एक आह के साथ
दिल पे करने लगा तपीदन नाज़
रंग चेहरे से कर गया परवाज़
शाहज़ादा शिकार की जुस्तजू में ख़ुद शिकार हो कर वापस आरहा था कि,
सामने से नागहां एक तुर्फ़ा बाग़ आया नज़र
वस्फ़-ए-शादाबी में है जिसकी मिरी क़ासिर ज़बां
लग़्ज़िश–ए-मस्ताना दिखलाने लगा पा-ए-ख़्याल
बस क़ि उसकी चार दीवारी थी साफ़ आईना साँ
पुश्ता-ए-दीवार पर उसके वो सब्ज़ा दूब का
जिसकी सर सब्ज़ी से था सरसब्ज़ रू-ए-गुल-रुख़ाँ
और क़रीब बाग़ एक मैदान-ए-वसीअ में अक्सर खे़मे डेरे, क़नातें, छोलदारियां बंगले इस्तादा हैं। शाहज़ादा बदी उल्ज़मां क़रीब उन ख़ेमों के आए थे कि एक अय्यार ने आगे बढ़कर आवाज़ दी। “ख़बरदार होशियार, यह लश्कर रख़्शान-ए-तेग़ज़न का है।” शाहज़ादे ने मुरक्कब को रोक कर उमय्या बिन उमर से कहा कि तुम जाकर रख़्शान-ए-तेग़ज़न से कहो हमारे सरदार आपसे मुलाक़ात चाहते हैं... बदी उल्ज़मां मुरक्कब बढ़ा दाख़िल लश्कर हुए और ख़ेमा-ए-रख़्शां पर आ, घोड़े से उतरे खे़मे में पहुँचे तो देखा कि हक़ीक़त में दंगल में एक जवान ज़बरदस्त जिसका छाता गर्दन तैयार मछलियाँ बाज़ू की उभरी हुई, कमर पतली, रानें मोटी, पिंडलियाँ गोल, आँखें सुर्ख़, सिपर पस-ए-पुश्त, क़ुर्बान में कमान हज़ार तीर का तरकश शक्ल-ए-दुम ताऊस पीछे पड़ा। जोड़ी ख़ंजर-ए-आबदार की कमर में लगी, मोज़े स्याह विलाएती ज़ानुओं तक, ज़फ़र तकिया जे़रे बग़ल दबाए बड़ी शान-ओ-शौकत से बैठा है और दाएं बाएं दंगलों में जिन शागिर्दान-ए-ख़ास को आपस में हमसरी का दावा है मोअद्दब मौजूद हैं...
बातें हो ही रही थीं कि एक शागिर्द ने अर्ज़ की कि कसरत का वक़्त आगया है। ये सुनकर रख़्शां ने शाहज़ादे से कहा कि आप भी तशरीफ़ ले चलें। शाहज़ादा खड़ा हो गया। क़रीब ही जे़रे शामियाना अखाड़ा हरा किया हुआ था जिसमें पटड़ियाँ हर चहार सम्त। उन पर लेज़म बिल डंड, बिल खम, संतोला, यक्का, करेले, नाली, गोदबेल, नालियां, नाल मुगदरों की जोड़ियाँ कुहनियाँ वग़ैरा क़ाएदे से रखी थीं। शागिर्द लंगर लंगोटे बाँधे कुछ डंड बैठकियां लगा रहे हैं और कुछ दूसरी कसरतों बनोट, फक्कड़ी, बेलिया, नाग मोड़, बन तोड़, धारानी, बिखेती, करबत्ती, बांक, पटा, हनौंती, लुज दंती, रुस्तम ख़्वानी, करनाड़क, अली मद, शैज़ोर, शेर पैकर, लठैती में मसरूफ़ हैं। एक तरफ़ दस बारह ज़ईफ़ ज़ईफ़ उस्ताद हर फ़न के बैठे घाईयां उड़ाने और वरज़िश की रकानें तालीम करते जा रहे हैं। रख़्शां ने बदी उल्ज़मां को एक दंगल पर बिठाया चंद जाम-ए-शराब पी लिबास उतार, सामान-ए-कुश्ती दुरुस्त कर अखाड़े में उतरा और निहायत निख़वत से ख़म पर ख़म मार आवाज़ दी कि आओ कौन आता है? आठ दस शागिर्द सामने आ खड़े हुए। रख़्शां ने बैठ कर कहा कि लो चित्त करो। वो सब लिपट गए। थोड़ी देर न गुज़री थी कि उसने सबको उठा उठा कर फेंक दिया और खड़े हो कर हुंकारा कि हाँ, कहाँ हैं रुस्तम-ओ-सुहराब, असफ़ंदरयार-ओ-गोदर्ज़। हमज़ा-ओ-बदी उल्ज़मां आएं मेरे मुक़ाबले में और हलक़ा मेरी बंदगी का अपने कान में डालें। बदी उल्ज़मां को अस्लाफ़-ओ-ग़ज़ाफ की कब ताब थी। बोले ऐ जवान, ऐसी शेख़ी बहादुरों को सज़ावार नहीं। रुस्तम वग़ैरा तो ख़ैर अपनी जगह हैं अगर आप कहें तो मैं मौजूद हूँ। हाथ मिल जाएं। रख़्शां ने हंसकर कहा, आइए। शहज़ादा उसी वक़्त दंगल से उतर सामान कुश्ती से आरास्ता हो सामने आया। जिस वक़्त शहज़ादे ने पैंतरा बदला तो बूढ़े बूढ़ों की गर्दनें हिल गईं। सिरे से सर मिला सामने के ज़ोर होने लगे। ताक़त आज़माई के बाद दांव पेच शुरू हुए और इक दस्ती, दो दस्ती, आंटी सौंत, रुम, मूंढा, क़ैंची, बुक़ची, हतकोड़ा गाल, गिरह, झूम, हफ़्ता, टंगड़ी, कोला, सुखी, हमायल गोला लाठी, झोली कीली, नाक पेच, गोमुख, बग़ली, गुलबंद, परिबंद, देवबंद, क़िला जंग, बारह बेलन, ग़ोता, थपकी, सिलहड़, हौका, झड़की, मुग़ला, सांधी, इक दही, कलंदरा, सवारी झूला, झपकी, खसोटा, अड़ंगा, धड़मार, हार सिंघार, लंगर, तीफ़ा क़ुफ़ली, होते होते शहज़ादे ने रख़्शां की कमरबंद ज़ंजीर में हाथ डाल एक ही क़ुव्वत में सर से बुलंद किया और नारा मारा कि मनम सर कर्द-ए-कुश्ती गीरान-ए-जहाँ बदी उल्ज़मां बिन साहब-ए-क़िराँ हमज़ा ज़ीशान।
अब जो शहज़ादा लशगरगाह-ए-इस्लाम में पहुँचा, ख़लवत हुई तो इश्क़ ने ज़ोर बाँधा, माशूक़-ए-तन्नाज़ की याद आई, हरचंद ज़ब्त किया मगर कहीं इश्क़-ओ-मुश्क छुपता है। एक हाए का नारा मार कर बेहोश हो गया... अमीर किश्वरगीर को इत्तिला हुई कि शहज़ाद दामन-ए-आज़र कोह में लब-ए-दरिया चांदनी की सैर मुलाहिज़ा फ़रमा रहे थे कि यकायक चंद कश्तियां दरिया में पैदा हुईं। जवान जवान औरतें सवार थीं। मालूम नहीं कि उनमें से किस फ़सूँसाज़ ने जादू कर दिया... अमीर नामदार ने सुना, उठ खड़े हुए। ये ख़बर अय्यारों ने कोतवाली चौतरा पर ख़्वाजा उमर बिन उमय्या ज़मरी को पहुँचाई। ख़्वाजा सुनते ही ख़ेमा बदी उल्ज़मां पर आ ख़िदमत-ए-अमीर बातौक़ीर में आदाब बजा लाए। सारी कैफ़ियत सुनकर कहा हुज़ूर, इत्मीनान फरमाएं। ये कहीं आशिक़ हो गए हैं या इन पर किसी ने सिहर कर दिया है। बहरहाल मैं इस का इंतज़ाम करलूंगा। इतने में शहज़ादे को होश आया। आँखें खोल कर देखा तो साहब-ए-क़िरान-ए-ज़ीशान ख़्वाजा उमर और कई सरदार अपने ताबेदार पलंग को घेरे बैठे हैं। बदी उल्ज़मां घबराकर पलंग से उतरे। आदाब बजा कुछ शर्मिंदा सामने मुअद्दब बैठ गए। साहब क़िराँ ने फ़रमाया, बेटा कहाँ गए थे और ये क्या हाल है? शहज़ादे ने शर्माकर नीची गर्दन करली। अमीर नामदार ने भी ज़्यादा गुफ़्तगू करनी मुनासिब न समझी। रुख़सत हुए और चलते चलते शहनशाह-ए-अय्यारान-ए-जहाँ से फ़रमाया तुम जाकर शहज़ादे को समझाओ कि साहबज़ादे हमने आलम-ए-शबाब में ऐसे बहुत खेल खेले हैं मगर अंजाम उनका सिवाए ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी और आह-ओ-बेक़रारी के कुछ न देखा क्योंकि माशूक़ान-ए-चमन-ए-रोज़गार हफ़्ता दोस्ती में मश्शाक़ हैं,
दम दिला से मैं लगा लेना दिल उनका खेल है
रोज़ करना इक शिकार उनकी हैं अदना शोख़ियाँ
सुन के नाला आशिक़ों का कहते हैं क्या राग है
ज़बह करके देखते हैं सैर-ए-रक़्स-ए-बिस्मिलां
जो सरमस्त-ए-बाद-ए-ग़म उनकी नर्गिस-ए-चश्म का बीमार हुआ ब ख़्याल-ए-अफ़शए राज़ घुल घुल कर घुट घट कर बपास ख़ातिर-ए-दिलदार कुछ कह तो सकता नहीं आख़िरकार फ़र्हाददार जान शीरीं तलफ़ करता है,
ग़रज़ अंजाम उल्फ़त का बुरा है
कि जो महबूब है सो दिलरुबा है
दिल-आज़ारी है हर दम काम उनका
जफ़ा–जोई वफ़ा है नाम उनका
सितमगर हैं ये सफ़्फ़ाक-ए-जहाँ सब
कि है आशिक़-कुशी से उनको मतलब
दिल-आज़ार-ओ-जफ़ा–जू फ़ित्नागर हैं
ख़ुदा शाहिद है बुत बानी-ए-शर हैं
बेटा अपने को संभालो, यह मक़ाम-ए-साहिरान-ए-गद्दार और जादूगरान नाबकार है। ख़ुदा ने हमें अपनी राह में जिहाद के लिए पैदा किया है न कि हुस्न-ओ-इश्वक़ के झगड़ों में मुब्तला हो कर आह-ओ-फ़रियाद के लिए।
ये फ़रमा अमीर तो उधर रवाना हुए और उमर अय्यार मुँह बनाए हुए शहज़ादे के पास आए और कहने लगे, बरखु़र्दार हमसे अब मुलाज़मत नहीं होती। जिसका बेटा की तरफ़ से ऐसा पत्थर का दिल हो उससे किया उम्मीद। अपना वक़्त भूल गया। मलिका मेहर निगार की चाहत में कहाँ कहाँ झक मारता फिरा। मलिका-ए-रोशन तन के लिए कोह-ए-क़ाफ़ तक की ख़ाक छान डाली और अब भी अगर कोई सूरत नज़र आजाती है तो क्या बताऊँ क्या हाल करता है, मगर बेटे की तरफ़ से ज़रा फ़िक्र नहीं। कहता है कि समझा बुझाकर इश्क़ की आग को ठंडा कर दो। तो क़ुर्रतुल-ऐन समझ जाओ। मुहब्बत के शोलों पर ख़ाक डाल दो, लेकिन मैंने भी दुनिया देखी है। अज़ीज़-ए-मन “न सब्र दर दिल-ए-आशिक़ न आब दर ग़र्बाल।” तुम्हारी जान दूभर हो तो सब्र-ओ-जब्र की तलक़ीन करूँ। ये कह कर झूट-मूट रोने लगे। शहज़ादे ने जो उमर को हमदर्द पाया तो बोला चचा आपको अगर मेरा ख़्याल है तो उस आफ़त-ए-रोज़गार का पता लगाइये और उसके शर्बत-ए-वस्ल से सेराब कीजीजिए। ख़्वाजा ने बिसूरते हुए मुँह से जवाब दिया जान-ए-अम मुझको तलाश करने में क्या उज़्र था मगर कुछ अर्ज़ नहीं करसकता। मेरे पास एक ख़रमोहरा नहीं कि किसी को ले देकर दरयाफ़्त करूँ और जब तक कुछ फ़ायदा न हो किसी को क्या पड़ी कि उसका पता बताए। ग़ैर मुल्क, ग़ैर मज़हब, बुरा ज़माना, बुरा वक़्त यहाँ के लोगों से दुश्मनी और ये भी दस्तूर है,
ख़्वाही कि दिल-ए-दिलबर-ए-मा नर्म शवद
वज़ पर्दा बुरुँ आयद–ओ-बे शर्म शवद
ज़ारी म-कुन–ओ-ज़ोर म-कुन ज़र ब-फ़रेश
ज़र बर सर-ए-फ़ौलाद नही नर्म शवद
मेहर सिपहर अय्यारी का ये अर्ज़ करना था कि शहज़ादा समझा ये हज़रत बग़ैर मुट्ठी गर्म किए कब टलते हैं, फ़ौराब दस हज़ार रूपया मंगवा आगे रखा और कहा इस वक़्त इतना तो हाज़िर है जब ख़बर आजाएगी इंशाअल्लाह दो-चंद और पेश करूँगा। ख़्वाजा वो रुपये दाखिल-ए-ज़ंबील मुबारक कर ख़िदमत-ए-उमरी नामदार में हाज़िर हुए और गुज़ारिश किया। पीर-ओ-मुर्शिद कमतरीन ने हर चंद समझाया हुस्न की बेवफ़ाई, हसीनों की कज अदाई। इश्क़ की ख़ाना ख़राबी, दिल लगाने का अंजाम बख़ूबी तमाम बताया मगर वो कब सुनते हैं। मालूम हुआ कि जब तक ये अच्छी तरह ख़ाक-ए-सहरा- ए-मुहब्बत न छाएंगे आराम से नहीं बैठेंगे। अगर हुक्म आली हो तो बंदा पता लगाकर कोई बंदोबस्त करे। अमीर-ए-नामदार ने फ़रमाया, भाई अगर तुमसे हो सके क्या बेहतर है और एक हज़ार अशर्फ़ी ख़्वाजा को दी कि ये ज़ाद-ए-राह है जल्द आने का क़सद करना। ख़्वाजा रुख़सत हो अपनी असली सूरत में कोतवाली चौतरा पर आए यानी वही नारीयल सा सर, टिकिया सा चेहरा, चिलग़ोज़ा सी नाक, ज़ीरा सी आँखें, बतासा सी थोड़ी, तिक्का से चंद बाल डाढ़ी के मगर सीधे, पोंगी से शाने, टोकरी सा सीना, सुतली से हाथ पाँव, मटका सा पेट, नाफ़ जैसे आबख़ोरा मटके पर ओंधा हुआ। और बान हाय अय्यारी से आरास्ता हुए। सामान-ए-सफ़र ज़ंबील से निकाला, ताज-ए-अय्यारी सर पर रखा। चेग़-ए-शहनशाही दुरुस्त किया। किसवतें रंगीं तंग-ओ-चुस्त बरमीं। दाम जनाब मेहतर इलियास का दोश पर। मुशकीज़ा-ए-ख़िज़्र ज़ैनब-ए-कतिफ़। गलीम अय्यारी कांधे पर। देव जामा हज़रत सफ़ी अल्लाह का पहना एक तोबर्रा जिसमें संग तराशीदा-ओ-ख़राशीदा भरे थे बराबर उनके लटकाया। नीमच-ए-बर्क़ दम। एक जोड़ी ख़ंजर-ए-आबदार की कमर में। गर्दा सिपर अय्यारी पुश्त पर। क़ुर्बान में कमान। हज़ार तीर का तरकश पीछे। दस्त बगुच-ए-अय्यारी बग़ल में। चर्ब मेला अय्यारी से हाथ चर्प। दो नलियां जिनमें हुबूब-ए-बे-होशी भरे जबड़ों में दबी। बेला हाए बेहोशी जेब हाए अय्यारी में। कमंद अय्यारी रेशम स्याह की बारीक दबलदार बाज़ुओं पर। निफ्त आतशबाज़ी घाइयों में। मोज़े विलाएती साह ताबा ज़ानू। एक एक जोड़ी किज़लिक की अंदर मोज़ों के, ग़रज़ ये कि हर तरह से लैस हो तलाश-ए-माशूक़ा-ए-बदी उल्ज़मां में रवाना हुए और रास्ता तै व पै करते चले जाते हैं और अब दीदा ख़्वाहिद शुद कि क्या होता है। आदाब अर्ज़ करता हूँ,
“वाह मीर साहब वाह, सुब्हान अल्लाह क्या कहना है।”
“जी पीर-ओ-मुर्शिद, मुझे क्या आता है।”
“मीर साहब, आपके दम से भी दिल्ली में शहर आबादी का लुत्फ़ आजाता है। इतने से मकान में माशा अल्लाह शेख़, सय्यद, मुग़ल, पठान सब ही तो मौजूद हैं। ये सूरतें यहाँ के सिवा और कहाँ देखने में आती हैं।”
“ख़ुदा रखे आप लोगों को, ये सब चहल पहल आप ही के क़दमों की है।”
लखनवी: क़सम है हज़रत अब्बास की। दास्तान भी ऐसी हुई कि जवानी याद आगई और नशे भी ख़ूब ही घुटे।
मिर्ज़ा जी: और चाय को नहीं कहते। क़सम अल्लाह की वो प्यारा रंग आया है कि जी चाहता है देखा ही करो। अपने हिसाबों गुलाब के तख़्ते की सैर कर रहे हैं।
मीर साहब: मिर्ज़ा साहब, मुसलमानी और ये आनाकानी। एक प्याली इधर भी इनायत हो।
मिर्ज़ा जी: मीर साहब चाय आपके कुत्तों को ये आपने क्या कहा। ज़रा पहले एक चुस्की लगा लो।
मीर साहब: अच्छा हमारे छोटे मियां को दीजिए।
रात ज़्यादा आगई थी। मैं चाय से इनकार कर और इस सारी मंडली को इसरार करता हुआ छोड़ घर रवाना हुआ।
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