मिर्ज़ा अज़ीम बेग़ चुग़ताई
अल्लाह बख़्शे मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुग़ताई भी अजब ख़ूबियों के आदमी थे। सदा के मरजीवड़े। पैदा हुए तो इतने नहीफ़-ओ-कमज़ोर कि रुई के पहलू पर रखे गए। बड़े हुए तो रोगी मरजीन। अल्लाह का दिया घर में सब कुछ मौजूद था। दधियाल भी जानदार थी और नन्हियाल भी सांवटी। उनके वालिद क़सीम बेग चुग़ताई यूपी में डिप्टी कलेक्टर थे। आबाई वतन आगरा था। यहीं उनकी जद्दी जायदाद भी थी। मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुग़ताई के नाना मुंशी उमराव अली थे जो अब से निस्फ़ सदी पहले के मशहूर नावल निगार थे। उनकी तसानीफ़ “रज़्म-ए-बज़्म” और “अलबर्ट मिल” एक ज़माने में बहुत मक़बूल थीं। मिर्ज़ा साहब के वालिद बड़े ठाट के आदमी थे। सर सय्यद की आँखें देखे हुए अलीगढ़ के इब्तिदाई ग्रेजूएट्स में से थे। अपने ज़माने के अच्छे खिलाड़ियों में शुमार होते थे। वर्ज़िश का भी शौक़ था। सवारी के लिए मुंह-ज़ोर से मुंह-ज़ोर घोड़े तलाश कर के रखते थे। बड़े ताक़तवर आदमी थे। एक बिल्ली ने घर वालों को बहुत आजिज़ कर रखा था। एक दिन वो उनके हाथ आ गई। हाथ उसकी कमर पर पड़ा। चाहते थे कि उसे घर से बाहर उछाल दें मगर वो कमबख़्त कलाई में लिपट गई। उन्हें भी ताव आगया। उसने अपने पंजों और दांतों से उनकी कलाई उधेड़ दी मगर उन्होंने भी अपने पंजे की गिरफ़्त इतनी सख़्त की कि उसकी हड्डी पसली एक हो गई और उसे उस वक़्त तक नहीं छोड़ा जब तक उसका दम न निकल गया। वैसे वो बड़े ख़ुश मिज़ाज आदमी थे और छोटे बड़े सबसे अच्छी तरह पेश आते थे।
चुग़ताई साहब चूँकि पैदा ही कमज़ोर हुए थे इसलिए और बच्चों के मुक़ाबले में उनकी तरफ़ वालिदैन की तवज्जो ज़्यादा रहती थी। लाड प्यार में पले। कुछ घर पर पढ़ा, कुछ इटावा के स्कूल में। उसके बाद अलीगढ़ से बी.ए. और एल.एल.बी. के इम्तिहानात पास किए। कॉलेज ही के ज़माने में नवाब मुज़म्मिल अल्लाह ख़ां के हाँ मुलाज़िमत भी करली थी। क्योंकि शादी हो गई थी और अख़राजात पूरे न होते थे। उसी ज़माने में मज़मून निगारी भी शुरू कर दी थी, बल्कि बच्चों की कहानी “कस्र-ए-सहरा” का पहला हिस्सा मैट्रिक पास करने से पहले ही लिख चुके थे। उसके बाक़ी दो हिस्से बाद में लिखे। मेहनती और ज़हीन बहुत थे। जिस्मानी कमज़ोरी की तलाफ़ी दिमाग़ी क़ुव्वत से हो गई थी। कॉलेज के ज़माने में इस्लामी तारीख़ के सिलसिले में मज़हब का भी मुताला कर डाला और हदीस-ओ-फ़िक़ह सब चाट गए। अलीगढ़ वालों की तरह ये भी आज़ाद ख़याली और मग़रबियत के दिलदादा थे। क़दामत पसंदों और और मज़हबी ख़याल वालों से उनके मुबाहिसे रहने लगे। उन्हें उसमें भी मज़ा आता था कि दूसरों को छेड़ें, सताएं, जलाएं। हदीसें अज़बर थीं। मुसतनद किताबों के हवाले याद थे। बड़े धड़ल्ले से क़ाइल कर देते थे। उसके बाद ये नौबत आ गई कि शर्त लगा कर बहस करते थे। मसलन “अगर तुम जीत गए तो हम डाढ़ी रख लेंगे और अगर हम जीत गए तो तुम्हारी डाढ़ी मूंड लेंगे।” बहुत से तो शर्त की नौइयत ही से घबराकर भाग जाते और अगर कोई हिम्मत करके जम गया तो समझो कि उसकी शामत आ गई। सब लड़कों को नेवता दे दिया जाता। शाम को एक जम-ए-ग़फ़ीर की मौजूदगी में बहस शुरू होती। किताबें खोली जातीं, दलील की तस्दीक़ या तर्दीद की जाती। आख़िर में न जाने क्या होता कि चुग़ताई ही हमेशा जीत जाते। फिर किसी मनचले के हाँ से शेव का सामान मंगाया जाता और निहायत एहतियात से डाढ़ी मूंड कर महफ़ूज़ करली जाती। इस तरह उन्होंने कई डाढ़ियाँ जीती थीं। ऐसा भी होता था कि जीती हुई डाढ़ी बेच दी जाती थी। वो इस तरह कि हारे हुए मौलाना से उसकी मुनासिब क़ीमत ले ली जाती और उनकी डाढ़ी बख़्श दी जाती। इस क़िसास से यार लोग मिठाई मंगाते और सबको शीरीनी तक़सीम की जाती। ऐसे ही एक मुबाहिसे में चुग़ताई साहब एक दफ़ा हार गए। उन्हें डाढ़ी रखनी पड़ी। उस वक़्त की एक तस्वीर भी थी जिसे मैंने “कामरान” के सर वरक़ पर छापा था। ख़ुदा जाने फिर क्या कफ़्फ़ारा अदा करके उससे नजात पाई।
चुग़ताई साहब की शादी रामपुर के एक पठान घराने में हुई थी जो मज़हब का बड़ा सख़्ती से पाबंद था। चुग़ताई साहब ने शादी के बाद पहला काम ये किया कि बीवी का बुर्क़ा उतरवा दिया और उन्हें अपने साथ खुले बंदों को लाना ले जाना शुरू कर दिया। इसी वज़ा से उन्हें अपनी ससुराल रामपुर भी लेकर पहुंचे तो वो लोग बहुत बिगड़े। नौबत यहाँ तक पहुंची कि उनकी और ससुराल वालों की तनातनी हो गई। मुसीबत बेचारी बेगम चुग़ताई की! बाप भाइयों को ये ज़ोअम कि हमारी लड़की भला हमारे कहने से बाहर कैसे हो सकती है। उधर बिगड़े दिल मिर्ज़ा कि चाहे जान चली जाए आन न जाने पाए। अड़ गए कि साहब वही होगा जो हम कहते हैं। सरफिरे पठानों ने कहा, ऐसा हरगिज़ हो ही नहीं सकता। कुंबे बिरादरी के सब बड़े बूढ़े जमा हुए। सलाह हुई कि लड़की को घर बिठा लिया जाए और दामाद साहब को बयक बीनी-ओ-दोगोश रवाना कर दिया जाए। चुनांचे मिर्ज़ा साहब से कह दिया गया कि ठंडे ठंडे चलते फिरते नज़र आइए। मिर्ज़ा खौल गए मगर क्या करते, “बोले मेरी बीवी से और पूछ लीजिए। अगर वो भी यहाँ रहना चाहती हैं तो ख़ुशी से रहें मैं चला जाऊँगा, और अगर वो मेरे साथ चलना चाहती हैं तो आप तो आप दुनिया की कोई ताक़त उन्हें नहीं रोक सकती।” बात माक़ूल थी। समझ में आगई। लड़की से पूछा तो वो नेक-बख़्त चादर ओढ़ कर खड़ी हो गई। उस ग़रीब को तो मरना भरना था। माँ बाप के पखुवे से लगी कब तक बैठी रहती? घर वालों ने कहा बी.बी! हमारी बात नीची करके जा रही हो तो फिर कभी इस दहलीज़ पर न आना। आज से तुम हमारे लिए और हम तुम्हारे लिए मर गए।” वो बेचारी धारों रोती मियां के साथ होली और मुद्दतों मैके न गई।
तालीम से फ़ारिग़ होने के बाद चुग़ताई साहब ने किताब “क़ुरआन और पर्दा” लिखी, फिर चंद साल बाद “हदीस और पर्दा” और उसके कुछ अरसे बाद “रक़्स-ओ-सुरूद। इसी अर्से में कुछ लोगों के समझाने और कुछ अपने तल्ख़ तज्रिबात की वजह से उन्होंने मज़हब की तरफ़ से अपनी तवज्जो हटा कर अदब की तरफ़ करली और 1929ई. से उनके अदबी मज़ामीन और अफ़साने शाए होने लगे।
जनवरी 30ई. में उनका अफ़साना “अंगूठी की मुसीबत” नैरंग-ए-ख़याल के सालनामा में शाए हुआ। इस अफ़साने के छपते ही हमारे अदबी हलक़ों में एक भूंचाल सा आ गया। जिसको देखो उसकी ज़बान पर उसी का ज़िक्र। बाद में चुग़ताई साहब ने वो बेशुमार ख़ुतूत मुझे दिखाए जो उस अफ़साने के बारे में उनके पास आए थे। बेशतर ख़ुतूत तौसीफ़ी थे लेकिन बा’ज़ ख़ुतूत में नफ़्सियाती कैफ़ियात की रोशनी में अफ़साने के बा’ज़ मुक़ामात की तौज़ीह चाही थी। बा’ज़ में शऊर और ला-शऊर की बहस की गई थी। एक ख़ातून ने पूछा कि हीरो जब हीरोइन से पूछता है “भोलूगी तो नहीं... भूलोगी तो नहीं... भोलूगी तो नहीं...?” तो उसमें जो वक़्फ़े हैं क्या आप बताएंगे कि ये लज़्ज़-ए-इतशाम से मग़्लूब होने के हैं? चुग़ताई साहब बोले “हमें आज तक यही मालूम नहिं। कि लज़्ज़त-ए-इतशाम क्या होती है।” चुनांचे हम दोनों ने लुग़त में उसके माने देखे और चुग़ताई साहब हंसे कि मिरे तो वहम में भी ये बात न आई थी। लोग भी क्यूँ क्या तौज़ीहें कर लेते हैं।
इस अफ़साने के बाद चुग़ताई साहब के चंद और अफ़साने दूसरे रिसालों में छपे मगर वो इस तर्ज़ के नहीं थे। उस साल उससे बेहतर और कोई अफ़साना छपा ही नहीं हालाँकि उस ज़माने में बड़े बड़े अफ़साना निगार तक़रीबन सभी ज़िंदा थे और लिख रहे थे। इसके कोई एक साल बाद मेरे पास एक ख़त अलीगढ़ से आया। उसमें चुग़ताई साहब का ख़त और दो अफ़साने थे। ख़त में बड़ा ख़ुलूस था और कस्र-ए-नफ़सी भी। साक़ी देखने की ख़्वाहिश भी ज़ाहिर की थी। उनका ख़त पा कर बेहद ख़ुशी हुई और उसी दिन से उनसे मिलने को जी चाहने लगा। ये अफ़साने थे “टिकेट चेकर” और “कोलतार।” दूसरा अफ़साना बहुत मशहूर हुआ, और जब उनसे पहली मुलाक़ात हुई तो हमने मन्सूबा बनाया कि “कोलतार” का पूरा नावल कैसे मुरत्तिब किया जाए।
मिर्ज़ा साहब का पहला ख़त मिलने के बाद उनसे दस साल तक ख़त-ओ-किताबत का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि शायद ही कोई हफ़्ता नाग़ा होता हो। उन ख़तों में दुनिया ज़माने की बातें होती थीं। और जब ख़तों से जी न भरता तो वो दिल्ली चले आते या मुझे उनके पास जाना पड़ता।
पहला ख़त भेजने के दो तीन महीने बाद उनका ख़त आया कि मैं दिल्ली आ रहा हूँ और रात की फ़ुलां गाड़ी से, बीवी भी साथ होगी। मिर्ज़ा साहब की तस्वीर हम सब देख चुके थे। रात को मैं, अंसार नासिरी और फ़ज़ल हक़ क़ुरैशी इन्हें लेने स्टेशन पहुंचे। रेल आई, एक एक डिब्बा छान मारा। चुग़ताई साहब का कहीं पता न चला। जब गाड़ी बिल्कुल ख़ाली हो गई तो हम स्टेशन से बाहर निकल आए। सामने सड़क पर से एक ताँगा गुज़रा। उसमें एक ख़ातून और एक साहब दिखाई दिए। फ़ज़ल हक़ ने कहा वो जा रहे हैं चुग़ताई साहब! मैंने और अंसार ने चौंक कर उन्हें देखा। कोई बुढ्ढा चरमराया सा आदमी था। मोटी सी ऐनक लगाए, फिर हम सब एक दूसरे को देख कर हंस पड़े। अगले दिन सुब्ह मैं घर ही में था कि इत्तिला पहुंची चुग़ताई साहब मर्दाने में आए बैठे हैं। मैं लपक कर पहुंचा तो देखा कि बैठक में वही ताँगे वाला बुढ्ढा बैठा है। ग़ौर से देखा तो उसे तस्वीर से कुछ मुशाबेह पाया। उसने कहा, “आप हैं शाहिद साहब?” मैंने कहा, “जी हाँ।” और वो मुझसे चिमट गए। बोले, “अमां मैं तो समझा था कोई ख़ौफ़नाक शक्ल का मौलवी होगा। मौलवी शाहिद अहमद, तुम तो अच्छे ख़ासे आदमी हो।” फिर ख़ूब हंसे तो मैंने देखा कि नीचे के चार दाँत ग़ायब। ज़र्द चेहरा, आँखों के कोनों पर बेशुमार झुर्रियां, कल्ले पिचके हुए। होंटों के दोनों तरफ़ क़ौसीन। लबों पर लाखा सा जमा हुआ। छोटी छोटी कतरी हुई मूँछें, डाढ़ी साफ़, दुबला पतला सा शख़्स ऐनक के मोटे मोटे शीशों में से मुझे झाँक रहा है। मैंने कहा, “मिर्ज़ा साहब! आप अपनी तस्वीर से बिलकुल नहीं मिलते। कल रात को आपको ताँगे में जाते देखा मगर हमने आपको न पहचाना। कहाँ ठहरे? भाबी कहाँ हैं? मेरे घर का पता तो आपको मालूम ही था। यहाँ सीधे क्यूँ न चले आए?” बोले, “मैंने भी तुम्हें स्टेशन पर देखा था मगर तुम्हें जानता न था। तिब्बिया कॉलेज में मेरी एक बहन हैं, उनके हाँ चला गया। अब तुम्हारा घर देख लिया, शाम को आजाऊँगा बीवी को लेकर।” उसके बाद उनसे रिसालों और मज़मून निगारों और मज़्मूनों की बातें होती रहीं। अंदाज़ा हुआ कि मिर्ज़ा साहब की क़ुव्वत-ए-गोयाई भी बहुत बढ़ी हुई है। दूसरे को हाँ हूँ से आगे बढ़ने की ज़हमत नहीं देते। मगर बातें इतनी दिलचस्प कि घंटों सुनो और जी न भरे।
शाम को मिर्ज़ा साहब हस्ब-ए-वादा मा-बेगम के आगए। रात को सब अहबाब जमा हुए और ख़ूब क़हक़हे चहचहे रहे। रात गए अहबाब रुख़्सत हुए तो हम सोने के लिए लेटे, मिर्ज़ा साहब, मैं और मेरे मँझले भाई। मिर्ज़ा साहब बोलते रहे। मैं सुनता रहा। वो बोलते रहे, में सो गया। सुबह अज़ानों के वक़्त उन्होंने आप ही आप फिर बोलना शुरू कर दिया। देखा कि हूँ हाँ भी ग़ायब है तो मेरा शाना हिलाकर बोले, “अरे भई तौ बतउन नसूह का पोता आख़िर कब तक ख़्वाब देखता रहेगा?” नाचार जाग कर उनकी बातें सुनने लगा। बोले, “सुनते हो, मैं अभी बैत-उल-ख़ला गया तो एक अफ़साने का प्लाट समझ में आगया। आज जाने से पहले तुम्हें हम वो अफ़साना लिख कर दे जाएंगे। लो बस अब उठ बैठो। मुँह हाथ धो डालो।”
इतने में कि मैं तैयार हूँ और नाशता आए चुग़ताई साहब ने आधा अफ़साना लिख डाला। नाश्ते के बाद कोई साहब उनसे मिलने आगए। मैं टल गया। कोई घंटा भर के बाद आया तो उनके पास अफ़साना मुकम्मल था और वो मेरे मँझले भाई से बैठे बातें कर रहे थे। वो पुलिस के आदमी, अदब के झमेलों से अल्लाह ने उन्हें महफ़ूज़ रखा था। बोले, “लो मियां संभालो इन्हें। ख़ूब आदमी हैं तुम्हारे चुग़ताई साहब भी। मियां ग़ज़ब ख़ुदा का सारी रात बातें करते रहे तुम दोनों।” वो जब सोए थे तो हम बातें कर रहे थे, जब जागे तो हम बातें कर रहे थे। समझे कि हम सारी रात ही बातें करते रहे। मिर्ज़ा साहब इस लतीफ़े से बहुत महज़ूज़ हुए।
इस के बाद उन्होंने अपने अफ़साने की शान-ए-नुज़ूल बताई कि “कल जो तुमने मुझे स्टेशन पर नहीं पहचाना तो ख़ासी परेशानी हुई। मगर वाक़ई मेरी तस्वीर मुझसे नहीं मिलती और भई वो तस्वीर किस काम की जो असल से मिल जाए? यह अफ़साना अपनी तस्वीर पर लिखा है। इसका उनवान है “ये किस की तस्वीर है?” इसके बाद उन्होंने अफ़साना सुनाया। हैरानी हुई कि क़लम बरदाश्ता ऐसा शगुफ़्ता अफ़साना! और इसके बाद तो मैंने उनकी ये कैफ़ियत देखी कि बातें भी करते जा रहे हैं और अफ़साना भी लिख रहे हैं। अदालत में मुक़द्दमा भी पेश कर रहे हैं और अफ़साना भी लिखा जा रहा है और बाद में मालूम हुआ कि उस अफ़साने के कुछ वरक़ तो घर आगए और कुछ मुल्ज़िम की मसल में लग कर अदालत के फाइल में चले गए।
एक दफ़ा अपनी वकालत के ज़माने में मुझे जोधपुर बुलाया। मैंने लिखा अगले हफ़्ते आऊँगा। कुछ दिल्ली से मंगाना हो तो लिखिए। ख़त आया और कुछ लाओ न लाओ, पाए ज़रूर लाना। मुद्दतें हो गईं खाए हुए। दिल्ली से जोधपुर कोई चौबीस घंटे का रास्ता था। मैंने सोचा के पाए ले जाऊँगा, जाड़े के दिन हैं, ख़राब नहीं होंगे। इत्तफ़ाक़ से एक अज़ीज़ जयपुर के आए हुए थे। उन्होंने कहा, “स्टेशन ही पर धर लिए जाओगे। जयपुर, जोधपुर, किसी हिंदू रियासत में गाय नहीं होती। और लेने के देने पड़ जाएंगे।” इसलिए इरादा मुल्तवी कर दिया। मगर जोधपुर पहुँचते ही मिर्ज़ा साहब ने पहला सवाल यही किया, “पाए लाए हमारे लिए?” मैंने न लाने की वजह बताई तो बोले, “अरे भई हम वकील हैं, अगर तुम पकड़े जाते तो हम तुम्हें जुर्माना देकर छुड़ा लाते, अभी हमारे एक मुवक्किल की कार की टक्कर एक गऊ माता से हो गई थी। उन मोहतरमा की टांग टूट गई। अदालत ने बारह रुपये जुर्माना किया।” मैंने कहा, “आपकी वकालत यहाँ कुछ चल भी रही है?” कहने लगे, “क्यूँ नहीं? हमारा रजिस्टर देखो।” ये कह कर अपना रजिस्टर निकाल कर दिखाने लगे। किसी से पेशगी पांच, किसी से दस वुसूल हुए थे। पच्चास पच्चास साठ साठ बाक़ी में डाल रखे थे। बहुत चमक कर बोले, “पिछले महीने चालीस रुपये की आमदनी हुई, छः सौ बक़ाये में हैं।” मैंने कहा, “माशा अल्लाह, ख़ूब चल रही है।” बोले, “मियां, तुम याफ़्त को देखते हो, बक़ाये को देखो। “हज़ारों पे नौबत है, हज़ारों पर।” कोई मुवक्किल आगया तो जोधपुरी मुंशी को बुलाकर कहा, “उससे कह दो कि वकील साहब के पास काम बहुत है। कल कचहरी में मिले। अरे तुम देखते नहीं हमारे दोस्त दिल्ली से आए हुए हैं, मुवक्किल तो और भी आजाएगा। ये कब कब हाथ आते हैं।” और फिर मिर्ज़ा साहब की दिलचस्प बातें शुरू हो जातीं और बातें ख़त्म होने न पातीं कि वो अपने किसी नावल का मुसव्वदा सुनाना शुरू कर देते। उस ज़माने में उन्होंने अपना नावेलट “विम्पायर” लिखा था। बोले, “मैं पढ़ता हूँ, तुम इसकी ज़बान ठीक करते जाओ।” मैंने कहा, “आपकी ज़बान ऐसी नहीं होती कि मैं उसे ठीक करूँ।” कहने लगे, “नहीं, मुझे अपनी कमज़ोरी मालूम है। मैं ज़बान का बिल्कुल ख़याल नहीं रखता, बस लिखे चला जाता हूँ।” मैंने कहा, “तो आप ये मुसव्वदा मुझे दीजिए, मैं इसकी नज़र-ए-सानी करदूँगा।” कहने लगे, “अच्छा सुन तो लो। अभी मुकम्मल कहाँ हुआ है, प्लाट आ कर एक जगह अड़ गया है। आगे नहीं चलता।” फिर दो घंटे तक वो सुनाते रहे और मुसव्वदा ख़त्म हो गया। पूछने लगे, “बताओ अब इसे ख़त्म कैसे करें?” मैंने कुछ बताया, उनकी समझ में आगया, बहुत ख़ुश हुए। कहने लगे, “बस भई कल की रवानगी मुल्तवी करो तो हम अपना ये नावल मुकम्मल करके तुम्हें देदेंगे।” इस क़दर लजाजत से रोकते थे कि मुझे शर्मिंदगी होने लगती थी। उन्हें नींद बहुत कम आती थी। रात को बारह एक बजे तक जागते थे। इसलिए मैं सुबह सात आठ बजे तक उठता था। फिर दोपहर को ज़रूर सोता था। ग़रज़ मैं तो सोता ही रहा और उन्होंने “विम्पायर” मुकम्मल कर दिया और एक दो अफ़साने भी लिख कर थमा दिए।
चुग़ताई साहब के और सब अज़ीज़ों को देखकर कहना पड़ा कि “ईं ख़ाना तमाम आफ़ताब अस्त।” बड़े भाई मिले, ख़ूब तंदुरुस्त-ओ-तवाना। मालूम हुआ कि आप भी थर्ड क्लास वकील हैं। नीचे के चार दाँत ग़ायब। मिर्ज़ा साहब से छोटे भाई मिले। क़वी उलजुस्सा, मिज़ाजन सूफ़ी। नीचे के चार दाँत ग़ायब। उनसे छोटे भाई बिल्कुल चुग़ताई साहब की शक्ल के मगर अच्छी सेहत। “आप क्या करते हैं?” फ़रमाया, “रहता हूँ।” नीचे के चार दाँत ग़ायब। सबसे छोटे भाई क़द में सबसे बड़े, माशा-अल्लाह देव ज़ाद, ये लम्बा तड़ंगा जवान। मालूम हुआ कि आपको दिक़ है। नीचे के चार दाँत ग़ायब। मुझसे न रहा गया मैंने मिर्ज़ा साहब से पूछा, “ये क्या मुसीबत है कि सबके चार चार दाँत ग़ायब?” ? कहने लगे एक दाँतों के डाक्टर ने बताया था कि “इऩ्ही चार दाँतों से पायोरिया होता है। बस सबने उखड़वा डाले।” जब इस्मत चुग़ताई मिलीं तो सबसे पहले मैंने यही देखा कि कहीं उनके भी चार दाँत तो ग़ायब नहीं? बहम्दुलिल्लाह उनके सारे दाँत बरक़रार थे।
एक दफ़ा फिर ख़त लिखा कि “मिलने को बहुत जी चाहता है, आ जाओ। किसी के नौकर थोड़ी हो। तुम आओगे तो तुम से डिस्कस करके कई अफ़साने लिखेंगे।” मैं पहुंचा। सेहत पहले से बदतर थी। खांसी ज़्यादा थी। मैंने कहा, “आप अपनी सेहत की तरफ़ से ग़फ़लत कर रहे हैं।” कहने लगे, “डाक्टर कहते हैं तुम्हें दिक़ है। मैं कहता हूँ मुझे दिक नहीं, दमा है।” उनकी ज़िद्दी तबीयत ने डाक्टरों की राय मानने से भी इनकार कर दिया था। मनमानी दवाएं खाते रहते थे। घर वालों में से भी किसी की न सुनते थे बल्कि जो कुछ कोई कहता तो अदबदा कर उसके ख़िलाफ़ करते और तकलीफ़ उठाते। भाबी भी उनकी ज़िद से परेशान होती थीं मगर उनकी एक भी पेश न जाती थी। बेचारी ख़ामोशी से सारे घर का काम भी करतीं, बच्चों की निगरानी और परवरिश भी और शौहर की ख़िदमत भी। और क्या मजाल जो कभी पेशानी पर शिकन तक आजाए।
दो तीन अफ़साने तो चुग़ताई साहब ने मेरे लिए पहले ही से लिख रखे थे। कई अफ़सानों के उन्होंने प्लाट सुनाए। सब अच्छे, एक से एक उम्दा। एक मारवाड़ का रूमान सुनाया... सवानेह की रूहें... ये सबसे ज़्यादा मुझे पसंद आया। कहने लगे तो लाओ पहले उसी को लिख डालें और काग़ज़ क़लम लेकर लिखना शुरू कर दिया। मैं बैठा वाक़ई मक्खियां मारता रहा क्योंकि उस साल वहाँ सारी दुनिया की मक्खियां आ गई थीं। एक घंटे में उन्होंने कई सफ़े लिख डाले, फिर बोले, “मियां पट्टा खेल चुके, लो ज़रा अब तुम क़लम लो, मेरा हाथ थक गया।” मैंने क़लम संभाला। वो बेतकल्लुफ़ बोलते रहे। मैं लिखता रहा। दो तीन सफ़े लिख कर मैंने कहा, “बस जी, मैं तो लिख चुका। मुझे तो नींद आ रही है। मोरग्ग़न खाने खिलाते हो तो सोने भी दो।” कहने लगे, “अच्छा तो मच्छरदानी लगा कर सो रहो।” अस्र के वक़्त उन्होंने जगाया, “क्या आज चाय नहीं पियोगे?” उठना पड़ा, बोले, “अफ़साना ख़त्म हो रहा है। शाम तक ख़त्म हो जाएगा।” मैं तो चाय पी कर किसी के साथ टल गया। मिर्ज़ा साहब बैठे लिखते रहे। चराग़ जले घर वापस पहुंचा तो बड़े ख़ुश ख़ुश बैठे हुए थे। कहने लगे, “लो भई ये अफ़साना।” और कोई चालीस फ़ुल स्केप का पुलंदा मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। मैंने कहा, “शाबस है मिर्ज़ा साहब आपकी हिम्मत को। बस कल सुबह की गाड़ी से मैं चला जाऊँगा।” जाने के नाम से उनका मुँह उतर गया। कहने लगे, “न जाने क्या बात है तुम आ जाते हो तो मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं बीमार नहीं हूँ। कल न जाओ, हम तुम्हें दो अफ़साने और लिख देंगे।” उन्होंने ये बात कुछ ऐसे अंदोहनाक लहजे में कही कि मेरा दिल भर आया। मैंने कहा, “अच्छा परसों चला जाऊँगा।” बच्चों की तरह ख़ुश होने लगे। मुझे थोड़ी देर बाद ख़याल आया कि मेरे पास चुग़ताई साहब के तक़रीबन सौ सफ़े के मज़ामीन तो हो ही जाएंगे, अगर सौ सफ़े के और हो जाएं तो चुग़ताई नंबर ही क्यूँ न छाप दिया जाए। इतने बड़े मज़मून निगार और ऐसे प्यारे दोस्त की एक अच्छी यादगार ही क़ाएम हो जाएगी। मैंने उनसे कहा कि “मिर्ज़ा साहब, तो फिर आप यूं कीजिए कि कल तो आप मुझे जो कुछ लिख कर दे सकें दे दें, उसके बाद पन्द्रह बीस दिन में मुझे चंद मज़ामीन और लिख दीजिए। मैं चुग़ताई नंबर छापे देता हूँ।” ये तजवीज़ उन्हें पसंद आ गई। पूछा, “बिक जाएगा?” मैंने कहा, “न बिकने की कोई वजह नहीं।” कहने लगे, “एक हफ़्ते में तुम्हें सब मज़ामीन पहुंच जाएंगे।” मैंने चंद तज्वीज़ें उन्हें बताईं कि इस इस तरह के मज़ामीन ज़रूर लिखिए मसलन एक-आध ग़मनाक अफ़साना, दो एक मुकालमे या ड्रामे और एक मज़मून ये कि “मैं मज़मून कैसे लिखता हूँ।” कहा, “ये सब हो जाएगा।”
अगले दिन दो मज़मून तो उन्होंने लिख कर दे दिए और बीसियों प्लाट सुनाए। फिर कहने लगे “लिखते लिखते मेरा हाथ थक जाता है। अगर कोई शॉर्ट हैंड में लिखने वाला मिल जाए तो मैं कई नावल बोल दूं।”
अगले दिन सुबह-सवेरे मैं उठ बैठा। बिस्तर लपेटने का इरादा कर रहा था कि मिर्ज़ा साहब आ गए। अफ़्सुर्दगी चेहरे से ज़ाहिर थी। कहने लगे, “अरे भई सुनते हो, आज और ठहर जाओ। सारे मज़ामीन साथ ही न लेते जाओ?” दिल कट गया उनके इस ख़ुलूस को देखकर। मैंने कहा, “अगर आपको मेरे ठहर जाने से ख़ुशी होगी तो मैं ज़रूर ठहर जाऊँगा। मगर मुझे ये गवारा नहीं कि आप मेरे लिए मरते रहें। पंद्रह दिन में तो ये मज़ामीन लिखे जाएंगे जो मेरे पास हैं। बाक़ी आप फिर भेजते रहिएगा।” बोले, “अरे भई तुम नहीं जानते कि तुम्हारे यहाँ होने से मेरी क्या कैफ़ियत है। सच कहता हूँ मैं बिल्कुल तंदुरुस्त हो गया हूँ। भूक लगने लगी, ख़ुराक दुगनी हो गई। जी चाहता है कि लिखूँ और लिखता ही रहूं। मैं उस वक़्त से डर रहा हूँ कि तुम चले जाओगे तो मुझसे एक लफ़्ज़ भी नहीं लिखा जाएगा और फिर बीमारी मुझे दबोच लेगी।” मैंने उनको बहलाने के लिए कहा, “अब तो आप पहले से बहुत अच्छे हैं। मैं दिल्ली जाकर चंद यूनानी मुरक्कबात आपको भेजूँगा, उनसे रही सही कमज़ोरी भी जाती रहेगी।” मगर वो फीकी सी हंसी हंस कर रह गए और बोले, “बस तो आज तुम नहीं जा रहे?” मैंने कहा, “नहीं!।” जल्दी जल्दी भाबी से जाकर कहा, “शाहिद साहब आज नहीं जा रहे। आज उन्हें जोधपुर की सैर कराई जाएगी। ज़रा तगड़ा नाशता करा दो आज।” नाशते के बाद किसी दोस्त की कार मँगवाई। शहर का एक चक्कर उसमें लगाया। फिर एक पुराना क़िला दिखाया। एक नया महल तैयार हो रहा था, वो दिखाया। एक अज़ीज़ थे, उनसे मिलवाया। दोपहर को घर आए, खाना खाया। बातें करते करते मैं तो सो गया और उन्होंने इतनी देर में दो छोटे छोटे मज़मून लिख लिए। कहने लगे, “आज रात को तुम्हें गाना भी सुनवाया जाएगा।” मैंने कहा, “आपको तो उससे नफ़रत है।” बोले, “तुम्हें तो नहीं है। एक हिंदू पक्का गाना गाता है, उसे बुलवाया है।” वक़्त अच्छा गुज़रा। सुबह नाशते पर फिर कुछ रोकने की तमहीद उठाई थी कि भाबी ने कहा, “क्यूं आप उन्हें परेशान करते हैं। घरवाले परेशान होंगे कि तीन दिन को कह कर गए थे, आज छः दिन हो गए।” कहने लगे, “अरे साहब, ये किसी के नौकर तो हैं नहीं कि इनकी हाज़िरी हो। हम यहाँ से इनके घर तार दिए देते हैं। इन्हें आख़िर किस बात का फ़िक्र है?” भाबी शायद कुछ और कहतीं मगर बीच में मिर्ज़ा साहब का छः साल का बच्चा तेजू बोल पड़ा, “अम्मां ये दिल्ली में क्या करते हैं?” भाबी ने कहा, “कुछ भी नहीं।” बच्चे ने कहा, “तो फिर ये खाते कहाँ से हैं?” हम सब हंस पड़े और वो बात भी उड़ गई। चलते वक़्त मिर्ज़ा साहब ने कहा “वादा करो कि फिर जल्दी आओगे।” मैंने कहा, “जब आप याद फ़रमाएँगे हाज़िर हो जाऊंगा।”
नवाब साहब जावरा ख़बर नहीं कब से चुग़ताई साहब की क़दरदानी पर माइल थे। कुछ अरसे बाद सुना कि नवाब साहब ने उन्हें जावरा बुला कर चीफ़ जज बना दिया। मिर्ज़ा साहब ने जावरा बुलाया। मैं वहाँ भी गया। निहायत आलीशान कोठी उन्हें मिली हुई थी। चुग़ताई साहब बहुत बड़े ओहदेदार थे और नवाब साहब के मिज़ाज पर भी चढ़े हुए थे। मुझसे कहा कि “नवाब साहब से कब मिलोगे?” मैंने कहा, “मैं इतने बड़े आदमियों से नहीं मिलता जिनसे मिलकर मुझे ज़िल्लत महसूस हो। मिर्ज़ा साहब ने कहा अरे भई तुम्हारे दादा के तो बड़े क़द्रदान हैं ये नवाब। मैंने यहाँ लोगों से सुना है कि नवाब साहब एक दफ़ा ऐसे बीमार पड़े कि उनके जीने की आस न रही। उन्होंने ख़्वाब में देखा कि कोई बुज़ुर्ग कह रहे हैं “मौलवी नज़ीर अहमद का तर्जुमा-ए-क़ुरआन शाए करो। तुम अच्छे हो जाओगे।” उन्होंने तुम्हारे वालिद से इजाज़त मंगवाई और दो जिल्दों में सिर्फ़ तर्जुमा अपने छापाख़ाने से शाए किया और वाक़ई अच्छे हो गए। तो वो तुमसे मिलकर बहुत ख़ुश होंगे।” मैंने कहा, “और कुछ ख़ैरात भी मुझे देंगे।” मिर्ज़ा साहब ने कहा, तो फिर क्या हुआ?” मैं ने कहा, “मुझे माफ़ फ़रमाइये, मैं तो सिर्फ़ आपसे मिलने आया हूँ। मेरे तो नवाब या बादशाह जो कुछ हैं आप हैं।” मगर मिर्ज़ा साहब ने मेरी इस बात को कुछ पसंद नहीं किया और दिल में शायद कुछ नाराज़ भी हुए।
जावरा में मिर्ज़ा साहब की सेहत और भी ज़्यादा ख़राब रहने लगी। वहाँकी मर्तूब आब-ओ-हवा से उनकी सांस की शिकायत और बढ़ गई और सेहत गिरती ही चली गई। शायद मुश्किल से दो साल जावरा में रहे होंगे, डाक्टरों ने मश्वरा दिया कि “आप जोधपुर वापस चले जाइये वरना आप यहाँ बहुत जल्द मर जाएंगे।” मिर्ज़ा साहब बीमारी का उज़्र करके जोधपुर चले आए और यहाँ से इस्तीफ़ा भेज दिया। वकालत का काम फिर शुरू किया मगर बदन में जान न होने की वजह से वकालत ठस ही रही। इसलिए अपनी किताबें छापने का काम ख़ुद शुरू कर दिया था।
अब से कोई पच्चास साल पहले मौलवी नज़ीर अहमद साहब ने एक किताब “उम्हात-उल-उम्मा” लिखी थी। ये किताब एक दरीदा दहन पादरी की किताब के जवाब में लिखी गई थी। उसने आँहज़रत सलअम पर बा’ज़ बड़े बेहुदे एतराज़ात किए थे जिनमें ख़ासतौर पर इज़दवाज-ए-मुतह्हरात के सिलसिले में नागुफ़्ता बह बातें कही थीं। उस किताब का एक जवाब सर सय्यद अहमद ख़ां ने लिखा था और एक मौलवी नज़ीर अहमद ने। यूं तो ये किताब शुरू से आख़िर तक एक इल्मी और तारीख़ी किताब है और अपने मवाद के लिहाज़ से निहायत क़ाबिल-ए-क़दर भी। लेकिन मौलवी साहब ने एहतिराम के अलफ़ाज़ किसी नाम के साथ उसमें नहीं लगाए हैं और बा’ज़ जगह फ़िक़रे भी ऐसे लिख गए हैं जो ज़बान के एतिबार से चाहे कितनी ही टकसाली क्यों न हों, रसूल मक़बूल अह्ल-ए-बैत के अदब-ओ-एहतिराम के लिहाज़ से क़ाब़िल-ए-एतिराज़ समझे गए। मौलवी साहब इस पैराए बयान का जवाज़ यूं पेश करते थे कि चूँकि एक ईसाई पादरी इस किताब का मुख़ातब है, इससे उनकी ज़रूरत नहीं समझी गई। ये तौज़ीह सही हो या ग़लत यहाँ इस से बहस नहीं। हुआ ये कि हमारे उल्मा ने इस किताब को सोख़्तनी और मौलवी साहब को काफ़िर क़रार दिया। मुसलमानों के एक बड़े ज़िम्मेदार लीडर ने रफ़ा-ए-शर के लिए उस किताब के सारे नुस्ख़े मौलवी साहब से अपनी तहवील में ले लिए और मौलवी साहब के बग़ैर इजाज़त उन्हें उल्मा के जलसे में ले जा कर जलवा दिया। क़िस्सा मुख़्तसर उस नागवार वाक़िआ के बाद मौलवी साहब तीन चार साल ज़िंदा रहे मगर उन्होंने एक लफ़्ज़ भी नहीं लिखा। शामत-ए-आमाल उस किताब का नुस्ख़ा कहीं से मेरे हाथ लग गया और मैंने ये सोच कर कि एक अच्छी किताब से मुसलमान क्यों महरूम रहें, उसे जूं का तूं छाप दिया। उसका छपना था कि फिर हमारे उल्मा ने उसके ख़िलाफ़ तहरीक शुरू कर दी। हुकूमत पर ज़ोर डाला कि किताब ज़ब्त कर ली जाए। हुकूमत को भला क्या ग़रज़ पड़ी थी कि ख़्वाह-मख़्वाह इस झगड़े में पड़े? जब उधर से कामयाबी न हुई तो मुझ पर बुज़ुर्गों से दबाव डलवाया गया। ये भी नाकाम रहा तो क़त्ल की धमकियाँ दी गईं और हर शहर में और दिल्ली में इसके ख़िलाफ़ जलसे होने लगे। चुग़ताई साहब ने मुझे जोधपुर से लिखा कि सारी किताब मुझे भेज दो और ऐलान कर दो कि किताब मेरे पास है जिसमें हिम्मत हो मुझसे लेले। मैंने उन्हें दो सौ जिल्दें भेज दीं कि महफ़ूज़ हो जाएं और किताब की इशाअत रोक देने का ऐलान कर दिया। मुसलमानों ने मुझे न सिर्फ़ माफ़ कर दिया बल्कि ख़ुश भी हुए कि चलो ग़लती इंसान ही से होती है। ये क्या कम है कि किताब की इशाअत बंद करके उसने अपना माली नुक़्सान कर लिया। उधर मिर्ज़ा साहब की ज़िद्दी तबीयत ने ज़ोर मारा और उन्होंने एक मुरासला “इन्क़िलाब” लाहौर में छपवा दिया कि “उम्हात-उल-उम्मा” शाहिद अहमद के पास अब नहीं है, मेरे पास है, जिसमें हिम्मत हो मुझसे ले-ले, बल्कि मुसलमानों को चाहिए कि मुझे काट कर मेरा पुलाव पकाएं और मुल्लाओं को खिला दें।” इसके छपते ही बस आग ही तो लग गई। पंद्रह दिन बाद मिर्ज़ा साहब के ख़त से मालूम हुआ कि जोधपुर के मुसलमानों ने उनके घर को घेर लिया और ज़बरदस्ती उनसे सारी किताबें ले गए। इसके बाद वो एक दिन कचहरी जा रहे थे तो दो-चार बदमाशों ने उन पर लाठियों से हमला किया और उनके एक हाथ में सख़्त ज़र्ब आई। मिर्ज़ा साहब ने लिखा, “भाई बड़ी रुसवाई हुई, नौबत यहाँ तक पहुंची कि या तो मुसलमानों के जल्सा-ए-आम में तौबा करो और इक़रार-ए-इस्लाम करो वरना तुम काफ़िर हो और क़त्ल कर दिए जाओगे। सारे शहर में आग फैली हुई थी। लाख मैं सबसे कहता हूँ कि किताब मैंने नहीं लिखी, दिल्ली वाले नज़ीर अहमद ने लिखी थी मगर सब यही कहते कि नहीं तुमने लिखी है और इसमें तुमने सबको गालियां दी हैं। चुनांचे मस्लिहत इसी में समझी कि अपने आपको यहाँ के उल्मा के हवाले कर दूँ। उल्मा मुझे एक बड़े जलसे में ले गए। मुझसे सब के सामने तौबा कराई। मुझे कलमा पढ़वाया और दोबारा मुझे मुशर्रफ़-बा-इस्लाम किया। तब कहीं जान बची। ख़ैर मुझे इस तकलीफ़ और रुसवाई का भी उतना अफ़सोस नहीं, मगर बेहद रंज हुआ और शर्म आई ये देखकर कि वो दो सौ जिल्दें जो तुमने मुझे भेजी थीं वो मुझसे मौलवी ज़बरदस्ती छीन लाए थे, उस जलसे में जलाई गईं। अफ़सोस कि पच्चीस तीस साल में मुसलमानों ने कोई ज़ेहनी तरक़्क़ी नहीं की।
एक दफ़ा मिर्ज़ा साहब का सख़्त इसरार हुआ कि “ख़ुद भी आओ और भाबी को भी ले आओ।” तामील-ए-इरशाद की गई। अब के जो उन्हें देखा तो बड़ा दुख हुआ। उनके पाँव रह गए थे और चलने फिरने से माज़ूर हो गए थे। बुख़ार हर वक़्त रहता था। खांसी बहुत बढ़ी हुई थी। सूख कर क़ाक़ हो गए थे। मगर दिमाग़ उसी तरह रौशन और मिज़ाज उसी तरह बश्शाश था। ख़ुश तो हमेशा ही होते थे। अब के बहुत ख़ुश हुए। बोले, “देखो! अभी तुम आए हो और अभी हमारी बीमारी जाती रही। मज़े मज़े की बातें करते रहे। हंसते रहे, हँसाते रहे। एक नावल “शराब” लिखना शुरू किया था मगर चंद बाब ही लिख सके थे। इसके कुछ हिस्से सुनाए और छापने के लिए मुझे दिए। रात को जब दस्तर-ख़्वान बिछा तो खिसक कर साथ बैठ गए। भाबी वहीं से चीखीं कि आप कुछ न खा लीजिएगा। कहने लगे, “खाएंगे हम ज़रूर, अब हम बिल्कुल अच्छे हैं, कोई बीमार थोड़ी हैं।” मुझसे कहते जाते थे, “अरे भई ये हमें भी दो।” भाबी झल्लाती थीं मगर वो अपना काम किए जाते थे। खाया तो ख़ैर उनसे क्या जाता, थोड़ा थोड़ा सा सब चख लिया। बारह एक बजे तक बातें करते रहे। सुबह जब मिर्ज़ा साहब को देखा तो उनकी हालत ग़ैर थी। मालूम हुआ कि सख़्त बदहज़मी हुई। रात भर औकते और डालते रहे। प्लेथन निकल गया। इतने कमज़ोर हो गए थे कि आवाज़ भी न निकलती थी। दो दिन में तबीयत कुछ संभल गई थी। हम बाज़ार से घूम फिर कर आए तो तकिए के सहारे पलंग पर बैठे हुए थे। बोले, “लो ये अफ़साना तुम्हारे लिए लिखा है।” पढ़ कर सुनाया। उनवान था “बर्थ कंट्रोल।” मैं हंस रहा था, मिर्ज़ा साहब भी हंसते जाते थे। मुझे क्या ख़बर थी कि ये उनका आख़िरी अफ़साना है, और मेरे लिए उनकी ये हंसी भी आख़िरी! अगले दिन हमें दिल्ली वापस जाना था। रात को बातें करते करते मेरी बीवी से बोले आपका आना ऐसे वक़्त में हुआ कि मेरे पास कुछ नहीं है। फिर एक अपना छपा हुआ लेटर फ़ार्म निकाला और उसपर कुछ लिख कर उन्हें दिया कि “इसे क़ुबूल कर लीजिए।” उन्होंने पढ़ कर मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। मिर्ज़ा साहब ने किताब “कोलतार” का हक़-ए-तसनीफ़ उनके नाम मुंतक़िल कर दिया था। मैंने कहा, “ये नहीं हो सकता। ये आपके बच्चों की हक़तलफ़ी है।” कहने लगे, “तुम ख़ामोश रहो जी। तुम्हें थोड़ी दे रहे हैं।” नहीं माने और ज़बरदस्ती वो काग़ज़ मेरी बीवी के हाथ में रख दिया।
मिर्ज़ा साहब की सेहत गिरती ही चली गई। उनके ख़ुतूत से उनका हाल मालूम होता रहता था। उस के बाद ऐसे ख़त आने शुरू हुए जो उनके अपने हाथ के लिखे हुए नहीं होते थे। फिर एक दिन उन का ख़त मिला कि आख़िरी बार आकर मिल जाओ। कुछ रुपये लेते आना। मैंने रवानगी का तार दिया और रात ही की गाड़ी से चल पड़ा। स्टेशन पर उनके छोटे भाई आए थे। मैंने पूछा चुग़ताई साहब का क्या हाल है? बोले वही है! समझ में न आया कि वही है का क्या मतलब है। घर पहुंचे तो देखा कि उनके हिस्से के कमरों में सन्नाटा! न भाबी न बच्चे। एक कमरे में पलंग पर लिहाफ़ ओढ़े चुग़ताई साहब पड़े थे। पास कोई न था। मैंने आवाज़ दी और सलाम किया तो मुंह पर से लिहाफ़ हटाया। मुझ पर बिजली गिर पड़ी। मिर्ज़ा साहब के बदले एक सिख दिखाई दिया। कुड़बुड़ी दाढ़ी मूँछें और बढ़े हुए सिर के बालों पर एक रूमाल बंधा हुआ। पीला चेहरा, फटी फटी आँखें। लिहाफ़ हिला तो उसमें से बदबू का एक भबका आया। या यूँ के नीचे पानी के प्याले रखे हुए थे मगर पलंग पर टाँके के च्यूंटे फिर रहे थे। मैं रोने लगा। वो भी आब-दीदा हो गए। मैंने कहा, “ये क्या हालत हो गई?” बोले, “बस अब ख़त्म समझो।” फिर एक दम से मुस्कुराए और कराहते हुए बोले, “अरे अरे आपको देखिए।” और लिहाफ़ में से एक च्यूंटा चुटकी में पकड़ कर नीचे फेंका, “मरने से पहले ही अपना हिस्सा लेने चले आए।” इतने में अंदर के रुख़ का एक दरवाज़ा खुला और उनकी वालिदा अंदर आईं। बोलीं कि, “किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है?” मिर्ज़ा साहब ने कहा, “ये शाहिद साहब आए हैं, उन्हें पहले चाय पिलवाइये।” अम्मां चली गईं तो उनकी बातों से मालूम हुआ कि अब सिर्फ़ अम्मां ही उनका ख़याल रखती हैं। माशा-अल्लाह भरा पूरा घर था मगर कोई उनके पास न आता था। मैंने कहा, “भाबी और बच्चे कहाँ हैं?” बोले, “रामपुर।” मैंने कहा, “वो क्यों?” कहने लगे, “बीवी को मेरी ख़िदमत करते करते ख़ुद दिक़ हो गई। मैंने उनसे बारहा कहा कि तुम यहाँ से चली जाओ वरना तुम भी मर जाओगी। मगर वो न मानीं। जब मैंने देखा कि मैं तो मर ही रहा हूँ और अगर ये न चली गईं तो ये भी मर जाएंगी, तो मैंने उनसे कहा, अगर तुम यूं नहीं जाओगी तो हम तुम्हें तलाक़ दे देंगे। वो फिर भी न गईं। मैंने उनसे कह दिया कि आपको हमने तलाक़ दे दी, आप यहाँ से तशरीफ़ ले जाइए।” तो उन्होंने कहा, “आपके तलाक़ देने से क्या होता है। हमने तो तलाक़ नहीं ली। हम यहाँ से नहीं जाएंगे।” आख़िर मैंने तंग आकर उनके मैके वालों को ख़त लिखा कि “अपनी लड़की को आकर ले जाओ, मैंने उसे तलाक़ दे दी है।” ख़त के पहुंचते ही उनका भाई आ धमका और ज़बरदस्ती अपनी बहन को यहाँ से ले गया। मैंने कहा, “ये आपने अच्छा न किया, सारी उम्र की ख़िदमत का आपने ये सिला दिया उन्हें।”कहने लगे, “भाई अगर वो यहाँ रहतीं तो वाक़ई मर जातीं। उनके बचाने की और कोई सूरत ही नहीं थी, और हाँ सुनो! असल में तलाक़ हुई नहीं है मगर उनके घर वालों को मैं जानता था कि एक ख़त में ही आ कर ले जाएंगे। बीवी ने बहुत कहा भी ये तलाक़ नहीं है मगर उनके भाई ने कहा जब उन्होंने हमें लिख कर ही भेज दिया तो अगर नहीं हुई तब भी हो गई।”
इसके बाद उनकी अम्मां और भाइयों और इस्मत चुग़ताई से बातें करने पर मालूम हुआ कि बीमारी ने मिर्ज़ा साहब के दिमाग़ पर अजब तरह का असर डाला है कि उन्हें दूसरों को तकलीफ़ पहुंचा कर लुत्फ़ आता है। मसलन भाइयों भाइयों को लड़ा देंगे। किसी पर चोरी का इल्ज़ाम लगा देंगे। तबीयत से घड़ कर कोई ऐसी बात करेंगे कि दो आदमी उलझ जाएं। हम सबने तंग आ कर उनकी तरफ़ जाना ही छोड़ दिया। बस माँ की ही मामता है जो बर्दाश्त कर रही है। मैंने कहा, “मगर अब तो उनका आख़िरी वक़्त है। कितने दिन जिएंगे बेचारे।” मगर सारे भाई बहन यही कहते थे कि “ये नहीं मरेंगे। कितनी ही दफ़ा हो चुका है कि मुन्ने भाई मर रहे हैं, मुन्ने भाई मर रहे हैं। सब भागे भागे गए और वो न मरे ना दरे। फिर अच्छे ख़ासे हो गए।” उस घर में तीन दिन रहना मुझे अजीरन हो गया। अजीब बेकसी की ज़िन्दगी थी। गर्म गर्म बुख़ार चढ़ते, पिंडा झुलसता रहता। हड्डियां तक सूख गई थीं। खांसी के मारे सीने में सांस न समाता था। पाँव बिल्कुल बेकार हो चुके थे। मगर दिमाग़ रोशन था। कोई तीमारदार नहीं। पैसा कौड़ी पास नहीं। न जाने किस वक़्त दम निकल जाए। घरवाले तो मुतमइन हैं कि ये मरने ही के नहीं! मैंने जी में कहा, “अल्लाह तेरी शान है। ये वो शख़्स है जिसने दुनिया को हंसाया और मरने के बाद भी हंसाता रहेगा और इस अज़ाब में मुब्तला! तू ही अपनी मस्लहतों को ख़ूब जानता है।” जब मैं उनसे रुख़्सत होने लगा तो हाथ बढ़ाया और मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। मैं रो रहा था। वो भी रो रहे थे। मैंने कहा, “ये रुपये रख लीजिए।” पूछने लगे, “कितने हैं?” मैंने कहा, “दो सौ हैं। अगर ज़्यादा की ज़रूरत हो तो मैं दिल्ली पहुंच कर और भेज दूँगा।” बोले, “बहुत हैं, तकिए के नीचे रख दो।” ख़ुदा-हाफ़िज़ कह कर मैं आँसू पोंछता बाहर निकल आया। फिर उनकी सूरत देखनी नसीब नहीं हुई। शायद दो हफ़्ते गुज़रे होंगे कि उनके इंतिक़ाल की ख़बर मिली। मैंने कहा, “लो भई वो मर गया जो मरता न था। इन्ना लिल्लाहि वइन्नाइलैहि राजिऊन।”
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