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परनानी

अशरफ़ सबूही

परनानी

अशरफ़ सबूही

MORE BYअशरफ़ सबूही

    परनानी अपने ही कुटुम की नहीं बल्कि सारे मोहल्ले की परनानी थीं। बच्चे तो बच्चे हर जानने वाला बूढ़ा हो या जवान, उनको परनानी कहता था। ज़िंदगी के बाग़ में उनकी हस्ती एक ऐसे दरख़्त के मानिंद थी जो ख़िज़ां के मुतवातिर झोंकों से लुंड मुंड रह गया हो। फल फूल आने बंद हो गए हों और जो सिर्फ़ इस इंतज़ार में खड़ा हो कि फ़ना की आंधी उसे गिराकर रख दे और वो जो कभी ज़ीनत-ए-चमन था, कूड़ा समझ कर फेंक दिया जाए या ख़ाक उसको अपनी ग़िज़ा बना ले।

    परनानी की उम्र का ये एक सौ पच्चीसवां मरहला था। दिल्ली के लाल क़िले में जवानी गुज़ारी थी। बहादुर शाह मुग़ल ताजदार उन ही की गोदियों में पले बढ़े, जवान हुए, तख़्त पर बैठे और उन ही की आँखों के सामने रंगून भेजे गए। उनका अपना कुम्बा भी कुछ कम था। सात बेटे और पांच बेटियां और फिर पोते पोतियाँ, नवासे नवासियाँ, ख़ुदा की दी हुई जीती-जागती एक दौलत थी जिस पर बैठी हुई परनानी राज किया करती थीं। लेकिन ये सारी बहार कुछ तो ग़दर में लुट गई और कुछ मौत ने ताराज कर दी।

    जब तक परनानी सुहागन रहीं, दिन ईद और रात शब-ए-बरात थी। उनके नसीब की क़समें खाई जाती थीं। सुहाग क्या उजड़ा कि मांग के साथ कोक में भी आग लग गई। आज एक बेटा मरा तो कल दूसरा। इस हफ़्ते पोते को रोईं तो अगले हफ़्ते नवासे को। शाबान में नवासी ने दम तोड़ा तो शव्वाल में पोती ने। दो तीन बरस के अंदर अंदर घर भर का सफ़ाया हो गया। जानों के साथ माल पर भी झाड़ू फिर गई। बर्बाद बुढ़िया कलेजा मसोसती थी और रह जाती थी। क़ज़ा के माली ने भी सारे शादाब शगूफ़े एक एक कर के चुन लिए और इस मुरझाई हुई पत्तियों वाले फूल को पूछा।

    शाही ज़माने का इतना बड़ा ढंडार मकान और एक बुढ़िया का दम। पेट की औलाद में सिर्फ़ एक नवासी आमना बाक़ी थी वो कभी कभी दिनभर को जाती तो बेचारी का कुछ दिल बहल जाता। आमना अपनी ज़ात से तो ख़ासी मुहब्बत करने वाली लड़की थी, मगर उसका ख़ाविंद बड़ा दिमाग़ चोट्टा मर्द था। और बच्चे ऐसे बुरे उठे थे कि ख़ुदा की पनाह। ताहम परनानी का उनके सिवा था भी कौन? इत्तफ़ाक़न उन ही दिनों में आमना के मियां अहमद मिर्ज़ा के बाप का इंतिक़ाल हो गया। अहमद मिर्ज़ा का कोई ठिकाना रहा नहीं। ख़ुद कमाऊ थे, बाप के सदक़े में दनदनाते थे। क़िस्सा मुख़्तसर आमना किराए के मकान से उठ नानी के पास गईं और मिर्ज़ा साहब बाप के दस्तर ख़्वान से उठकर नन्हिया सास के दस्तरख़्वान पर बैठे।

    कुछ दिन तो बड़ी बी की ख़ूब ख़ातिरें हुईं। उनको नहलाया जाता धुलाया जाता था। मियां अहमद मिर्ज़ा भी बाहर आते-जाते सलाम करते थे। बच्चे ज़रा सा भी गुल मचाते तो बीसियों फ़ज़ीहते सुनते। जाना था कि पका पान है आज मरी कल मरी। उसके पेट में घुस कर जो कुछ जमा जखड़ी है मूस लें। दस खंडले हैं उन पर क़ब्ज़ा हो जाए। मगर बुढ़िया की पुरानी हड्डियां थीं। पांच सेर का घी खाया था वो ऐसी जल्दी क्यों मरती। उसकी तो इस बुढ़ापे में मिट्टी ख़राब होनी थी। ग़रज़ कि जब बड़ी बी ने मरने का नाम लिया और उनकी हर चीज़ पर आमना और उसके शौहर का तसल्लुत हो गया तो बाल पड़े मटके की तरह ग़रीब को बावर्चीख़ाने के पास एक ठड़ी में डाल दिया।

    अब बेचारी परनानी का लिखा पूरा होने लगा। जब सब खा चुके तो बचा खुचा झूटन झाटन खाने को मिल जाता। मिट्टी का प्याला और एक टूटी झजरी पानी के लिए रख दी और उसकी भी कोई ख़बर लेता कि ख़ाली है या भरी। कुछ मांगती तो कोसने और गालियां खाती। अपनी तक़दीर पर रोती तो बच्चे नक़लें करते मुँह चिढ़ाते। आँखों में रौशनी थी तो मुहब्बत की दुनिया में अँधेरा था। ज़बान में ताक़त थी, मगर अपनी दुरगत का माजरा किस को सुनातीं। कोठरी में पड़ी हुई औलाद के दाग़ गिना करती या अपने गुज़रे हुए वक़्तों का मातम करती रहती। पास पड़ोस की कोई आने जाने वाली औरत आती और परनानी उसको आवाज़ दे लेतीं तो आमना ये कह कर कि बुआ उनका तो दिल चल गया है तुम भी किस की बातों में गईं, इधर आओ। उठाले जाती और बड़ी बी मुँह देखती की देखती रह जातीं।

    बड़ी बी ने आमना को अपने जिगर का टुकड़ा समझा था। उन्हें ये क्या ख़बर थी कि अपना पिलाया हुआ दूध ज़हर हो जाएगा। और नवासी नानी को घर का कूड़ा समझने लगेगी। ऐसा मालूम होता था कि आमना बेगम ने तरस खाकर बुढ़िया को अपने घर में जगह दे दी है और परनानी मिर्ज़ा साहब के टुकड़ों पर पड़ी हुई हैं। परनानी ने आख़िर क्या गुनाह किया था जिसके बदले में ये सुलूक किए जाते थे। उसने घर की बस्ती के लिए नवासी को आबाद किया, अपने घर-बार का मालिक बनाया। चाहिए तो ये था कि जिसकी बदौलत आमना और उसके बाल बच्चे चीं चीं कर रहे थे, उसकी दिल से ख़िदमत की जाती, उसके पाँव धो धो कर पीते। उसको बड़ी बूढ़ियों की तरह तबर्रुक समझ कर रखते। उसे राहत के साथ मरने का मौक़ा देते। लेकिन दुनिया की ख़ुद ग़रज़ी ने आमना और उसके ख़ाविंद दोनों की आँखें बंद कर दी थीं। परनानी अपने घर में रहती थीं और फ़क़ीरनी बन कर। वो अपने दस्तरख़्वान से भीक मांगती थीं और उन्हें बड़ी हक़ारत से टुकड़ा मिलता था।

    चंद रोज़ तक तो बुढ़िया अपनी हालत पर रोती रही, फिर उसे सब्र गया। दो-चार पुरानी चीज़ें जो उसने अपनी कोठड़ी में रख ली थीं और जिनकी अब वो मालिक थी उनसे दिल बहलाने लगी। घंटों एक एक चीज़ को देखती और आप ही आप बातें करती। ये सोने चांदी के बर्तन थे क़ीमती ज़ेवरात। कोई कमख़्वाब ज़रबफ़्त का लिबास था दौलत के मख़फ़ी खज़ाने। लेकिन बुढ़िया के लिए ये सब अनमोल बेजोड़ चीज़ें उसकी ज़िंदगी के अफ़साने के दिलचस्प टुकड़े थीं। कहीं उसको अपना बचपन खेलता नज़र आता था तो कहीं उसकी जवानी अंगड़ाइयाँ ले रही थी। किसी शैय में वो अपनी मरहूम मसर्रतों को मुस्कुराते हुए देखती थी तो किसी में अपनी औलाद की मिटी हुई तस्वीरें उसे दिखाई देती थीं। गोया सवा सौ बरस की एक तारीख़ थी जिसका वो बड़े इन्हिमाक के साथ मुताला करती रहती थी।

    उन पुरानी यादगार चीज़ों में सबसे ज़्यादा दिलचस्प और उसकी सवानेह हयात का सबसे अहम बाब एक मुरक़्क़ा या हज़ार जामे की दुलाई थी, जिसे सैकड़ों रंग बिरंग के टुकड़ों को जोड़ कर बनाया था। कपड़े की कोई क़िस्म ऐसी होगी जिसकी कोई कोई कतरन उसमें हो। सब ही क़िस्म के नमूने उसमें मौजूद थे। गोया कपड़ों के आसार-ए-क़दीमा की नुमाइश थी। वज़ा क़ता के लिहाज़ से अक़्लीदस की सारी शक्लें मुख़्तलिफ़ पैमानों में मौजूद थीं। बीच में एक चौकोर, प्याज़ी रंग का रेशमी टुकड़ा इस सलीक़े से टांका गया था कि ये मतन और दूसरे हाशिए मालूम होते थे। जब कभी ये सी गई होगी तो देखने वाले उसे गुदड़ी नहीं बल्कि बनावट का करिश्मा समझते होंगे लेकिन अब तो ये राय पिथौरा का क़िला थी। बड़ी बी के साथ उसका रंग-रूप भी रुख़सत हो चुका था। जोड़ों पर से टांकों ने दाँत नकोस दिए थे। कहीं ताना ही ताना रह गया था, बाना ग़ायब था। जगह जगह से कीड़ों ने भी अपनी ख़ुराक हासिल कर ली थी। इस दुलाई को बड़ी बी की सबसे ज़्यादा चहेती बेटी आमना की माँ, रुक़य्या ने अपनी जवानी का रंडापा बहलाने के लिए सिया था। परनानी के मश्वरे भी उसके जोड़ मिलाने और टुकड़ों की तर्तीब में ख़ास अहमियत रखते थे। इसका हर पैवंद माँ बेटियों की ज़िंदगी का राज़ शादी-ओ-ग़म की तस्वीर, गूँगे का ख़्वाब और आँखों से गुज़रा हुआ एक अफ़साना था। इसलिए दूसरे मिटने वाले दाग़ों की तरह बुढ़िया उसको भी सीने से लगाए रखती थी।

    एक दिन किसी तक़रीब के सिलसिले में सफ़ेदी हो रही थी, दुनिया को दिखाने के लिए आमना ने चाहा कि बड़ी बी की कोठड़ी भी साफ़ कर दी जाए। चुनांचे उसने सारा गड़ गूदड़ बाहर निकाल फेंका और बच्चों ने उनको तमाशा बना लिया। दुलाई की नौबत आई तो बेचारी बहुत सिटपिटाई। रोई चीख़ी, झुंजलाई, मिन्नतें कीं। गिड़गिड़ाई मगर आमना की मुंह ज़ोरी और सख़्त गीरी के सामने एक चली। अब इधर सफ़ेदी हो रही थी और उधर ग़रीब बेआस बुढ़िया कोने कोने में अपनी चीज़ों को ढूंढती फिरती थी। अगर कोई चीथड़ा मिल जाता तो बच्चे झपटा मार कर ले जाते और वो दीवानों की तरह हाथ फैलाती रह जाती। सफ़ेदी हो गई तो परनानी अपनी खटिया पर जा बैठीं और अपने वक़्त का ज़्यादा हिस्सा ख़ामोश आँसू बहाने और लम्बे लम्बे सांस लेने में गुज़ारने लगीं। दक़ियानूसी ख़्याल के लोगों का क़ायदा है कि वो घर की पुरानी चीज़ें ख़्वाह वो कितनी ही बेकार और फ़ज़ूल क्यों हों, ज़ाए नहीं करते और दाश्ता आएद बकार कह कर किसी मचान या किसी कोने खदरे में रख देते हैं। इसी तरह आमना ने भी जब सफ़ेदी हो चुकी तो घर की दूसरी ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों के साथ बड़ी बी का गूदड़ भी समेट कर काट कबाड़ की कोठरी में डाल दिया और बात आई गई हो गई।

    ऐसी ऐसी कई तक़रीबें आमना के हाँ हुईं और बड़ी धूम से हुईं। माल-ए-मुफ़्त दिल-ए-बेरहम। ख़ूब दिल खोल कर रुपया ख़र्च किया। दोनों मियां बीवी ने पेट भर कर अरमान पूरे की। अहमद मिर्ज़ा की अपनी कमाई होती तो दिल भी दुखता। परनानी बेचारी का असासा था ख़ासे लगा। ये सदा के खट्टू थे। बाप की खुरचन ख़त्म हुई तो नन्हिया सास का सर सहलाने लगे। ऐसे अलल्ले तलल्ले की ज़िंदगी के वास्ते क़ारून का ख़ज़ाना भी कम है। चंद ही रोज़ में बुढ़िया की जायदाद का लग्गा लग गया। पहले रेहन की फिर फ़रोख़्त हुई। सिर्फ़ ये रहने का मकान और इसके मुल्हिक़ बाज़ार के रुख़ की ग्यारह दुकानें रह गईं। छोटे लड़के को घोड़ी चढ़ाने के लिए जो दो हज़ार रुपये क़र्ज़ लिये थे उस का तक़ाज़ा शुरू हुआ। बड़ी लड़की का कार-ए-ख़ैर ज़रूरी था। लड़के वालों का इसरार और अपने दिल की ख़ुशी का मौक़ा क्योंकर हाथ से दिया जाता। जीते जी के यही मेले हैं। फ़िक्र हुई कि इस मकान को भी एक दो तीन कर देना चाहिए। इतने बड़े ढंडार मकान की क्या ज़रूरत है। लाला जग्गू मल ने पच्चास हज़ार लगाए हैं। फ़िलहाल सत्तर अस्सी रुपये का किराया है और भी मुश्किल से पटता है। चालीस हज़ार की अच्छे मौक़े की जायदाद ख़रीद लेंगे तो ढाई सौ का किराया हो जाएगा। बाक़ी दस हज़ार में क़र्ज़ अदा करने के बाद लड़की विदा हो जाएगी। ख़ुद क़रोलबाग़ में सस्ता मकान लेकर जा रहेंगे। अल्लाह अल्लाह ख़ैर सल्ला लेकिन दुशवारी ये थी कि इसका क़बाला उनके पास था और बग़ैर क़बाला देखे ख़रीदे कौन?

    जब पानी गले गले आगया और क़र्ज़-ख़्वाहों ने नाक में दम कर दिया तो परनानी की तरफ़ मुतवज्जे हुए। पहले तो कोठड़ी का कोना कोना छान मारा। बुढ़िया का गड़ गूदड़ देख डाला। आख़िर झक मार कर कहना ही पड़ा कि नानी अम्मां, तुम्हारे दामाद की आबरू पर बन गई है। मकान की बातचीत हो रही है। क़बाला दे दोगी तो जान बच जाएगी, वरना ये ज़हर खाने को तैयार बैठे हैं। मगर बुढ़िया टस से मस हुई और ऐसी अनमोल बेजोड़ बातें कहीं कि समझ में नहीं आया। ग़रज़ बावली होती है। अब बड़ी बी की ख़ातिरें होने लगीं। दोनों वक़्त आमना ख़ुद खाना लेकर आती और जब तक बड़ी बी खातीं वो पास बैठी हुई ख़ुशामद किया करती। आमना के मियां भी आते-जाते मिज़ाज पूछते और दिन में एक दो मर्तबा ख़ुशामद से क़बाले की बाबत दरयाफ़्त करते। परनानी ठंडे सांस भरतीं और कभी कुछ कह देतीं और कभी कुछ। इसी तरह कई हफ़्ते गुज़र गए, एक दिन सुबह को आमना और उसका ख़ाविंद दोनों मिलकर परनानी के पास गए और हद से ज़्यादा गिड़गिड़ाए तो बुढ़िया ने सिर्फ़ इतना कहा कि जिन्हें तुमने चीथड़े जान कर फेंक दिया था वो सब मकानों के क़बाले थे। उनही में इस मकान का काग़ज़ भी था। वो लादो तो निकाल दूं। इन बातों से दोनों मियां बीवी मायूस हो गए और मतलब बरारी की तरकीबें सोचने लगे।

    काट कबाड़ की कोठड़ी में इत्तफ़ाक़ से बिल्ली ने बच्चे दिए। ये सुनते ही चुन्नू, मुन्नू, करीमा, सल्लू वग़ैरा सारे बच्चे कोठड़ी में जा घुसे। बिल्ली के बच्चे की तलाश में जो टूटी फूटी चीज़ों को इधर उधर किया तो एक कोने में परनानी का तारीख़ी पिंजर भी धरा हुआ था और सबसे ऊपर उनकी दुलाई पड़ी थी। आमना की छोटी लड़की नसीरा को और बहन भाईयों के ख़िलाफ़ परनानी से क़ुदरती लगाव था। वो देखा करती थी कि बड़ी बी को अपनी दुलाई के जाते रहने का बड़ा रंज है। ये दुलाई को ले सीधी परनानी के पास पहुँची और कहने लगी नानी अम्मां! आपकी दुलाई मिल गई। जाने किस ने पाख़ाने के पास की कोठड़ी में डाल दी थी। बुढ़िया के बदन में दुलाई देखते ही जान सी गई। दुलाई को कलेजे से लगाया और नसीरा को लाखों दुआएं दीं।

    दुलाई के छिन जाने से परनानी के बुढ़ापे में जो दीवानगी सी पैदा हो गई थी, कम हो चली। इसका कर्ब और बेचैनी सुकून से बदल गया। अब वो कभी कभी अपनी कोठड़ी से सर बाहर निकाल कर झाँकती और अगर नसीरा अकेली जाती तो इशारे से उसको अपने पास बुलालेती और दुलाई को अपने सामने रखकर कहती बेटी कहानी सुनोगी? जगबीती नहीं आप बीती है। बेटी ये कपड़े के टुकड़े, नहीं हैं मेरे कलेजे के पुरज़े हैं। तुम्हारी नानी ने सिए थे। ये किमख़्वाब की कतरन बहादुर शाह की कुर्ते टोपी में से बची थी। ये मशरू का टुकड़ा ज़ीनत महल का पाजामा तराशते वक़्त निकला था। ये मेरे सुहाग के जोड़े की छुट्टन है। ये उन्नाबी और ऊदे ज़रबफ़्त के टुकड़े तुम्हारी बड़ी नानी के जहेज़ की यादगार हैं। बेचारी बिन ब्याही जन्नत को सिधार गईं। ये जामेदार तुम्हारी अम्मां के मंझले मामूं की अचकन में से बची थी जो अपनी जवानी के अठारवीं बरस ईद के दिन घोड़े से गिर कर मुझको दाग़ दे गए थे। हाय कैसा कड़ियल जवान थे सहरा बांधना भी नसीब हुआ। और ये जो चौड़ा चकला प्याज़ी रंग की दरियाई का टुकड़ा तुम देखती हो... बुढ़िया एक हाथ से छाती पकड़ कर और दूसरे हाथ से आँसू पोंछते हुए अभी इतना ही कहने पाई थी कि आमना ने चिल्ला कर कहा, “अरी नसीरा। मुर्दार छम्मी का मुँह धुलाते धुलाते कहाँ मरगई, जब देखो बुढ़िया के कलेजे में घुसी बैठी रहती है। नाशुदनी, दीवानी के पास बैठते बैठते दीवानी हो जाएगी।”

    परनानी की अलिफ़-लैला, आमना की कड़वी आवाज़, नसीरा के यकायक उठकर चले जाने से बदमज़ा होनी चाहिए थी, मगर नहीं उसका हाफ़िज़ा तन्हाई पाकर और तेज़ हो गया। गोयाई भी तसव्वुरात में मह्वर हो गई। अब उसकी आँखें तो दुलाई के प्याज़ी रंग के टुकड़े पर थीं और दिमाग़ सौ बरस पहले का तैयार किया हुआ फ़िल्म ख़याल के पर्दे पर इस तरह चल रहा था कि गोया उसकी ये अँधेरी कोठड़ी नई रौशनी का सिनेमा हाल है। एक नौजवान अपनी मर्दाना कैफ़ियात से सरशार एक पैकर-ए-रानाई के सामने बैठा हुआ सहरे और घूंघट की आड़ में आरसी मुसहफ़ की रस्म अदा कर रहा है। शौक़-ओ-अरमान के सब्ज़ बाग़ लहलहा रहे हैं। फिर घूंघट उठता है। सहरे के फूल खिलते हैं। गोद भरी जाती है। मासूमियत का फ़रशा ज़िंदगी में मुहब्बत की ताज़ा रूह फूँकता है। शबाब के जज़्बात आहिस्ता-आहिस्ता इज़दवाजी हक़ीक़त इख़्तियार करते हैं। मुवानसत पर मुवाफ़िक़त का रंग चढ़ना शुरू होता है। दूल्हा के चुलबुले चेहरे में संजीदगी पैदा हो जाती है। हुस्न का ख़रीदार बातिनी जमाल का शैदा हो कर हमेशा के वास्ते बिक जाता है और अपनी तमाम मनक़ूला गैरमन्क़ूला जायदाद अपनी शरीक-ए-हयात के नाम जिस पर पहले आँखें निसार थीं और अब दिल भी क़ुर्बान हो चुका है, मुंतक़िल कर देता है। अरसा गुज़र जाता है। फले फूले बाग़ में ख़िज़ां आनी शुरू होती है। फूल कुमलाने लगते हैं। दुनिया का हर दरख़्त ख़िज़ां के बाद बहार की उम्मीद रखता है। लेकिन ज़िंदगी के पौदे के लिए अव्वल ही का झोंका है बहार आख़िर, आँसुओं की आबयारी काम आती है ठंडे साँसों की हवा। सुहागन दुल्हन रंडसाला पहने बैठी है। शौहर की दी हुई जायदाद का हिब्बानामा सामने पड़ा है। हज़ार जा मक्के की दुलाई सी जा रही है। कुछ ख़्याल आता है। उठती है गठड़ी में से एक प्याज़ी रंग का फटा हुआ अंगरखा निकालती है। उसके पहनने वाली जवानी नज़रों के सामने फिर जाती है। दामन तराश कर एक मुरब्बा टुकड़ा निकालती है और अपनी मुहब्बत की यादगार (हिब्बेनामा) को दुलाई के सीने में दफ़्न करके उस टुकड़े को टांक देती है।

    बड़ी बी के ख़्यालात का सीरियल यहीं तक पहुँचा था कि आमना अपने शौहर के साथ उसके पास आई। अपने हालात से परागंदा हो कर उन्होंने एक दफ़ा और क़बाले की बाबत दरयाफ़्त करना चाहा। बड़ी बी की पुरअम्न ज़िंदगी और नसीरा से घुल मिलकर बातें करते देखकर वो समझे थे कि अब बुढ़िया होश की बातें करने लगी है। तक़दीर सीधी है तो दौलत के खज़ाने की कुंजी बता देगी। यहाँ आकर जो देखा तो बड़ी बी दीवार की तरफ़ टकटकी लगाए कभी बिसूरती हैं और कभी मुस्कुराती हैं। गुदड़ी को छाती से लगा रखा है। आमना हैरान है कि मैंने तो इसे उपलों की कोठड़ी में डलवा दिया था यहाँ क्यों-कर आगई। मस्नूई हंसी हंसते हुए बोली, “नानी अम्मां, फिर तुम इस मनहूस दुलाई को संगवा बैठीं। ऐसे क्या इसमें लाल जड़े हुए हैं जो किसी आन छोड़ती ही नहीं। देखो तो सही मई में कैसी सड़ी हुई बू आरही है। नसीरा जा, अलगनी पर से साटन की दुलाई उतार ला और नानी अम्मां को उढ़ा दे।” नसीरा दौड़ कर साटन की दुलाई ले आई। आमना ने ये दुलाई बढ़िया को उढ़ाकर उस की गुदड़ी छीन ली और नसीरा को देकर कहा, “जा उसे कूड़े पर डाल दे हलाल ख़ोरी ले जाएगी।”

    दो-चार मिनट तो परनानी इस आफ़त-ए-नागहानी का मुक़ाबला कर सकीं। नसीरा की तरफ़ हाथ बढ़ाए चुपचाप देखती रहीं। फिर एक ठंडा सांस लेकर कहा, “बेटी मेरी जान निकाल। इसमें मेरे बहुत से फूलों की बू बसी हुई है। जीते-जी इसको मुझसे छीनो। सुबह का चराग़ हूँ, फूंक मार कर क्यों बुझाते हो, ख़ुद बुझ जाएगा।” ये ऐसी बातें थीं कि आमना सी संग दिल के भी आँसू निकल पड़े और अहमद मिर्ज़ा जैसा मतलब का बंदा भी मुतास्सिर हुए बग़ैर रह सका। आमना ने नानी के गले में बाँहें डाल दीं, ख़ून में उबाल आया। आँखों ने सच्ची मोहब्बत का इज़हार किया और भरे दिल को ज़ब्त करके बोली, “नानी अम्मां, मैंने आज तक जो तुम्हारी ख़ताएँ की हैं, अपनी बेटी रुक़य्या के सदक़े में माफ़ कर दो। मैं शर्मिंदा हूँ कि मैंने तुम्हारे साथ अच्छे सुलूक नहीं किए। मैं तुमसे क़बाला कभी नहीं मांगूंगी। तुम कुढ़ो नहीं।” दिल को दिल से राह होती है। आँसू अगर झूटे हों तो बड़ी क़ीमत रखते हैं। बड़ी बी को मालूम हुआ कि उसकी दुनिया बदल गई है। उस को आमना में जन्नत की हूर नज़र आई और उसने अपने थरथराते हुए हाथों से उसकी बलाएं ले लीं, गले लगाया और प्यार किया। ये मंज़र देखकर अहमद मिर्ज़ा भी नन्हिया सास के क़दमों में गिर पड़े और अपनी ख़ताओं का एतिराफ़ किया। बड़ी बी ने उन्हें भी दुआएं दीं।

    नसीरा ने अपनी ज़िंदगी में ये नया तमाशा देखा। वो कभी दूसरों को रोता देखकर रुंखी सूरत बना लेती थी। कभी बेचैन हो कर इधर उधर देखने लगती थी। जब नदामत और ख़ुशामद गले मिल चुकीं और नसीरा ने अपनी अम्मां को ये कहते हुए कि “नानी अम्मां! अब तो आप नाराज़ नहीं। खाओ मेरी जान की क़सम।” और परनानी का ये जवाब कि, “नहीं आमना! तेरी जान की क़सम मैं तुम सबसे ख़ुश हूँ। मेरा तुम्हारे सिवा है कौन।” नसीरा अपनी अम्मां से पूछने लगी कि “अम्मां! नानी को दुलाई दे दूं। अब तो मिलाप हो गया।” माँ ने बेटी की तरफ़ और नानी ने नवासी की जानिब एक अजब अंदाज़ से देखा। आमना ने नसीरा से तो कुछ कहा नहीं। नानी से बोली, “नानी अम्मां, जाने दो इस गूदड़ का क्या करोगी।”

    “नहीं बेटी रहने दो। तुम्हारी माँ की यादगार है।” बुढ़िया ने कहा और नसीरा पर नज़र डाली। नसीरा दुलाई को दबोच कर बोली, “अब मेरी बारी है बड़े प्याज़ी टुकड़े की कहानी पहले सुना दो फिर दूँगी।”

    बुढ़िया की सारी अफ़्सुर्दगी दूर हो गई थी। उसका ख़्याल बदल चुका था। वो मरने से पहले मकान का बोझ भी अपनी छाती पर से हटाना चाहती थी। उसे यक़ीन था कि आमना और उसका फ़ज़ूल खर्च शौहर अब संभल जाएगा। इसलिए उसने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया। लाओ दुलाई मेरे सामने रखो। मैं इस बड़े टुकड़े का भी क़िस्सा सुना दूं, और दुलाई लेकर बड़े टुकड़े को उधेड़ते हुए कहा, “बच्चो, ये हज़ार जामे की दुलाई नहीं है बल्कि हज़ार दास्तान है (प्याज़ी रंग के टुकड़े को अलग करके हिब्बा नामा हाथ में लेकर) ये उसकी क़ब्र थी। लो नानी सदक़े और नानी का मकान तुम पर सदक़े, लेकिन दूसरी जायदाद की तरह इसकी बर्बादी के पीछे पड़ना। कहीं ऐसा हो कि सर छुपाने का ये झोंपड़ा और रोटी खाने का सहारा भी जाए। अल्लाह तुमको इसमें आबाद रखे और तुम अपने बच्चों का सुख देखो।”

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