मालूम नहीं क्यूँ लेकिन मैं जब भी रफ़ीक़ ग़ज़नवी के बारे में सोचता हूँ तो मुझे मअन महमूद ग़ज़नवी का ख़याल आता है जिसने हिंदुस्तान पर सत्रह हमले किए थे जिनमें से बारह मशहूर हैं। रफ़ीक़ ग़ज़नवी और महमूद ग़ज़नवी में इतनी मुमासिलत ज़रूर है कि दोनों बुत-शिकन हैं।
रफ़ीक़ ग़ज़नवी के पेश-ए-नज़र कोई ऐसा सोमनाथ नहीं था जिसके बुत तोड़ कर वो उस के पेट से ज़र-ओ-जवाहर निकालता फिर भी उसने अपनी ज़िंदगी में कई तवाइफ़ों को (जिनकी तादाद बारह तक पहुंच सकती है) इस्तेमाल किया।
रफ़ीक़ ग़ज़नवी के नाम से मालूम होता है कि उस के आबा-ओ-अज्दाद गज़नी के रहने वाले थे। मुझे मालूम नहीं कि उसने गज़नी देखा है या नहीं। सिर्फ़ इतना मालूम है कि वो पेशावर में रहता था, उस को पश्तो बोलना आती है, अफ़्ग़ानी, फ़ारसी भी जानता है। वैसे आम तौर पर पंजाबी में गुफ़्तगू करता है। अंग्रेज़ी अच्छी ख़ासी लिख लेता है। उर्दू में अगर मज़मून-निगारी करता तो उस का बड़ा नाम होता।
उस को उर्दू अदब से बड़ा शग़फ़ है। उस के पास उर्दू लिटरेचर का काफ़ी ज़ख़ीरा मौजूद है। जब मैंने पहली मर्तबा गुलशन महल (बमबई) में उस के कमरे में बड़ी तर्तीब से रखी हुई किताबें देखीं तो मुझे बड़ी हैरत हुई। मेरा ख़याल था कि वो महज़ एक मीरासी है जिसे अदब से कोई वास्ता नहीं हो सकता लेकिन जब उस से बातें हुईं तो उसने ऐसे ऐसे मुसन्निफ़ों का नाम लिया जिनसे मैं वाक़िफ़ नहीं था। उसने मेरी मालूमात में इज़ाफ़ा किया कि एक अबुल-फ़ज़ल सिद्दीक़ी हैं जो चरिन्दों और परिंदों की कहानियां लिखने के बहुत बड़े माहिर हैं। चुनांचे मैंने उनके अफ़साने पढ़े और पसंद किए।
मेरी समझ में नहीं आता कि ये मज़मून जो मुझे रफ़ीक़ ग़ज़नवी पर लिखना है, कहाँ से शुरू करूँ लेकिन मेरा ख़याल है कि ये शुरू हो चुका है और इस का ख़ातिमा बिल-ख़ैर भी हो जाएगा इसलिए मैं अपने हाफ़िज़े को टटोल कर आपको बताना चाहता हूँ कि उस से मेरी पहली मुलाक़ात कब हुई।
अजीब बात है कि उस से जिस्मानी तौर पर मुतआरिफ़ होने से पहले ही मैं उसे जानता था। कैसे जानता था, कब जानता था, ये मुझे याद नहीं। आज से ग़ालिबन चौबीस पच्चीस बरस पीछे की बात है, मैं अमृतसर में बिजली वाले चौक से गुज़र रहा था कि एक पान वाले ने मुझे आवाज़ दी। मैं रुक कर उस की दुकान के पास गया तो उसने मुझसे कहा। “बाबू साहब इतनी देर हो गई है अब तो हिसाब चुका दीजिए?”
मैं बहुत मुतहय्यर हुआ इसलिए कि इस पान वाले से मेरा कोई हिसाब किताब नहीं था। मैंने इस से कहा। “कैसा हिसाब... मैं तो आज पहली मर्तबा तुम्हारी दुकान के पास ठहरा हूँ।”
ये सुनकर पान वाले के होंटों पर मअनी-ख़ेज़ मुस्कुराहट नुमूदार हुई। “न देने वाले इसी तरह कहा करते हैं।”
जब मैंने उस से तफ़सील चाही तो पता चला कि वो मुझे रफ़ीक़ ग़ज़नवी समझता था जो उस से उधार लेता था। मैंने उसे यक़ीन दिलाया कि मैं सआदत हसन मंटो हूँ तो उसने मुझसे कहा कि मेरी और रफ़ीक़ की शक्ल बहुत मिलती-जुलती है।
रफ़ीक़ ग़ज़नवी का नाम तो मैं बहुत पहले सुन चुका था। उस से मिलने की मुझे कोई ख़्वाहिश नहीं थी, पर जब मैंने सुना कि उसकी शक्ल मेरी शक्ल के मुशाबेह है तो मुझे उस को देखने का इश्तियाक़ पैदा हुआ।
ये वो ज़माना था, जब मैंने आवारा-गर्दी शुरू कर रखी थी। तबीयत हर वक़्त उचाट उचाट सी रहती थी। एक अजीब क़िस्म की खुद-बुद हर वक़्त दिल-ओ-दिमाग़ में होती रहती थी। जी चाहता था कि जो चीज़ भी सामने आ जाए उसे चखूँ, ख़्वाह वो इंतिहा दर्जे की कड़वी ही क्यूँ न हो।
तकियों में जाता था, क़ब्रिस्तानों में जाता था, जलियाँ वाला बाग़ में घंटों किसी सायादार दरख़्त के नीचे बैठ कर किसी ऐसे इन्क़िलाब के ख़्वाब देखता था जो चश्म-ज़दन में अंग्रेज़ों की हुकूमत का तख़्ता उलट दे। स्कूलों को जाती हुई लड़कियों के झुरमट देखता था और उनमें से कोई अच्छी सी लड़की मुंतख़ब कर के उस से इश्क़ लड़ाने के मंसूबे तैयार करता था। बम बनाने के नुस्ख़े हासिल करने की कोशिश करता था। बड़े बड़े गवैयों के गाने सुनता था और क्लासिकल मौसीक़ी को समझने के लिए पेच-ओ-ताब खाता था।
मैंने उस ज़माने में शेअर कहने की भी कोशिश की। फ़र्ज़ी माशूक़ों के नाम इत्र लगा कर काग़ज़ों पर बड़े बड़े तवील मुहब्बत नामे भी लिखे मगर बकवास समझ कर फाड़ दिए। दोस्तों के साथ मिलकर चरस के सिगरेट पिए, कोकीन खाई, शराब पी मगर जी की बे-कली दूर न हुई।
शदीद आवार्गी के इसी दौर में मुझे रफ़ीक़ ग़ज़नवी से मिलने की ख़्वाहिश हुई। चुनांचे मैंने तकियों में, शराब-ख़ानों में और रन्डियों के कोठों पर जा-जा कर पूछा कि रफ़ीक़ ग़ज़नवी कहाँ है? मगर किसी ने उस का ठोर ठिकाना न बताया। कई बार सुनने में आया कि वो अमृतसर में आया हुआ है। मैंने हर बार बड़ी मुस्तइद्दी से उस को ढ़ूंडा मगर उस का निशान न मिला।
एक दिन पता चला कि वो अपने एक दोस्त के हाँ ठहरा हुआ है। उस का ये दोस्त एक दर्ज़ी था (मैं उस का नाम भूल गया हूँ) उस की बैठक हमारे घर के पास कर्मों डेयुढ़ी की एक गली में थी, जहां वो काम करता था। मैंने रफ़ीक़ को यहां तलाश किया, मालूम हुआ कि वो शहर के बाहर एक ग़ैर-आबाद से इलाक़े में मुक़ीम है जहां इस दर्ज़ी का घर था। ये पता मुझे बाले ने दिया। वो भी वहीं जा रहा था। मौक़ा बड़ा अच्छा था चुनांचे मैं उस के साथ हो लिया।
मुनासिब मालूम होता है कि मैं यहां बाले का तआरुफ़ क़रा दूं। मुझे ये बताते हुए दुख होता है कि लोग उसे बाला कंजर कहते थे। मालूम नहीं इन्सानों के साथ उनके आबा-ओ-अज्दाद की ज़ात क्यों मंसूब कर दी जाती है। बाला जैसा कि मैं जानता हूँ निहायत ख़ुश-ज़ौक़ नौजवान था। तालीम-याफ़्ता, ख़ूबसूरत, हंसोड़, बज़्लासंज, शायर मिज़ाज। उस की तबीयत में वो जौहर था जो किसी भी इन्सान को फ़न की बुलंदियों पर पहुंचा सकता है।
उस को मालूम था कि लोग उसे किस नाम से याद करते हैं लेकिन उस को इस की कोई परवाह नहीं थी। वो रहता सहता वहीं था जहां औरतें अपना जिस्म बेचती हैं। अब वो कराची में रहता है और अपना फ़न बेचता है। पिछले दिनों मुझे एक अख़बार के ज़रिये से मालूम हुआ कि वो एक मशहूर मुसव्विर है जिसकी तस्वीरों की नुमाइश अहल-ए-नज़र हज़रात में बहुत मक़बूल हुई।
बाला गाता भी था मगर उस की आवाज़ भद्दी थी। कैप्टन वहीद, अनवर पेंटर, आशिक़ अली फ़ोटोग्राफ़र, शायर फ़क़ीर हुसैन सलीस, ज्ञानी अरोड़ सिंह दंदान-साज़। इन सबकी एक बहीमाना क़िस्म की टोली थी। उनका बैठना उठना ज़्यादा-तर अनवर पेंटर की या ज्ञानी अरोड़ सिंह की दुकान में होता था। या उनकी नशिस्त जे जे (अज़ीज़) के होटल शीराज़ और उस दर्ज़ी की बैठक होती थी जिसका नाम मैं भूल गया हूँ।
भिंक घोटी या गोश्त में भूनी जाती थी और तबले की थाप पर राग-रागनियाँ, ठुमरियां, दुदर्य अलापे जाते थे। आशिक़ अली फ़ोटोग्राफ़र की आवाज़ सुरीली लेकिन बहुत पतली थी। वो अक्सर रफ़ीक़ की बहरों में गाता था। कैप्टन वहीद तबला बजाता था। अनवर पेंटर सिर्फ़ दाद देता था। ज्ञानी अरोड़ सिंह दाँत उखेड़ना भूल कर ख़ान साहब आशिक़ अली ख़ान (तान कप्तान ख़ान फ़तह अली ख़ान के फ़र्ज़ंद) की गम्भीर और बालिश्त भर चौड़ी आवाज़ में अक्सर पहाड़ी सुनाया करता था और बाला सिर्फ़ लतीफ़े। कभी कभी अपनी ताज़ा ग़ज़ल। मुझे उस की एक ग़ज़ल का सिर्फ़ एक शेर याद रह गया है।
अश्क मिज़्गाँ पे है अटक सा गया
नोक सी चुभ गई है छाले में
हाले में, शिवाले में, उजाले में वग़ैरा वग़ैरा, अच्छी ग़ज़ल थी।
ज्ञानी अरोड़ सिंह का अच्छा भला काम चल रहा था मगर जिसे आर्ट की चाट पड़ जाये, उस का अल्लाह ही हाफ़िज़ है। राग की दुनिया में वो ऐसा खोया कि दंदान-साज़ की दुकान मा-जुमला साज़-ओ-सामान के ग़ायब हो गई। अनवर पेंटर का भी दीवालिया पिट गया।
आशिक़ अली फोटो ग्राफ़र का भी यही हाल हुआ है चुनांचे एक दिन अमृतसर से ऐसा ग़ायब हुआ कि अभी तक लापता है। जेजेन (अज़ीज़) का नाम-ओ-निशान तक बाक़ी न रहा। अब वो लाहौर में मतब करता है। शायर फ़क़ीर हुसैन सलीस साबुन बना रहा है।
ज्ञानी अरोड़ सिंह कामियाब ऐक्टर बना, मगर अब सुना है कि उसने दुनिया त्याग दी है और ख़ुदा से लौ लगाए बैठा है। कैप्टन वहीद ने पाँच बच्चों वाली एक औरत से शादी कर ली। आजकल ठेकेदारी करता है।
रफ़ीक़ ग़ज़नवी जिस रंग में पहले था, उसी में है। कराची में उसके घोड़े दौड़ाता है और फिल्मों में मौसीक़ी भरता है।
बड़ी मुसीबत है, मैंने जब भी ऐसे मौज़ूआत पर क़लम उठाया जो पुरानी यादों के मुताल्लिक़ हों तो हमेशा बहक गया। अब देखिए मैं बात रफ़ीक़ ग़ज़नवी से मिलने की कोशिश की कर रहा था और चला गया फ़रुआत में... लेकिन सच पूछिए तो मुझे फ़रुआत ही से मुहब्बत है, मैं ज़िंदगी को भी एक फ़ुरूई चीज़ समझता हूँ।
हाँ जनाब, तो मैं बाले के साथ हो लिया। अप्रैल की ख़ुनक रात थी। ताँगा देर तक चलता रहा। आख़िर बाले ने एक नीम-तारीक मक़ाम पर उसे ठहराया। आज से तेईस चौबीस बरस पहले की बात है लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है कि जिस एक मंज़िला मकान में हम दाख़िल हुए, वो पेड़ों से और झाड़ियों से घिरा हुआ था। अंदर लालटेन जल रही थी, मेधा मोटा और वो दर्ज़ी जिसका नाम मैं भूल गया हूँ, अपने चंद दोस्तों के साथ बैठे फ्लश खेलने और शराब पीने में मशग़ूल थे।
मुझे मेधा मोटे से सख़्त नफ़रत थी। अव्वल तो ये कि वो बहुत मोटा और बहुत ताक़तवर था। दूसरे ये कि वो ज़बरदस्ती मुझे फ्लैश खेलने को कहता और पत्ते बाज़ी कर के मुझ पर आठ दस हज़ार रुपये का क़र्ज़ चढ़ा देता और दूसरे तीसरे रोज़ मुझे किसी बाज़ार या गली में पकड़ता और अपना ख़ौफ़नाक चाक़ू दिखा कर उसे वसूल कर लेता।
बाले ने दर्ज़ी से रफ़ीक़ के बारे में पूछा तो जवाब मिला कि वो दो रोज़ से ग़ायब है। कहाँ है या हो सकता है इस के मुताल्लिक़ उसे इल्म नहीं था। दर्ज़ी ने कहा। “बाले, तुम्हें मालूम ही है। जब वो किसी कोठे पर चढ़ता है, पंद्रह दिन के बाद ही नीचे उतरता है।
बाला मुस्कुरा दिया। जिसका मतलब ये था कि उस को अच्छी तरह मालूम है। मेरी ये कोशिश भी बेकार गई। ग़ालिबन एक बरस के बाद मैंने उस का फ़ोटो आशिक़ अली के डार्क रुम एक डिश में पानी पर तैरता हुआ देखा। आशिक़ अली बहुत अच्छा फ़ोटोग्राफ़र था। ग़ालिबन वो पहला शख़्स था जिसने फोटोग्राफ़ी के क़दीम उसूलों की ख़िलाफ़वर्ज़ी की।
आम तौर पर फ़ोटो ग्राफ़र करते थे कि अपने ग्राहक को ख़ुश करने के लिए उस के चेहरे की वो तमाम लकीरें दूर कर देते थे जो इन्सान में उस के किरदार और तशख़्ख़ुस की मज़हर होती हैं। वो उस के चेहरे को छिला हुआ आलू सा बना देते थे जिस पर कोई दाग़ धब्बा न कोई सिलवट लकीर। आशिक़ अली कहता था, फ़ोटोग्राफ़र का काम ये है कि इन्सान को इस तरह पेश करे जिस तरह कि वो उसे देखता है। कैमरे का काम सिर्फ़ अक्स लेना है और बस।
आशिक़ अली रौशनी और सायों के इम्तिज़ाज का ख़ास ख़याल रखता है। रफ़ीक़ की जो तस्वीर मैंने देखी, मेरा ख़याल है वो आशिक़ अली का शाहकार थी। रफ़ीक़ ने अरबों का लिबास पहना हुआ था। उस का लंबोतरा चेहरा बहुत पुर-कशिश था। साये ज़्यादा थे और रौशनियां कम। ख़द्द-ओ-ख़ाल तीखे और नोकीले नहीं थे मगर जाज़िब-ए-नज़र थे। बड़ी वजीह शक्ल-ओ-सूरत थी। नाक लंबी जो फुनंग के क़रीब चौड़ी हो गई थी। होंट एक दूसरे में पैवस्त। उनके दोनों तरफ़ छोटी छोटी तकव्वुनें। बाल पीछे की तरफ़ कंघी किए हुए। लंबी क़लमें... मुझे इस में और अपने में कोई मुमासिलत नज़र न आई। मालूम नहीं उस पान वाले को मुझ पर इस का धोका कैसे हो गया।
आशिक़ अली ने मुझे बताया कि रफ़ीक़ परसों आया था और उसी रोज़ शाम को वापस लाहौर चला गया। मैं लाहौर पहुंचा तो मालूम हुआ कि वो रावलपिंडी में है... अब रावलपिंडी कौन जाता। मैं वापस अमृतसर चला आया। आठवें रोज़ पता चला कि वो अमृतसर ही में एक तवाइफ़ के मकान पर नज़रबंद था... मैं झुंझला गया।
कई बरस गुज़र गए मगर रफ़ीक़ ग़ज़नवी से मुलाक़ात की कोई सबील पैदा न हुई। मैं यूं भी थक-हार कर उस को तलाश करने की सरगर्मी तर्क कर चुका था। इस दौरान में अलबत्ता ये मालूम होता रहा कि वो कटड़ा घुन्नियाँ की क़रीब क़रीब तमाम मशहूर तवाइफ़ों को सरफ़राज़ कर चुका है।
रफ़ीक़ की अपने मख़सूस तर्ज़ में गाई हुई ग़ज़लें हर कोठे पर गाई जाती थीं। ये क्या है जी...? रफ़ीक़ की बहर है। ये क्या अंदाज़ है सरकार...? हुज़ूर रफ़ीक़ ग़ज़नवी का। ये चकना चूर घड़ी रफ़ीक़ साहब की है। कल उन्होंने तान जूली तो ज़ोर से हाथ लहराया। कलाई दीवार के साथ टकराई और घड़ी के हज़ार टुकड़े। परसों रफ़ीक़ ग़ज़नवी एक रंडी के कोठे पर गाना सुनाने लगा। साज़ सुर में किए गए। रफ़ीक़ ने तबले वाले से कहा “तुम भी करो सुर में अपने तबले।” तबलची ने कहा, “मैं कर चुका हूँ।” रफ़ीक़ ने कहा, “दोबारा करो...” दाएं पर अभी अभी एक मक्खी बैठ गई थी। लानत है उस मक्खी पर और लानत है रफ़ीक़ ग़ज़नवी पर।
उन दिनों ये ग़ज़ल आम तौर पर रफ़ीक़ की बहर में गाई जाती थी। देखिए हाफ़िज़े पर ज़ोर दे कर उस का कोई शेर याद करता हूँ... नहीं आया रहा। कुछ ऐसा ही था।
सो रहे हैं पासबान-ए-यार है ख़्वाब-ए-नाज़ में
और ख़ुदा मालूम क्या।
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही
न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में
शायद इक़बाल की कोई ग़ज़ल थी। माफ़ कीजिएगा मेरा हाफ़िज़ा बहुत कमज़ोर है।
इस के बाद मालूम हुआ कि ए. आर. कारदार लाहौर में पंजाब का पहला मुतकल्लिम फ़िल्म हीर राँझा बना रहा है और रफ़ीक़ उस का हीरो है यानी राँझा। हीरोइन अमृतसर की एक तवाइफ़ अनवरी है (ये आजकल रेडियो पाकिस्तान के डिप्टी डायरेक्टर जनाब अहमद सलमान साबिक़ जुगल किशवर मोहरा की बेगम हैं) केदो का पार्ट एम इस्माईल को दिया गया है।
फ़िल्म बन गई मगर मैं लाहौर न जा सका मालूम नहीं क्यूं। इस दौरान में मुख़्तलिफ़ अफ़्वाहें सुनने में आती रहीं। कारदार का रफ़ीक़ से झगड़ा हो गया है। रफ़ीक़, अनवरी से रूमान लड़ा रहा है। अनवरी की माँ सख़्त बेरहम। ज़रूर एक रोज़ चाक़ू छुरी चलेंगे... लेकिन एक दिन ये ख़बर आई कि रफ़ीक़ अनवरी को ड्रामाई अंदाज़ में ले उड़ा है।
ये ख़बर सच्ची थी। वाक़ई वो अनवरी को ले उड़ा था। अनवरी की माँ बहुत चीख़ी चलाई थी। रफ़ीक़ के पीछे गुंडे भी लगाए गए थे मगर उसने कोई परवाह न की और शर्बत विसाल, विसकी के साथ मिला मिला कर पीता रहा। आख़िर उसने अनवरी को उसकी माँ के पास अमृतसर रवाना कर दिया। इन फ़ातिहाना मगर निहायत तकलीफ़-देह अलफ़ाज़ के साथ लो संभाल लो अपनी सुनडकी पड़ी को।
वो बे-चारी अब अपनी सुनड की पड़ी को क्या संभाल के रखती जिस दिन के लिए उसने उसे संभाल संभाल के रखा हुआ था, उस पर तो रफ़ीक़ ग़ालिबाना क़ब्ज़ा कर चुका था, कर चुका था क्या कर के फ़ारिग़ कर चुका था। चुनांचे उसने मस्लिहत इसी में समझी कि ये पड़ी दूसरे लफ़्ज़ों में अपनी कड़ी ग़ैर मशरूत तौर पर रफ़ीक़ ग़ज़नवी के हवाले कर दे।
रफ़ीक़ ग़ज़नवी का हुस्न-ओ-इश्क़ के सोमनात पर ये पहला मार्का आरा हमला है। अनवरी के बतन और रफ़ीक़ के नुत्फ़े से एक लड़की पैदा हुई जिसका नाम ज़रीना रखा गया। (जो नसरीन के फ़िल्मी नाम से ए आर कारदार ही के फ़िल्म शाहजहाँ में रूही के रूप में जलवागर हुई, हाल ही में रेडियो पाकिस्तान के डिप्टी डायरेक्टर जनरल जनाब अहमद सलमान साबिक़ जंगल किशवर मोहरा की दुख़्तर नेक अख़तर की हैसियत से उस का निकाह कराची में साहिब-ए-सर्वत से हुआ है।)
कई और बरस गुज़र गए... इस दौरान में किन किन मराहिल से मुझे गुज़रना पड़ा। इस का ज़िक्र मुनासिब मालूम नहीं होता इसलिए कि इस मज़मून का मौज़ू सिर्फ़ रफ़ीक़ ग़ज़नवी की ज़ात है।
मैं बम्बई पहुंच गया वहां बहुत देर तक अख़बारों में झक मारता रहा। इस दौरान में मुझे मालूम हुआ कि रफ़ीक़ ने अनवरी को छोड़ दिया है और अब कलकत्ते में है जहां वो फिल्मों के लिए मौसीक़ी मुरत्तिब करता है।
मैं लिखना शुरू कर चुका था। अदबी हलक़ों से मेरा तआरुफ़ भी हो गया था इसलिए उर्दू अदब से दिल-चस्पी लेने वाले मुझे जानने लगे थे। देर तक अख़बारों में झक मारने के बाद मैं फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल हुआ। यहां भी एक दो बरस झक मारना पड़ी। अपने लिए कोई मक़ाम पैदा करते करते मैं हिंदुस्तान सुने टोन पहुंच गया जिसके मालिक सेठ नानू भाई डेसाई थे। आपने कई फ़िल्म कंपनियां क़ायम कीं, उनका दीवाला निकाला। अब उन्होंने हिंदुस्तान सुने टोन के नाम से एक नई फ़िल्म कंपनी की थी जिसके क़याम के साथ ही दिवालिये के आसार नज़र आने लगे थे।
मैंने इस कंपनी के लिए मेड यानी कीचड़ के उनवान से एक कहानी लिखी जो बहुत पसंद की गई। ये इश्तराकी ख़यालों पर उस्तुवार की गई थी। मुझे हैरत है, इस ज़माने में सेठ नानू भाई डेसाई ने उसे क्यों पसंद किया।
मैं मुकालमे लिखने में मसरूफ़ था कि मुझसे किसी ने कहा कि “रफ़ीक़ ग़ज़नवी स्टूडियो में मौजूद है और तुमसे मिलना चाहता है।” पहला सवाल जो मेरे दिमाग़ में पैदा हुआ था कि वो मुझे कैसे जानता है। मैं कुछ सोच ही रहा था कि एक लम-तड़ंग आदमी बहुत उम्दा सिले हुए सूट में नुमूदार हुआ... ये रफ़ीक़ ग़ज़नवी था।
उसने कमरे में अंदर दाख़िल होते ही मुझे मोटी गाली दी और कहा। तुम यहां छिपे बैठे हो।
उसी लम्हे... उसी सानिहा मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं रफ़ीक़ ग़ज़नवी को अज़ल से जानता हूँ। चुनांचे हम देर तक इधर उधर की बातें बड़े बे-तकल्लुफ़ अंदाज़ में करते रहे।
उस के लब-ओ-लहजे, उस की हरकात-ओ-सकनात में एक अजब सतही क़िस्म का लाओबालियाना-पन था... जो तस्वीर मैंने आशिक़ अली फ़ोटोग्राफ़र के डार्क रुम में डिश के अंदर पानी में डुबकियां लगाती देखी थी। उस में और गोश्त-पोस्त के रफ़ीक़ ग़ज़नवी में ये फ़र्क़ था कि वो गुंग थी और ये मुतकल्लिम। लेकिन इस के तकल्लुम का अंदाज़ उस पर सजता था। अगर उस के होंट न खुलते। अगर खुलते तो बेहंगम तरीक़ पर न खुलते जो उस के भद्दे दाँतों और मसूड़ों की बे-वजह नुमाइश करते तो मुझे कोई एतिराज़ न होता। अगर उस की गुफ़्तगू में बाज़ारियत का रंग न होता तो मैं शायद उस के भद्दे दाँतों और मसूड़ों को भी बर्दाश्त कर लेता मगर मुआमला इस के बर-अक्स था।
उस के हाथ नचाने का अंदाज़ भी मुझे पसंद न आया। मुझे ये महसूस होता कि वो जिससे मुख़ातब हैं, बड़े अदना तबक़े से ताल्लुक़ रखता है। ये एहसास ज़ाहिर है कि मेरे लिए ख़ुश-गवार नहीं था बहरहाल चूँकि पहली मुलाक़ात थी और ये भी उतने इश्तियाक़ के बाद। मैंने उन छोटी छोटी बातों का गहरा असर न लिया।
चूँकि उसने मुझे मदऊ किया था इसलिए मैं शाम को उस होटल में पहुंचा। थोड़ी सी तलाश के बाद उस का कमरा मिल गया। अंदर दाख़िल होते ही सबसे पहले मुझे एक कोने में क़ालीन के एक टुकड़े पर विचित्र दुनिया नज़र आई जो रेशमी कपड़े से ढकी हुई थी। उस के सामने दूसरे कोने में रफ़ीक़ के शू और जूते थे जो बड़े सलीक़े से रखे हुए थे फिर मुझे एक औरत नज़र आई जिसके तवाइफ़ होने में कोई शक-ओ-शुबा नहीं हो सकता। ये ज़ोहरा थी (जो अब ज़ोहरा मिर्ज़ा है, मिर्ज़ा साहब किसी ज़माने में फ़िल्म डायरेक्टर थे, अब पंद्रह सोलह बरस से वो फ़िल्म कंपनी खोलने की कोशिश में मसरूफ़ हैं)
ज़ोहरा के साथ दो बच्चे थे। एक लड़का, एक लड़की। लड़का छोटा था, लड़की बड़ी जिसका नाम परवीन था (ये फ़िल्मी दुनिया में शाहीना के नाम से दाख़िल हुई। पहला फ़िल्म “बेली” था जिसकी कहानी मेरी थी। ये बहुत बुरी तरह नाकाम हुई) उस की उम्र उस वक़्त पाँच बरस की होगी।
देखिए, मैं लिखते लिखते वाक़ियात की रौ में ऐसा बहा कि आपको ये बात बताना भूल ही गया कि जब मैं फ़िल्मी दुनिया में दाख़िल हुआ यानी जब मैंने इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी में बतौर मुंशी मुलाज़िमत की तो उस ज़माने में दो नौजवान लड़कियां लाई गईं। एक दुबली थी, दूसरी मोटी। (ये ज़ोहरा की छोटी बहनें थीं शैदां और हैरां)
शैदां बला की चंचल थी। बोटी बोटी पड़ी नाचती थी। नाक नक़्शा अच्छा लेकिन बहुत तेज़ बोलती थी, इतनी तेज़ कि एक लफ़्ज़ दूसरे लफ़्ज़ पर सवार हो जाता। मुझे उस से गुफ़्तगू करते वक़्त बहुत उलझन होती थी। उसी से मुझे मालूम हुआ कि फेकू भाई जान (रफ़ीक़ ग़ज़नवी) अनवरी को छोड़ चुका है और उसने बड़ी बहन ज़ोहरा से ब्याह कर लिया है।
हैरां मोटी और फुसफुस थी। यही वजह है कि वो फिल्मों में न चल सकी। शैदां को इम्पीरियल की रंगीन फ़िल्म “हिंदू माता” में काम मिल गया जो कामयाब रही।
मैं आपको एक दिलचस्प लतीफ़ा सुनाता हूँ। एक रोज़ मैं किसी काम से इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी के मालिक सेठ आर डी शर ईरानी से मिलने गया। दफ़्तर का “स्विंग डोर” खोलता हूँ तो क्या देखता हूँ कि सेठ बड़े इत्मिनान से शैदां का एक पिस्तान यूं दबा रहे हैं जैसे किसी मोटर कार का हॉर्न... मैं उल्टे पांव वापस चला आया।
अब मैं फिर ज़ोहरा की लड़की परवीन की तरफ़ आता हूँ। उस की आँखें नीली थीं जिस तरह ज़रीना अल-मारूफ़ नसरीन की हैं। रफ़ीक़ की आँखें नीली नहीं हैं। अनवरी और ज़ोहरा की भी नहीं और ये दोनों बिलतर्तीब ज़रीना और शाहीना की माएं हैं। अस्ल में आँखों का ये नीलापन उन लड़कियों को उनकी दादी से मिला है। उनकी आँखें ये बड़ी बड़ी और नीलगूं थीं। क़द काठ की बहुत तिकड़ी थी मगर चुनिया बेगम की रसिया।
ख़ैर... रफ़ीक़ मुझसे मिला। मैं कमरे का जायज़ा लेते ही भाँप गया था कि वो इंतिहाई कस्मपुर्सी के आलम में यहां आया है और तलाश-ए-रोज़गार में सरगर्दां।
मैं यहां आपको रफ़ीक़ की अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सियत का एक अजीब-ओ-ग़रीब पहलू दिखाना चाहता हूँ। जब उस पर बंबई की ज़बान में कड़की यानी मुफ़्लिसी का ज़माना आता है तो वो बेहतरीन लिबास पहनता है। जब वो दौर गुज़र जाता है तो वो मामूली कपड़े पहनने लगता है... यूं वो हर लिबास में बांका सजीला नज़र आता है। उस को हर लिबास पहनने का सलीक़ा है।
होटल के कमरे में हम थोड़ी देर रहे। इस के बाद बाग़ीचे में चले गए। मैं विस्की की बोतल अपने साथ लाया था, चुनांचे हम देर तक पीते और बातें करते रहे। इस दौरान में एक दिल-चस्प वाक़िया ज़हूर पज़ीर हुआ।
हम पी रहे थे कि एक भरे भरे जिस्म और अच्छे ख़ासे डीलडौल की औरत आई। उसने रफ़ीक़ की तरफ़ अपनी चुंदसी आँखों से देखा और मुस्कुरा कर कुर्सी पर बैठ गई। रफ़ीक़ ने उस को गिलास पेश किया जो उस ने ले लिया। इस के बाद रफ़ीक़ ने मेरा उस से तआरुफ़ कराया।
वो कोई फ़िल्म-ज़दा औरत नहीं थी। मैं औरत ही कहूँगा इसलिए कि वो लड़कपन के हदूद से बहुत आगे निकल चुकी थी। रफ़ीक़ ने मुझे बताया कि वो सिख मज़हब से ताल्लुक़ रखती है और काफ़ी मालदार है। बंबई सिर्फ़ इस लिए आई है कि अशोक कुमार के सिर्फ़ एक बार दर्शन हो जाएं। मैंने उस से कहा। “साली छोड़ अशोक कुमार को। अपना डीलडौल देख। तुम्हारी छाती पर अगर अशोक कुमार को बिठा दूं तो ऐसा मालूम होगा कि तोता तोप चला रहा है।”
ज़िला जुगत फ़ब्ती रफ़ीक़ का महबूब तरीन मश्ग़ला है। बल्कि यूं कहिए कि ये उस की तबीयत बन चुका है। वो सिख़नी (जिसका नाम मैं भूल गया हूँ) ये फ़ब्ती सुन कर ख़ामोश रही लेकिन रफ़ीक़ ने बड़े ज़ोर का क़हक़हा बुलंद किया और देर तक हंसता रहा।
ये भी उस की आदत है कि फ़ब्ती कहेगा, चुस्त हो या फुसफुसी, कोई दाद दे न दे लेकिन वो ख़ुद अपने आपको ख़ूब दाद देगा। इतना हँसेगा, इतना शोर मचाएगा कि मजबूरन आपको भी इस गुल ग़पाड़े में शरीक होना पड़ेगा।
सिखनी मामूली शक्ल-ओ-सूरत की थी, मोटे मोटे नक़्श, बहुत ही तंग माथा, मर्द नुमा। रफ़ीक़ उस से बातें कर रहा था मगर मुझे एहसास था कि उसे इस औरत से कोई दिलचस्पी नहीं। उस की बातें महज़ बराए बातें थीं। वो उस पर ये ज़ाहिर कर रहा था कि वो उस से जिस्मानी रिश्ता क़ायम करना चाहता है मगर उस के दिल-ओ-दिमाग़ पर अशोक कुमार सवार था। रफ़ीक़ ने जब ज़ोर दिया तो वो ठेट देहाती सिखनियों के अंदाज़ में झुंझला कर बोली। “सुन ले रफ़ीक़, मैं कुत्तों...”
रफ़ीक़ ने फ़ौरन उसे टोका। “बस बस बस... तुम नहीं जानती हो, मैं बहुत बड़ा कुत्ता हूँ बड़ी आला नस्ल का।”
नस्ल वस्ल के मुताल्लिक़ मैं कुछ नहीं जानता लेकिन मैं इतना कह सकता हूँ कि रफ़ीक़ ग़ज़नवी वाक़ई बहुत बड़ा कुत्ता है जिसकी दुम सिर्फ़ तवाइफ़ें ही हिला सकती हैं, कोई शरीफ़ ख़ातून लाख पुचकारे, चमकारे उस की दुम में ख़फ़ीफ़ से भी जुंबिश पैदा नहीं होगी।
ये मेरी उस की पहली मुलाक़ात थी। इस के बाद हम एक दूसरे से मिलते-जुलते रहे। मैं यहां उस के किरदार का एक और पहलू वाज़ेह कर दूँ कि वो अव्वल दर्जे का कमीना, सुफ़्ला और ख़ुद-ग़र्ज़ है। अपनी ज़ात उस के लिए सबसे मुक़द्दम है। वो खाना जानता है, खिलाना नहीं जानता लेकिन मतलब होगा तो वो बड़ी पुर-तकल्लुफ़ दावतें भी करेगा मगर इन दावतों में वो भी मेहमानों का कुछ ख़याल न करते हुए सबसे पहले मुर्ग़ के बेहतरीन हिस्से अपनी प्लेट में डाल लेगा।
वो दोस्तों को बहुत कम सिगरेट पेश करता है। मैं आपको एक वाक़िया सुनाता हूँ जब मुझे बड़ी ख़िफ़्फ़त का सामना करना पड़ा। एक स्टूडियो में उस से मुलाक़ात हुई। जंग का ज़माना था सिगरेटों के तमाम अच्छे ब्रांड ब्लैक मार्केट में बिकते थे। मैंने उस के हाथ में “करीवन ए” का डिब्बा देखा। ये मेरे मर्ग़ूब सिगरेट हैं। मैंने हाथ बढ़ा कर डिब्बा पकड़ना चाहा मगर उसने अपना हाथ झटक कर एक तरफ़ कर लिया। मैंने कहा। “एक सिगरेट देना यार।”
रफ़ीक़ ने पीछे हट कर डिब्बा अपनी जेब में डाल लिया। “नहीं मंटो... अव्वलन में अपना सिगरेट किसी को दिया नहीं करता। सानियन ये सिगरेट आला दर्जे के हैं। तुम्हारी आदत बिगड़ जाएगी। तुम अपने गोल्ड फ्लेक पिया करो।”
मेरे जानने वाले तीन चार आदमी पास खड़े थे। मैं पानी पानी हो गया, समझ में न आया क्या कहूं और क्या करूँ। नाचार खिसयाना हो कर अपनी टांग नोचना शुरू कर दी।
रफ़ीक़ पर्ले दर्जे का बेग़ैरत, कहने को तो पठान है लेकिन ग़य्यूर क़तअन नहीं। सुना है कि पहले उस का सिलसिला ज़ोहरा की माँ से था। इस के बाद उस की बड़ी लड़की मुश्तरी से हुआ। फिर ज़ोहरा की बारी आई, आख़िर में शैदां की।
मुझे मालूम नहीं शैदां से उस का टांका कैसे मिला। इतना याद है वो उन दिनों माहिम में रहता था। ऐंग्लीटोमिंशन की बालाई मंज़िल पर उस का फ़्लैट था। उस के सामने मेरी बहन रहती थी।
मेरी शादी हो चुकी थी और मैं अडलफ़ी चैंबर्ज़, क्लीयर रोड में मुक़ीम था। रफ़ीक़ का हमारे यहां आना जाना था। रेडियो स्टेशन पर भी हमारी अक्सर मुलाक़ात हो जाती थी। एक रोज़ वो अपना प्रोग्राम ख़त्म कर के स्टूडियो से बाहर निकला तो बड़ी अफ़रा-तफ़री में था। देर के बाद मिला था इसलिए मैंने पूछा, “सुनाओ रफ़ीक़ क्या हो रहा है आज कल।”
उसने जवाब दिया। “इश्क़ हो रहे हैं... दुबले हो रहे हैं।” वाक़ई इश्क़ हो रहे थे क्यूं कि एक दिन मालूम हुआ कि ज़ोहरा की छोटी बहन ख़ुरशीद (शैदां) ने अफ़ीम खाली है। (ज़ोहरा भी चुनिया बेगम की आशिक़ है) दोनों बहनों में ज़बरदस्त चख़ हुई थी। ज़ोहरा को सख़्त नागवार गुज़रा था कि शैदां उस के ख़ावंद को उस से छीन रही है। अल्हड़ जवान शैदां जिसको मालूम नहीं उस का फेकू भाई जान उसे मुहब्बत के कितने जाम पिला चुका था, सर से पैर तक नशे में डूबी हुई थी। वो जो कहते हैं इश्क़ और जंग में हर एक चीज़ जायज़ है, ख़ुद को हक़ब जानिब समझती थी और फिर और ख़ुद रफ़ीक़ उस की तरफ़ माइल था। उस की समझ में नहीं आता था कि उस की बड़ी बहन मोअतरिज़ क्यों है... चख़ ज़बरदस्त लड़ाई की शक्ल इख़्तियार कर गई। नतीजा ये निकला कि शैदां ने ज़ोहरा की अफ़ीम उड़ा कर निगल ली ताकि इश्क़ की राह में अपनी जान दे दे। लेकिन जिसको अल्लाह रखे उसे कौन चखे? वो शहादत का रुत्बा हासिल करते करते बच गई और इस हादिसे का अंजाम बिखेरियों हुआ कि रफ़ीक़, ज़ोहरा के दिल का मकान ख़ाली कर के शैदां के दिल की नई कोठी में इक़ामत पज़ीर हो गया।
सुना है कि तातीलों में वो कभी कभी शैदां की मोटी बहन हैरां के दिल के डाक बंग्ले में भी ठहर जाया करता था... रहे नाम अल्लाह और उस के एक नाचीज़ बंदे रफ़ीक़ ग़ज़नवी का।
जब रफ़ीक़ का इश्क़ ज़ोरों पर था, उस ज़माने में लेडी जमशेद जी रोड माहिम के गुलशन महल में लाहौर के एक लाला जी आके ठहरे। आपके साथ एक ख़ूबसूरत लड़की ज़ेब-उन-निसा थी। लाला ज़ेब अजीब-ओ-ग़रीब आदमी थे। आग लगाने को भी रुपया काफ़ी था। उनको इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि उनकी ज़ेब पस-ए-पर्दा क्या करती है, क्या नहीं करती। वो अपने चुग़द-पने में मस्त रहना चाहते थे। रफ़ीक़ दो एक मर्तबा लाला जी से मिलने आया तो उस की आँख ज़ेब से लड़ गई। लड़की सादा-लौह थी। ग़रीब ने घर की सब अच्छी चादरें, ग़िलाफ़, दरियाँ वग़ैरा रफ़ीक़ के हवाले कर दें। उस को खाती पिलाती भी रही लेकिन रफ़ीक़ बहुत जल्द उस से उकता गया। मैंने वजह पूछी तो कहने लगा। “बड़ी शरीफ़ औरत है... मुझे लुतफ़ नहीं आता।”
रफ़ीक़ को औरत में शराफ़त बहुत बुरी तरह खलती है मालूम नहीं क्यूं। यही हो सकता है कि इस का वास्ता चूँकि शुरू ही से एक ऐसे तबक़े की औरतों से पड़ा था, फ़ोहश-कलामी और जुगत बाज़ी जिनका ओढ़ना बिछौना होती है, जो सस्ते और बाज़ारी क़िस्म के मज़ाक़ करती हैं और ऐसे ही हंसी ठट्ठे की दूसरों से तवक़्क़ोअ करती हैं इसलिए रफ़ीक़ के लिए शरीफ़-ख़वातीन में कोई कशिश नहीं थी... उस की जिस्मानी हैसियात को बीवी पन्ना बेदार नहीं कर सकता था।
कहने को तो वो हर उस तवाइफ़ का शौहर था जो उस की नीम बावरा न ज़िंदगी में आई लेकिन दर-हक़ीक़त वो उस का गाहक था... आम गाहक नहीं... ख़ास गाहक (जो तवाइफ़ से लेता है, उस को देता नहीं) जैसा कि रफ़ीक़ अपनी इब्तिदाई ज़िंदगी में था।
जहां तक मैं समझता हूँ कि ज़िंदगी भी रफ़ीक़ के नज़्दीक एक तवाइफ़ है। वो हर रात उस के साथ सोता है। सुब्ह उठते ही पहले सांस के साथ वो उस से जुगत बाज़ी शुरू कर देता है। उस का गाना सुनता है, अपना सुनाता है, फक्कड़-बाज़ी होती है और यूं एक दिन ख़त्म हो जाता है।
मैंने उस को कभी मलूल नहीं देखा। वो बे-हयाई और ढिटाई की हद तक हर वक़्त ख़ुश रहता है। यही वजह है कि वो तंदरुस्त है। इतनी उम्र होने पर भी आप उसे मुअम्मर नहीं कह सकते बल्कि जूँ-जूँ उस की उम्र में इज़ाफ़ा हो रहा है वो जवान होता चला जा रहा है। मुझे कोई ताज्जुब नहीं होगा अगर सौ बरस पूरे होने पर नन्हा मुन्ना बच्चा बन जाये और अँगूठा चूसना शुरू कर दे।
वो शिवाजी पार्क में रहता था। शैदां के हाँ मुर्दा बच्चा पैदा हुवा मैं और मेरी बीवी अफ़सोस करने गए तो एक अजीब-ओ-ग़रीब तमाशा देखने में आया।
रफ़ीक़ फ़र्श पर क़रा क़ुली टोपी पहने नमाज़ पढ़ने के अंदाज़ में बैठा था। मैं अंदर दाख़िल हुआ तो दूसरे कमरे से ज़ोहरा स्याह मातमी लिबास में नुमूदार हुई। बाल खुले थे और आँखें नमनाक। उस के साथ उस का शौहर मिर्ज़ा था जो रफ़ीक़ के लड़के की मौत से बहुत मुतास्सिर दिखाई देता था। दूसरे कमरे में शैदां के रोने की आवाज़ आई तो ज़ोहरा लपक कर अंदर गई और बुलंद आवाज़ में उस को दिलासा देने लगी। मैं रफ़ीक़ के पास मबहूत बैठा सोच रहा था कि या अल्लाह ये क्या मज़ाक़ है।
रफ़ीक़ किसी ज़माने में ज़ोहरा का ख़ावंद था। उस के बत्न से रफ़ीक़ के दो बच्चे थे जो इस कमरे से उस कमरे में जाते और कभी उस कमरे से इस कमरे में जाते। रफ़ीक़ अब ज़ोहरा की बहन शैदां का शौहर है और ज़ोहरा का मिर्ज़ा। शैदां, ज़ोहरा की बहन थी और सौत भी। रफ़ीक़ के बच्चे शैदां के क्या लगते थे। बहन के रिश्ते से ज़ाहिर है, परवीन भांजी और महमूद भांजा और शैदां के जो मुर्दा लड़का पैदा हुआ वो ज़ोहरा का भांजा। परवीन और महमूद का रिश्ता रफ़ीक़ के नुत्फ़े को पेश-ए-नज़र रखते हुए उस मुर्दा लड़के से जो हुआ वो ज़ाहिर है... रफ़ीक़ और मिर्ज़ा दोनों एक दूसरे के हम-ज़ुल्फ़ हुए... मैं चकरा गया लेकिन रफ़ीक़ ने बर वक़्त मुझे इस उलझन से नजात दी और कहा, “आओ बाहर चलें।”
हम बरामदे में पहुंचे तो रफ़ीक़ ने क़रा क़ुली उतार कर ज़ोर से एक तरफ़ फेंकी और सिगरेट सुलगा कर कहा।
“दुरफ़टे मुँह... गम करते करते चेहरा लंबोतरा हो गया है। और खिलखिला कर हंसने लगा।
अर्सा हुआ मैं बम्बई से अपने किसी मुक़द्दमे के सिलसिले में लाहौर आया। उन दिनों रफ़ीक़ भी वहीं था। उस से मुलाक़ात सय्यद सलामत-उल्लाह शाह के नीलाम घर में हुई। अल्लाह बख़्शे शाह साहब बड़े रंगीले आदमी थे। मैंने उनसे रफ़ीक़ का पूछा तो उन्होंने बताया कि अंदर कमरे में है और बहुत ख़ुश है।
मालूम हुआ कि वो अमृतसर में अपनी बेटी ज़रीना अल-मारूफ़ नसरीन (अनवरी के बतन से) से मुलाक़ात कर के आया है। रफ़ीक़ ने उस का बचपन देखा था। उस की जवानी देखने का इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ था। अस्ल में अनवरी ने कोई ऐसा मौक़ा ही नहीं आने दिया था कि नसरीन अपने बाप को देख सकती। उस से यही कहा गया था कि वो बहुत बद-सूरत और बदमाश है।
रफ़ीक़ के दोस्तों ने मिल-जुल कर मन्सूबा बनाया और बाप बेटी की मुलाक़ात का इंतिज़ाम कर दिया। रफ़ीक़ अमृतसर पहुंचा और ज़रीना से मिला। रफ़ीक़ ने मुझसे कहा। “मंटो... सर्व-क़द, बेहद ख़ूबसूरत, जवानी से भरपूर, मैंने जब उसे बाज़ुओं में भींचा तो ख़ुदा की क़सम मज़ा आ गया।”
मैं उस के इन अलफ़ाज़ पर कोई तबसरा नहीं करना चाहता।
रफ़ीक़ ने मुझे बताया कि वो रुख़स्त होने ही वाला था कि अनवरी आन टपकी। हल्की सी चख़ हुई। रफ़ीक़ ने उस से कहा। “ख़ामोश आह अनवरी... शुक्रिया अदा कर कि तुझे एक सोने की कान का मालिक बना दिया है मैंने।”
मालूम नहीं रफ़ीक़ ने ऐसी सोने की कानें किस-किस को अता की थीं। रोज़ मह्शर जब खुदाई होगी, उसी वक़्त पता चल सकेगा। वैसे रफ़ीक़ ने एक-बार मुझसे कहा। “मुझे मालूम नहीं मेरे बच्चे बच्चियों की तादाद कितनी है। अल्लाह बेहतर जानता है कि वो सबसे बड़ा मर्दुम-शुमार है।”
रफ़ीक़ की एक सगी बीवी भी थी यानी सहरे जिलौऊं की ब्याही। ये ग़रीब शादी के तीन चार साल बाद ही मर गई। उस के बत्न से एक लड़की ज़ाहिरा है जो पहले फ़िल्म डायरेक्टर ज़िया सरहदी की बीवी थी और अब तलाक़ लेकर कराची में अपने बाप के साथ रहती है।
मुझे उस लड़की की ज़िंदगी की क़ब्ल अज़-वक़्त तबाही का बहुत अफ़सोस है और मैं समझता हूँ इस तबाही में रफ़ीक़ का हाथ है इसलिए कि वो हमेशा उस को अपनी ज़िंदगी का सानिहा पेश करता था और कहता था, तुम इस में ढल जाओ। ये हक़ीक़त उस की आँखों से मालूम नहीं क्यूं ओझल रही?
नतीजा इस का ये हुआ कि वो आज एक इबरत-अंगेज़ ख़राबे में तब्दील हो चुकी है। उस की शादी के मुताल्लिक़ बम्बई में एक झगड़ा सा पैदा हो गया था। वो भी रफ़ीक़ की ग़फ़लत के बाइस। उस को दूर करने के लिए उसने ज़ोहरा से कहा। “देख पुत्र, तो नज़ीर लुधियानवी से शादी नहीं करना चाहती न कर... ज़िया सरहदी से कर। तज़बज़ुब में है तो दोनों से कर। अगर ये तुम्हें धोका दे गए तो कोई फ़िक्र न करना... मैं तेरा सबसे बड़ा ख़ावंद हूँ, तेरा बाप।”
नज़ीर लुधियानवी को ज़ाहिरा ने धोका दिया, ज़ाहिरा को ज़िया सरहदी ने। अब वो अपने सबसे बड़े ख़ावंद... अपने बाप रफ़ीक़ ग़ज़नावी के पास है। बीड़ियाँ पीती है और उनकी राख में अपनी जवानी की वो तमाम चुलबुलाहटें कुरेद कुरेद कर निकालने की नाकाम कोशिश करती है जो कोई मुस्तक़िल संजीदा शक्ल इख़्तियार कर सकती थीं।
मैं ज़ाहिरा के मुताल्लिक़ और कुछ नहीं कहूँगा इसलिए कि मेरे दुख में इज़ाफ़ा होगा।
रफ़ीक़ में खन्लडरा-पन इस उम्र में भी मौजूद है। छोटी सी बात होगी और वो हंस हंस कर अपना बुरा हाल कर लेगा। बहुत ख़ुश होगा तो उछलना कूदना शुरू कर देगा।
हम फ़िल्मिस्तान में चल चल रहे नौजवान बना रहे थे। हीरो अशोक और हीरोइन नसीम बानो (परी चेहरा) थी। रफ़ीक़ उस में एक रोल अदा कर रहा था। उसने मुझे बताया कि वो नसीम की माँ छमियां (शमशाद) को जानता है जो किसी ज़माने में दिल्ली की क़यामत-ख़ेज़ तवाइफ़ थी।
दिल्ली में एक रात उसे छमियां के बाला ख़ाने पर जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। छमियाँ गा रही थी और साथ ही साथ बिलौरीं सुराही से जाम भर भर कर पी रही थी। मुजरा सुनने वाले और भी थे। शहर के रईस। छमियां उस की तरफ़ देख कर मुस्कुराई और इशारे से अपने पास बुला कर एक जाम पेश किया... रफ़ीक़ पीते गए और वो पंद्रह रोज़ तक उस के बाला-ख़ाने में ज़ेर-ए-हिरासत रहा।
मैंने नसीम से उस का तआरुफ़ कराया। रफ़ीक़ ने उस को जब दिल्ली में देखा तो वो छोटी सी बच्ची थी जो ब-क़ौल रफ़ीक़ हर वक़्त चुनरिया ओढ़े इधर उधर फुदकती रहती थी।
नसीम, रफ़ीक़ को जानती थी। उनमें जो गुफ़्तगू हुई बहुत पुर-तकल्लुफ़ थी। इस की वजह ये है कि नसीम अदब आदाब और रख-रखाव म्ल्हूज़ रखती है। उसने रफ़ीक़ को ऐसा कोई मौक़ा न दिया कि वो ढीली क़िस्म की बात कर सकता लेकिन वो इसी में ख़ुश था। इतना ख़ुश कि मेरे कमरे में पहुंचते ही उसने बे-तहाशा नाचना शुरू कर दिया। नसीम के हुस्न की तारीफ़ में ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाबे मिलाता वो मेज़ पर चढ़ा। वहां से धम कर के फ़र्श पर गिरा और लोटने लगा। लोटते लोटते मेज़ के नीचे चला गया। उठा तो उस का सर तड़ाक़ से उस के साथ टकराया। इस की परवाह न करते हुए उस के नीचे से निकला और गाने लगा।
वो चले, झटक के दामन मेरे दस्त-ए-नातवां से
वो... वो.. वो चले... वो चले... वो चले
मेरा ख़याल है रफ़ीक़ चाहता था कि नसीम बानो से भी सिलसिला हो जाये मगर अंगूर खट्टे थे। इसलिए उसने कोशिश फ़ुज़ूल समझी और उसे देख देख कर ही अपना जी पिशूरी करता रहा।
नूर जहां ग़ालिबन उस के हत्थे चढ़ जाती लेकिन वो बहुत बुरी तरह डायरेक्टर सय्यद शौकत हुसैन रिज़वी की मुहब्बत में गिरफ़्तार थी। मैं उस के मुताल्लिक़ किसी क़दर तफ़सील अपने मज़मून नूर जहां सुरूर जहाँ में लिख चुका हूँ। अलबत्ता रक़्क़ासा सितारा बग़ैर रफ़ीक़ की ख़्वाहिश के और बग़ैर इरादे के सरफ़राज़ हो गई।
अरोड़ा और उस का झगड़ा था। बीच में नज़ीर (ऐक्टर) भी था। इस तिगड़म की गिरहें खोलते खोलते रफ़ीक़ ने सितारा की गिरह भी खोल दी। कुछ इस तरह कि इस का पता रफ़ीक़ को चला न सितारा को।
सोहराब मोदी सिकन्दर बना रहा था। ज़हूर अहमद पवन पुल (बंबई में) जिस्म फ़रोशों की मंडी से एक नौ-वारिद और नौजवान तवाइफ़ मीना को ले उड़ा था। उसने उस नौख़ेज़ को अपनी बीवी बना लिया था। वो मिनर्वा मूवी टोन में मुलाज़िम थी। रफ़ीक़ ग़ज़नवी ने सिकन्दर के लिए एक मार्शल कोर्स मुरत्तिब किया। उस के बोल शायद ये थे।
ज़िंदगी है प्यार से, प्यार से बताए जा
हुस्न के हुज़ूर में अपना सर झुकाए जा
ये कोर्स बहुत मक़बूल हुआ। शायद इसी ख़ुशी में उसने मीना के हुस्न के हुज़ूर में अपना सर झुका दिया मगर ज़्यादा देर तक झुकाए न रखा, तीन चार सज्दे किए और मसअले उठा कर चल दिया।
पवन पुल ही में हैदराबाद से दो बहनें ग़ालिबन शहज़ादा मुअज़्ज़म जाह से अपनी जान छुड़ा कर आबाद हुईं। बड़ी का नाम अख़तर था छोटी का अनवर। उनका वतन दर-अस्ल आगरा था। अनवर बाली उम्र की थी। यही कोई चौदह पंद्रह बरस की। दोनों मुजरा करती थीं। अनवर की मिसी की रस्म अभी तक अदा नहीं हुई थी। बड़ी पर हमारे दिल्ली के एक दोस्त हल्दिया साहब सौ जान से फ़िदा थे।
एक रात मुझे हल्दिया साहब के साथ उन दो बहनों के बाला-ख़ाने पर जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। मुजरा सुनने के बाद बातें शुरू हुईं तो रफ़ीक़ ग़ज़नवी का ज़िक्र आया। मैंने कहा। “बड़ा हराम-ज़ादा है।”
छोटी (अनवर) ने एक तीखी सी मुस्कुराहट के साथ मेरी तरफ़ देखा। आपकी शक्ल इस से मिलती जुलती है।
मुझसे कोई जवाब बन न आया और पेच-ओ-ताब खा के रह गया।
इस वाक़ेए का ज़िक्र मैंने रफ़ीक़ से किया। वो उनको नहीं जानता था। मुझसे पता पूछ कर उसने उनके यहां आना जाना शुरू कर दिया। मेरा ख़याल है ये सिलसिल कम अज़ कम एक बरस तक जारी रहा। रफ़ीक़ ने पेशगोई की कि अनवर एक बहुत बड़ी मुग़न्निया बनेगी और ठुमरी गाने में उस का कोई जवाब न होगा। ये सही साबित हुई। जिन लोगों ने उसे सुना है उस की तस्दीक़ करेंगे।
बम्बई के बाद मैंने अनवर बाई आगरे वाली को दिल्ली रेडियो स्टेशन में देखा। जहां में उन दिनों मुलाज़िम था... हड्डियों का ढांचा थी। अल्लाह अल्लाह क्या इन्क़िलाब था। चंद बरसों ही में ये काया पलट... पवन पुल का वो चुलबुला-पन, वो शरीफ़ और तीखा ग़मज़ा मालूम नहीं कौन ज़ालिम उस के वुजूद से नोच कर ले गया था। अब वो एक लंबी आह थी। बड़ी नाज़ुक हवा के हल्के से हलकोरे से भी जिसके हज़ार टुकड़े हो सकते थे।
माइक्रो-फ़ोन के सामने गाव तकिए का सहारा ले कर बैठी और तानबोरे के साथ अपनी सुर लगा देती कि उस की नहीफ़ गर्दन को सर का सारा बोझ न उठाना पड़े... पर वो गाती और उस की आवाज़ सुनने वालों की रूह की गहराइयों में उतर जाती।
रफ़ीक़ गोया कम है मदारी ज़्यादा है। वो आपको अपना गाना सुनाने से पहले ही वज्द में ले आएगा। बाजे के किसी सर पर उंगली रखेगा और ख़ुद पर सर-ता-पा रिक़्क़त तारी कर के कहेगा हाय ये हाय बहुत लंबी होगी। फिर वो दूसरे सुर को दबाएगा और उस से लंबी हाय उस के हलक़ से निकलेगी जो सामईन के रौंगटे खड़े कर देगी। इस के बाद वो बाजे में मज़ीद हवा भरेगा। उस की आँखों की तलियां ऊपर चढ़ जाएँगी। एक जिगर दोज़ आह उस के सीने की गहराइयों से निकलेगी और जब वो किसी और सुर पर उंगली रखेगा तो उस पर हाल की कैफ़ियत तारी हो जाएगी। क़रीब होगा कि सुनने वाले अपने कपड़े फाड़ने और सर के बाल नोचने लगें तो एक दम वो बे-तहाशा हँसना शुरू कर देगा और बा-क़ायदा गाने लगेगा। आपको यूं महसूस होगा कि प्यासी ज़मीन पर सावन की झड़ी खुल कर बरस जाने के बाद कोई माश्की अपने मुश्क से छिड़काव कर रहा है। गाते वक़्त बहुत बुरे बुरे मुँह बनाता है। ऐसा लगता है कि उसे क़ब्ज़ है। उस के पेट में शिद्दत का दर्द है जिसके बाइस वो पेच-ओ-ताब खा और कराह रहा है। उस को गाते देखकर (खासतौर पर जब वो कोई पक्का गाना गा रहा हो) या तो ख़ुद आपको तकल्लुफ़ होगी या उस की हालत पर तरस आएगा और आप ख़ुलूस-ए-दिल से दुआ करेंगे कि ख़ुदा उसे इस कर्ब से नजात दिलाए।
अज़्रा मीर ने बम्बई के बहुत दौलतमंद यहूदियों के साथ मिलकर लाखों के सरमाए से एक फ़िल्म कंपनी क़ायम की तो अपने पहले फ़िल्म सितारा के म्यूज़िक के लिए रफ़ीक़ ग़ज़नवी को मुंतख़ब किया। अज़्रा मीर ख़ूबसूरत है। उस के साथ यहूदी सरमाया-दार भी ख़ुश शक्ल और रोअब दाब वाले थे। रफ़ीक़ जब उनके साथ खड़ा होता तो बिलकुल अलग नज़र आता था। उस की शान ही दूसरी थी।
रफ़ीक़ जब काम शुरू करता है तो बड़े ठाट से। एक सौ साज़िंदे होंगे जिनके झुरमुट में खड़ा वो सबको हिदायात दे रहा होगा। पंजाबी मीरासियों के साथ मीरासी-पन चलेगा। बात बात पर फब्ती और जुगत। जो क्रिस्चियन हैं, उनसे अंग्रेज़ी में मज़ाक़ होते रहे हैं जो। पी के होंगे उनसे उर्दू में शुस्ता कलामी होगी।
एक दिन रफ़ीक़ दफ़्तर में अज़्रा मीर के साथ बैठा फ़िल्म के किसी गाने के मुताल्लिक़ तबादला-ए-ख़यालात कर रहा था। मैं भी पास बैठा था। कोई बात करते करते वो रुक गया। दफ़्तर से दूर म्यूज़िक रुम था। वहां साज़न्दे इस की एक कंपोज़ीशन की रीहर्सल कर रहे थे। रफ़ीक़ ने अपने कान का रुख़ उस तरफ़ किया जहां से आवाज़ आ रही थी और नाक भौं चढ़ा कर बड़े अज़िय्यत भरे लहजे में कहा। डैश एट... एक वाइलन आउट ऑफ़ ट्यून है। और उठकर म्यूज़िक रुम की तरफ़ चला गया।
मुझे मौसीक़ी से कोई शग़फ़ नहीं मगर मैंने अपने वक़्त के तमाम बड़े बड़े गाने वालों और गाने वालियों को सुना है लेकिन राग विद्या नहीं सीख सका। लेकिन मैं रफ़ीक़ के मुताल्लिक़ इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि वो सुरीला नहीं। मौसीक़ी का इल्म वो कहाँ तक जानता है इस के बारे में राय देना मेरी तरफ़ से बहुत बड़ी ज़्यादती होगी। अलबत्ता वो लोग जो ख़ुद मौसीक़ार हैं और जिनका मौसीक़ी के मैदान में काफ़ी नाम है। उनमें से अक्सर का ये कहना है कि रफ़ीक़ बेसुरा है। सुर से एक एक दो दो सूत्र हट कर गाता है।
थोड़े ही दिन हुए नूर जहां से बातें हो रही थीं कि रफ़ीक़ का ज़िक्र छिड़ गया। मैंने उस से रफ़ीक़ के बारे में दूसरों की मुंदरजा बाला तन्क़ीस का ज़िक्र किया तो उसने जेब दाँतों तले दबा कर और दोनों कानों को अपनी उंगलियों से छूते हुए कहा। “तौबा, तौबा... ये महज़ इफ़्तिरा है... वो उस्ताद है, अपनी तर्ज़ का वाहिद मालिक।”
लेकिन उसने ये तस्लीम किया कि अब रफ़ीक़ की आवाज़ में वो पहली सी चमक दमक नहीं रही और ये महज़ उम्र का तक़ाज़ा है, जहां तक इल्म का ताल्लुक़ नूर जहां उसे गुनी कहती है।
उस के एक गुन का मैं भी मोअतरिफ़ हूँ। वो बे-शर्म है, बे-हया है, बे-ग़ैरत है लेकिन औबाश नहीं। उस की उफ़्ताद आम आदमी की नहीं एक आर्टिस्ट की उफ़्ताद है। वो अगर शरीयत का पाबंद नहीं तो मुरव्वजा क़वानीन का पाबंद ज़रूर है। वो अगर किसी का दोस्त नहीं तो किसी का दुश्मन भी नहीं। वो अगर सही मायनों में किसी औरत का शौहर नहीं तो जहां तक मैं समझता हूँ आज तक उसने किसी औरत को मजबूर नहीं किया कि वो सही मायनों में उस की बीवी बने।
शरीफ़ औरतें चूँकि उस के मतलब की नहीं इसलिए वो उनका एहतिराम करता है। ग़ैर-शरीफ़ औरतें चूँकि उस को अच्छी लगती हैं इसलिए वो उनकी बे-हुरमती करता है। बैंक में रुपया हो तो अच्छे और शानदार कपड़े पहनने की ज़रूरत महसूस नहीं करता। बैंक बैलेन्स ख़ाली हो तो अच्छे और शानदार कपड़े पहनना ज़रूरी समझता है।
दिल्ली के एक मुअज़्ज़िज़ हिंदू ख़ानदान की एक तालीम-याफ़्ता नौजवान दोशीज़ा को उस से मुहब्बत हो गई। देर तक वो रफ़ीक़ को इश्क़िया ख़ुतूत लिखती रही। रफ़ीक़ बम्बई में था कि उस का ऐसा ख़त आया कि रफ़ीक़ परेशान हो गया। मुझे बड़ी हैरत हुई कि रफ़ीक़ और परेशानी। दो मुतज़ाद चीज़ें?
रफ़ीक़ ने सारी राम-कहानी सुनाई और कहा। “मंटो, ये लड़की पागल हो गई है। मैं एक हरजाई मर्द हूँ। मुझे इस अफ़लातूनी मुहब्बत से क्या वास्ता। कहती है घर से भाग कर मेरे पास आ जाएगी... आ जाए ठीक है लेकिन मैं कब तक उस की शरीफ़ और पाकीज़ा मुहब्बत से चिपका रहूंगा... ख़ुदा के लिए तमाम शरीफ़ औरतें अपने घर में रहें। शादी करें, बच्चे जनें और जाएं जहन्नुम में, मुझे उनका इश्क़ दरकार नहीं। मेरी सारी उम्र गुज़र गई, खोटे सिक्के चलाते। खरे मुझसे नहीं चलेंगे।”
चुनांचे रफ़ीक़ ने उस हिंदू दोशीज़ा को ऐसा दिल-शिकन ख़त लिखा कि वो अपने इरादे से बाज़ आ गई।
रफ़ीक़ पर ये मज़मून तिश्ना है। मुझे इस का शदीद एहसास है इस पर्कसी अख़बार, रिसाले या किताब के लिए जब भी कोई मज़मून लिखेगा, तिश्ना ही रहेगा इसलिए कि उस की हज़ार पहलू शख़्सियत का अहाता चंद सफ़हात नहीं कर सकते। ज़िंदगी में अपने तास्सुरात क़लम-बंद कर के एक मुकम्मल किताब की सूरत में पेश करूँगा।
आख़िर में एक लतीफ़ा सुन लीजिए।
फ़िल्म “चल चल रे नौजवान” के ज़माने में रफ़ीक़ ने प्रोड्यूसर एस. मुकर्जी, डायरेक्टर ज्ञान मुकर्जी, अशोक कुमार, शन्तोशी, शाहिद लतीफ़ और मेरी दावत की। हम सब रफ़ीक़ के मकान वाक़ेअ शिवाजी पार्क पहुंचे। रफ़ीक़ हल्के हल्के सुरूर में हार्मोनियम सामने रखकर फ़र्श पर बैठा था। पास ही शैदां थी और उस का भाई। हम पहुंचे तो उसने हमारा इस्तिक़बाल किया। मेरा गालियों से और बाक़ियों का सलामों से।
शराब के दौर तीन दौर चले। दूसरों को उसने स्काच दी और मुझे सोलन की यानी देसी। मैं ख़ामोश रहा। वो हसब-ए-आदत बात बात पर मुझे गालियां देता रहा। मैंने कोई जवाब न दिया। खाना लगाया गया। हसब-ए-मामूल उसने मुर्गे के गोश्त के अच्छे अच्छे टुकड़े निकाल कर अपनी प्लेट में रख लिए।
खाना खाने के बाद एक एक कर के सब चले गए। मैं बैठा रहा। शैदां अंदर जाके सो गई। रफ़ीक़ ज़्यादा पीने का आदी नहीं। वो पहले ही से बंबई की ज़बान में चिकार था। मुर्ग़न खानों से उस की आँखें मुंदने लगीं। मैं चुपके से उठा, दूसरे कमरे में जा कर बड़े इत्मिनान से अलमारी खोली और स्कॉच की बोतल उठा लिया। आधी से कुछ ज़्यादा थी। मैं आराम से पीता रहा। साथ ही साथ उस के साले को भी देता रहा। कभी कभी रफ़ीक़ को उकसा देता और वो ग़ुनूदगी के आलम यूं चंद लुक्नत भरी गालियां मुँह से उगल देता।
अब मैंने जो मुग़ल्लिज़ात बकना शुरू कीं तो रफ़ीक़ बिलबिला उठा। मेरी गालियों की फ़ेहरिस्त कोई इतनी लंबी चौड़ी नहीं। दो तीन मर्तबा मुँह भरा तो ख़त्म हो गईं। मैंने ये उस्तादी की, कि गाली आधी करता और दूसरी आधी गाली के साथ जोड़ कर लुढका देता। इस तरकीब से भी ज़्यादा देर तक काम न चला लेकिन मैंने सोचा कमबख़्त को होश कहाँ है जो अलम-ग़लल्म मुँह में आए, निकाल बाहर फेंको। चुनांचे मैंने यही कहा। रफ़ीक़ नशे से चूओर पेच-ओ-ताब खाता रहा। आख़िर उसने मुर्दा आवाज़ में कहा। जाने दो मंटो मेरी जान... मैं थक गया हूँ। मुझमें अब गालियां देने की सकत नहीं है।
मैं यही तो चाहता था कि उस में सकत न हो वर्ना मैं और उस के मुक़ाबले की जुर्रत करता?
मैंने इस पर ये मज़मून लिखा है जिसे पढ़ कर वो यक़ीनन अपने मख़सूस अंदाज़ में मुझे बड़ी नस्तालीक़ गालियां देगा... लेकिन मैं लाहौर में हूँ, वो कराची में। फ़िलहाल तो महफ़ूज़ हो। लाहौर आएगा तो मैं उस की मुग़ल्लिज़ात सुन लूँगा। फिर उस की दावत करूँगा और जिमख़ाना विसकी में स्प्रिट घोल कर... ख़ुद पी लूँगा।
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