तपिश कश्मीरी
मुझे उनका असल नाम अभी तक मालूम नहीं... हालाँकि मैं उनको बारह बरस से जानता हूँ... सात बरस तो हम इकट्ठे एक साथ रहे... दर-अस्ल उनका नाम पूछने की मुझे कभी ज़रूरत ही महसूस ना हुई... तपिश काश्मीरी काफ़ी था... वो इस नाम से मशहूर थे।
तपिश काश्मीरी अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सियत के मालिक थे। जब वो लाहौर में थे तो ज़िला कचहरी की एक अदालत में अहलमद थे। आपने तरक़्क़ी की तरफ़ क़दम बढ़ाया तो आप पियादा हो गए... इस तर्क-ए-माकूस का उन पर कुछ असर न हुआ और वो हर हालत में ख़ुश रहते थे।
जिस मजिस्ट्रेट से वो मुंसलिक थे, उस की रोज़ हज्व लिखते और काग़ज़ इसी के मेज़ पर रख आते... वो चीख़ता चिल्लाता... मगर तपिश साहब ख़ामोश रहते, जैसे उनको किसी बात का इल्म ही नहीं... फ़िलबदीह शेर कहने में महारत-ए-ताम्मा रखते थे।
एक दफ़ा का ज़िक्र है, बंबई में एक नागपूरी शायर ने जो बज़ात-ए-ख़ुद फ़िलबदीह शेर कहने में... ज़फ़र अली ख़ान से कई मिस्रे आगे थे, तपिश साहब से कहा,
“हज़रत! चलो, आज गुफ़्तगू शेरों ही में हो...”
तपिश साहब ने बड़ी इन्किसारी के साथ कहा,
“जैसे आपकी मर्ज़ी...”
और साथ ही गुफ़्तगू का आग़ाज़ एक शेर से कर दिया... नागपूरी शायर सटपटा गए और ज़हन पर ज़ोर देकर तपिश साहब के इस शेर का जवाब शेर में फ़िक्र करने लगे।
तपिश साहब ने फ़ौरन एक और शेर गढ़ कर उनसे पूछा कि “जनाब देर क्यूं लगा रहे हैं... जल्दी गुफ़्तगू शुरू कीजिए।”
नागपूरी शायर बौखला गया।
मेरा ख़याल है उनके इस इस्तिफ़सार से उस के दिमाग़ से वो सब कुछ निकल गया जो उसने बड़ी मेहनत से सोचा था।
तपिश साहब ने उस पर तीन चार शेर और चुस्त कर दिए, वो और बेचारा नागपूरी चारों ख़ाने चित्त हो गया।
मैं यहां पर अर्ज़ करना ज़रूरी समझता हूँ कि तपिश साहब की शायरी में कोई जान नहीं... यूं तो उनका हर शेर बड़ा जचा तुला होता है, उरूज़ की कोई ख़ामी नहीं होती। ऐसा मालूम होता है कि धर्म कांटे में तुल कर आया है। बड़ी संगलाख़ ज़मीनों में तबअ-आज़माई करते हैं और क़रीब क़रीब हर-रोज़ दो तीन ग़ज़लें या नज़्में फ़िलबदीह लिखते हैं, लेकिन शाज़-ओ-नादिर उनके क़लम से कोई ऐसा शेर निकलता है जो सही मानों में शेअर कहलाने का मुस्तहिक़ हो।
उन्होंने बिला मुबालिग़ा दस बारह लाख शेर लिखे होंगे मगर उस को वो बाइस-ए-इफ़्तिख़ार नहीं समझते वो ख़ुद को भी शायर कहलाना पसंद नहीं करते, उनको अपनी शायरी से कोई दिल-चस्पी नहीं थी।
बेश्तर इस के कि मैं कुछ और बयान करूँ, मैं तपिश साहब की अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सियत के बारे में चंद और बातें भी बताना चाहता हूँ जो बहुत दिल-चस्प और हैरत-अंगेज़ हैं।
एक ज़माना था वो लाहौर के ज़िला कचहरी में मुलाज़िम थे। एक वक़्त ऐसा आया कि उनको इस्लामिया स्कूल के एक लड़के से इश्क़ हो गया। बड़ा अफ़लातूनी क़िस्म का। उनको मालूम हुआ कि ये लड़का नमाज़ पढ़ता है। सुब्ह-सवेरे अपने मुहल्ले की मस्जिद में फ़ज्र की नमाज़ अदा करने जाता है। ये मालूमात हासिल होते ही आप सुब्ह तीन बजे उठते।
सख़्त सर्दियों का मौसम था। मस्जिद में जाकर झाड़ू देते। फिर ठंडे यख़ पानी से ग़ुसल करते और अज़ान देना शुरू कर देते। मस्जिद का मुल्ला जो बहुत ही बुढ्ढा और सुस्त था, अपने हुजरे में चौंक पड़ता कि ये अज़ान कौन दे रहा है। जब तक वो उठकर बाहर निकलता तपिश साहब ने इमामत शुरू कर दी होती थी। वो लड़का उनके पीछे नमाज़ पढ़ रहा होता, इस से उनको बड़ी रुहानी मसर्रत हासिल होती थी।
ये सिलसिला काफ़ी देर तक जारी रहा।
एक मर्तबा उस लड़के की साइकिल ख़राब हो गई। उसने अपने नौकर को दी कि ठीक करा लाए... तपिश साहब ने देख लिया... और साइकिल नौकर से लेकर एक दूकान पर ले गए। उस के तमाम पुर्ज़े अलाहदा कर दिए। मिट्टी के तेल में डुबो कर उनको साफ़ किया... दुकानदार से जो उनका दोस्त था कपड़ा मांगा कि वो उन्हें ख़ुश्क करें... मगर उस के पास नहीं था। चुनांचे तपिश साहब ने अपनी नई बोसकी की क़मीस उतारी, उस को फाड़ा और तमाम पुर्ज़ों पर से तेल ख़ुश्क कर के उनको ख़ूब चमकाया। जब साइकिल ठीक हो गई तो उस लड़के के नौकर के हवाले कर दी और कहा,
“देखो... बाबूजी से मत कहना कि मैंने ठीक की है।” उस लड़के की दोस्ती इसी दौरान में अपने एक हम-जमआत से हो गई। तपिश साहब को इस का इतना दुख हुआ कि नीम पागल से हो गए। डाढ़ी बढ़ा ली। सख़्त गर्मियां थीं... मगर आप ओवर कोट पहनते थे... सरपुर पानामा हैट और छींट की नैकर में... पांव में फ़ुल बूट... लेकिन उनकी बातें जब भी ग़ैर-मुतवाज़िन नहीं होती थीं।
उस ज़माने में उन्होंने उस लड़के के बारे में बेशुमार शेर कहे जो शेर कहलाने के मुस्तहिक़ हैं, इसलिए कि उनमें तपिश साहब के दिल को जो ठेस पहुंची थी, उस का साफ़ पता चलता है। उनमें दर्द है कसक है और अफ़लातूनी इश्क़ की तमाम गहराइयाँ भी मौजूद हैं।
यूं भी तपिश साहब को दुनयावी मुआमलात से कोई ख़ास दिल-चस्पी नहीं थी, लेकिन इस हादिसे के बाद वो बिलकुल बेनियाज़ हो गए। खाना मिला है तो खा लिया है, नहीं मिला तो कोई पर्वा नहीं।
मुझे एक लतीफ़ा याद आ गया...
हम लाहौर के हाजी होटल में बैठे थे। तपिश साहब खाना खा चुके थे, लेकिन मुझे खाना था। वो मेरे पास बैठे थे कि इतने में उनके चंद दोस्त आए जो पास वाले मेज़ पर बैठ गए। उनमें से एक ने तपिश साहब से अलैक सलैक करने के बाद कहा “आइए खाना तनावुल फ़रमाइए।”
तपिश साहब ने शुक्रिया अदा किया,
“ख़ुदा आपको बहुत बहुत दे... मैं घर से खा कर आया हूँ।”
उनके दोस्त ने बड़ा इसरार किया कि वो ज़रूर खाएं। आख़िर तंग आ कर वो उनके पास बैठ गए और बारह रोटियाँ और सालन मंगवाई। इस के बाद फ़िर्नी की चार प्लेटें खाईं और ख़ुदा का शुक्र अदा कर के वहां से उठे और मेरे पास चले आए... उनके उस दोस्त की हालत क़ाबिल-ए-रहम थी।
जिसने अज़-राह-ए-तक़ल्लुफ़ उनको दावत दी थी। वो बिलकुल मबहूत था। वो शायद उस लम्हे पर लानतें दर लानतें भेज रहा था... जब उसने तपिश साहब से कहा,
“आइए! खाना तनावुल फ़रमाइए...”
मेरा ख़याल है कि तपिश साहब में ज़ाइक़े की हिस मौजूद नहीं थी। वो हर चीज़ खा सकते थे। थूहर और केले में उनके नज़दीक कोई फ़र्क़ नहीं था। कच्चे चावल हों या उबले हुए... ताज़ा हों या पाँच छः रोज़ के बासी उनके लिए एक जैसे थे।
मैंने कभी उनको किसी चीज़ के बारे में शिकायत करते नहीं सुना... जो मिल जाये ठीक है... लेकिन हैरत है कि इस क़िस्म की तपक तबीयत का मालिक जो फ़ालूदे में ख़ैर नमकीन चाय और नीलोफ़र का शर्बत मिला कर पी जाता, तमाम सबज़ियां पत्तों और डंठलों समेत खाता है, एक एक पाव सुर्ख़ मिर्चें फांक जाता है, अपनी सेहत कैसे बरक़रार रख सकता है।
उनकी सेहत क़ाबिल-ए-रश्क हद तक अच्छी थी... सुर्ख़ रंगत, सर का एक बाल भी सफ़ेद नहीं हुआ था... हालाँ कि वो मुझसे उम्र में सात आठ बरस बड़े थे।
यानी छियालीस सैंतालीस बरस के लग भग थे, मगर उनके मुक़ाबले में मैं बूढ़ा दिखाई देता था। मेरे सर के बाल आधे से ज़्यादा सफ़ेद हो चुके थे।
तपिश साहब को औरतों से कोई रग़्बत नहीं थी। उनका ये कहना था कि सिन्फ़-ए-नाज़ुक से सिन्फ-ए-करख़त को कोई वास्ता नहीं होना चाहिए। शीशे का रिश्ता पत्थर से ग़ैर फ़ित्री है। यही वजह है कि उन्होंने अपनी बीवी को जिसको उन्होंने कभी घर में बसाया ही नहीं था... आख़िर उसे तलाक़ देकर आज़ाद कर दिया।
जब मेरे बुलाने पर बंबई आए तो वो अपनी बीवी को तलाक़ देकर आए थे। मुझसे उन्होंने इस बात का ज़िक्र बहुत देर बाद में किया... क्यूं कि उनके ख़याल के मुताबिक़ ये कोई इतनी अहम बात नहीं थी।
लेकिन इस का रद्द-ए-अमल उन पर इस सूरत में नुमूदार हुआ कि उन्होंने बा-क़ायदा क़ुरआन-मजीद की तिलावत शुरू कर दी... मगर उनकी तिलावत का तरीक़ा भी अजीब-ओ-ग़रीब है।
मैंने एक रोज़ देखा कि वो सुब्ह-सवेरे उठे, ग़ुस्ल किया और अलिफ़ नंगे, बदन ख़ुश्क किए बग़ैर कुर्सी पर बैठ गए। हमायल शरीफ़ निकाली और तिलावत शुरू कर दी... एक पारा पढ़ा... कपड़े पहने और बाहर निकले। मैं हैरत में गुम था कि आख़िर ये सिलसिला क्या है?
कहीं इनका दिमाग़ तो नहीं चल गया है लेकिन मेरा ख़याल ग़लत साबित हुआ। बाहर निकल कर उन्होंने ट्राम की एक टिकट पर नज़्म लिखी। मुझसे बड़ी पुर-ओ-मग़्ज़ गुफ़्तगू की। मेरी ज़बान की चंद ग़लतियों की तरफ़ मेरी तवज्जो दिलाई। मेरे दिमाग़ में चूँकि बड़ी खुद-बुद हो रही थी, इसलिए मैं उनसे पूछे बग़ैर न रह सका।
“तपिश साहब... आप नंगे... नंगे बदन क़ुरआन-मजीद की तिलावत क्यूं करते हैं? क्या ये मायूब नहीं...?”
तपिश साहब मुस्कुराए...
“क़ुरआन में कहीं भी ये हुक्म सादिर नहीं किया गया कि आदमी तीनों कपड़े पहन कर उस की तिलावत करे... मैं इसलिए कपड़े नहीं पहनता कि मबादा उनमें कोई गंदगी की आलाईश हो... नहाने के बाद मैं तौलिए से अपना बदन भी इसी लिए ख़ुश्क नहीं करता।”
अजब मंतिक़ थी।
बहर-हाल, मैं ख़ामोश रहा क्यूं कि उनसे बात करना एक अच्छी ख़ासी तवील बहस का आग़ाज़ करना था।
इसी दौरान में उन्हें तप-ए-मोहरक़ा हो गया... मैंने डाक्टर को बुलाया। सोला रुपये उस की फ़ीस अदा की... मगर तपिश साहब ने इस डाक्टर से बड़े करख़त लहजा में कहा,
“साहब! आपको यहां किस ने बुलाया है... मुझे मालूम है मेरा आरिज़ा क्या है और मुझे इस का इलाज भी मालूम है... आप तशरीफ़ ले जाएं तो बेहतर है”
डाक्टर साहब तशरीफ़ ले गए... तपिश साहब ने इक्कीस दिन फ़ाक़ा-कशी की, कुछ खाया न पिया... इस के बाद उन्होंने मुझे बुलाया और कहा,
“मैं अब बिलकुल ठीक हो गया हूँ... नौकर को चौपाटी भेजो और आठ आने का रगड़ा मंगवाओ... ढेर सारी मिर्चें हों।”
रगड़ा बंबई की ज़बान में चाट को कहते हैं... यानी आलू छोले।
मेरी समझ में नहीं आता है कि ये ख़ौफ़नाक चीज़ें मंगवाओं या न मंगवाओं, मगर तपिश साहब के आगे क्या पेश चल सकती थी, आख़िर मैंने नौकर को चौपाटी भेजा और रगड़ा मंगवाया जो तपिश साहब ने सब का सब खा लिया। मेरा ख़याल है कि उस में इतनी मिर्चें और इतनी खटाई थी जो बीस बाइस आदमियों को भी पेचिश या इस्लाह-ए-मेअदा में गिरफ़्तार कर देती। लेकिन ताज्जुब है कि दूसरे रोज़ वो बिलकुल ठीक ठाक थे... ऐसा मालूम होता था कि उन्हें तप-ए-मोहर्रिक़ा कभी हुआ ही नहीं था... मैंने जब अपनी हैरत का इज़हार किया तो उन्होंने मुझसे कहा,
“बिरादरम, हर बीमारी के लिए इलाज होते हैं... ज़रूरी नहीं कि हर शख़्स अपने मर्ज़ का इलाज किसी डाक्टर हकीम ही से कराए... ख़ुदा ने हर आदमी को अपने अवारिज़ दूर करने की (सलाहियत) वदीअत फ़रमाई है... वो अगर उस से काम ले तो डाक्टरों और तबीबों की ज़रूरत ही नहीं।”
वो बिलकुल ठीक ठाक हो गए... उनका रंग जो किसी क़दर पीला हो गया था, चंद रोज़ में रगड़ा खा खा कर फिर वही सुर्ख़ी इख़्तियार कर गया। आपने फिर इसी तरह हर-रोज़ नज़्में और ग़ज़्लें कहना शुरू कर दीं... मुझे ऐसा महसूस होता था कि वो कभी बीमार ही नहीं हुए।
बहुत दिन गुज़र गए।
मेरा मतलब है क़रीब क़रीब ढाई महीने का अरसा बीत गया... इस के बाद एक दिन अचानक तपिश साहब ने मुझसे कहा,
“मैं आपके यहां ठहरना मुनासिब नहीं समझता।”
मैंने हैरत से पूछा,
“क्यूं?”
“किसी दोस्त को ज़्यादा देर तक तकलीफ़ नहीं देना चाहिए।”
मैंने उनसे कहा,
“मुझे कोई तकलीफ़ नहीं... आप महज़ तकल्लुफ़ कर रहे हैं।”
तपिश साहिब जिस बात का तहय्या कर लें... बिलआख़िर वो पूरी होती है, चुनांचे वो अपना छोटा सा टीन का बक्स उठा कर मेरे घर से चले गए।
मालूम नहीं कहाँ...
अगर उन्होंने अपने ठिकाने के मुताल्लिक़ मुझे कुछ बताया होता तो मैं यक़ीनन हर रोज़ नहीं तो दूसरे तीसरे रोज़ ज़रूर जाता... मगर वो इस अफ़रा-तफ़री में गए कि मैं उनसे कुछ पूछ न सका।
एक दिन वो ख़ुद आए... खिलाफ़-ए-मामूल नया सूट पहना हुआ था... बालों में तेल भी था... मुझसे मिलते ही कहने लगे,
“बिरादरम... मुझे इश्क़ हो गया था, दर-अस्ल”
मैं चकरा गया... तपिश साहब और इशक़... क्या उस लाहौरी लड़के का कोई नेअम-उल-बदल बंबई में पैदा हो गया है।
तपिश साहब ने मुझे ज़्यादा देर तज़बज़ुब में न रखा और अपने इश्क़ की रूदाद सुना दी...
मुझे ये मालूम कर के बड़ी हैरत हुई कि उन्हें एक लड़की से इश्क़ हुआ था।
ये लड़की एक मुजावर की बेटी थी। उस की माँ मर चुकी थी। तपिश साहब विक्टोरिया गार्डन में उस को अपने साथ लाए और मुझे मजबूर किया कि उस का फ़ोटो उतारा जाये चुनांचे उनके अहकाम के मुताबिक़ मैं अपने एक दोस्त से कैमरा लेकर पहुंचा...
लड़की ख़ूबसूरत थी... बड़ी अल्लहड़ क़िस्म की... तपिश साहब से बहुत झेंपती थी। उस से ज़्यादा मुझसे, और उस से भी ज़्यादा इर्द-गिर्द के माहौल से...
ख़ैर, मैंने चार पाँच पोज़ लिए... और विक्टोरिया गार्डन में उन दोनों को छोड़ कर घर चला आया... मेरे दिल-ओ-दिमाग़ बहुत मुज़्तरिब थे। मेरे क़यास में कभी ये चीज़ आ ही नहीं सकती थी कि तपिश काश्मीरी साहब कभी किसी औरत में दिल-चस्पी लेंगे। लेकिन जैसा कि मुझे बाद में मालूम हुआ, वो उस लड़की से जिसका नाम मुझे याद नहीं आ रहा, वालिहाना मुहब्बत करते थे।
मैंने एक रोज़ उनसे कहा,
“तपिश साहब इतनी देर हो गई है आप उस से शादी क्यों नहीं कर लेते?” उन्होंने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया,
“मैं रुपया जमा कर रहा हूँ... उस के बाप से तमाम बातों का फ़ैसला हो चुका है...
मैंने उस के भाई के लिए एक सूट बनवा दिया है, बाप को भी कुछ रुपये दे चुका हूँ, इसलिए कि उस के पास शादी के अख़राजात के लिए कुछ... भी नहीं... एक सोफ़ा सेट... एक ड्रेसिंग टेबल और चार कुर्सियाँ भी ख़रीद कर उस के बाप के हवाले कर दीं... मैं चाहता हूँ शादी के बाद उन्ही के साथ रहूं... वो उदास नहीं होगी।”
मैंने कहा,
“ये बहुत अच्छा और नेक ख़याल है।”
तपिश साहिब ज़रा फूल से गए।
“हरामकारी का क़ाइल नहीं... उस से बाक़ायदा अक़्द करना चाहता हूँ।” मैंने उनसे इस ख़दशे का ज़िक्र किया जो अचानक मेरे दिमाग़ में पैदा हो गया था।
“हो सकता है... कोई और... मेरा मतलब है, कोई और आप पर बाज़ी ले जाये...” तपिश साहब के गाल और ज़्यादा सुर्ख़ हो गए...
“कौन बाज़ी ले जा सकता है मुझ पर... मैं शायर हूँ... लेकिन और... दर्रे का मुंडा भी हूँ, मैं क़लम के अलावा लठ से भी काम लेना जानता हूँ...”
तपिश साहिब घर बनाने की फ़िक्र में मसरूफ़ थे कि उस लड़की का मआशक़ा एक नौजवान पहलवान से हो गया... इसी दौरान में लड़की के बाप को हैज़ा हुआ और वो दो दिन के बाद ही राह-मुल्क-ए-अदम हुआ।
तपिश साहब ने उस की तजहीज़-ओ-तकनीफ़ का सामान किया... बड़े एहतिराम से उस को दफ़न किया।
चौथे रोज़ उन्हें मालूम हुआ कि लड़की उसी नौजवान पहलवान के साथ भाग गई है...
ये उन्हें ऐन उस वक़्त-ए-मालूम हुआ जब वो खेत वाड़ी स्ट्रीट से निकले थे। तपिश साहब ने साइकिल किराए पर ली और उस मोटर का तआक़ुब किया जिसमें पहलवान उस लड़की को अग़वा कर के ले जा रहा था।
तपिश साहब ने उनको पकड़ लिया होता... मगर उनकी साइकिल एक विक्टोरिया गाड़ी की झपट में आ गई... आप बहुत बुरी तरह ज़ख़्मी हुए, दाएं कलाई की हड्डी टूट गई।
दोस्तों ने उन्हें हस्पताल में दाख़िल करा दिया।
चोट इतनी असर-अंदाज़ हुई... कि वो कई दिन बेहोश रहे। उनका बाज़ू प्लास्टिक में बंधा हुआ था... हिलने जुलने की इजाज़त नहीं थी।
पर जब उन्हें ज़रा होश आया तो उन्होंने ये ठानी कि हस्पताल से किसी न किसी तरीक़े से बाहर निकलना चाहिए, जनरल वार्ड में थे...
जब देखा कि डाक्टर खाना खाने गए हैं... तो वार्ड से निकल आए और सीधे मेरे पास आए, और कहा,
“मुझसे फ़ुज़ूल बातें मत पूछना!”
मैंने उनसे कोई फ़ुज़ूल बात न पूछी।
लेकिन...
एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा,
“मैं अब क्या करूँ...”
अब इस का मेरे पास क्या जवाब हो सकता था... मैंने सिर्फ़ इतना कहा,
“तपिश साहिब... आप मुझसे बेहतर जानते हैं मैं तो कम-अक़्ल हूँ...”
तपिश साहब मेरा ये जवाब सुनकर चंद लमहात ख़ामोश रहे।
उस के बाद कहा,
“ठीक है हर शख़्स अपने मुआमलात अच्छी तरह जानता है।”
दूसरे दिन से उन्होंने ज़नाना लिबास पहनना शुरू कर दिया... ये वही कपड़े थे जो उन्होंने उस लड़की के लिए बनवाए थे।
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