इक़बाल की रूह को तकलीफ़
किसी जलसे में सरदार जाफ़री इक़बाल की शायरी पर गुफ़्तगू कर रहे थे। इधर-उधर की बातों के बाद जब सरदार ने ये इन्किशाफ़ किया कि इक़बाल बुनियादी तौर पर इश्तिराकी नुक़्ता-ए-नज़र के शायर थे तो मजमे में से कोई “मर्द-ए-मोमिन” चीख़ते हुए बोला, “जाफ़री साहब, आप ये क्या कुफ़्र फ़र्मा रहे हैं। शायर-ए-मशरिक़ और इश्तिराकियत ला-हौल वला क़ुव्वा। आप अपनी इस ख़ुराफ़ात से इक़बाल की रूह को तकलीफ़ पहुंचा रहे हैं।”
जलसे की पहली सफ़ों से मजाज़ फुलझड़ी की तरह छुटते हुए बोले, “हज़रत! तकलीफ़ तो आपकी अपनी रूह को पहुँच रही है जिसे आप ग़लती से इक़बाल की रूह समझ रहे हैं।”
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