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असरार-उल-हक़ मजाज़ के क़िस्से
बस एक ही बुरी आदत है, साहब!
फ़िल्मी अख़बार के एडिटर मजाज़ से इंटरव्यू लेने के लिए मजाज़ के होटल पहुँच गए... उन्होंने मजाज़ से उनकी पैदाइश, उम्र, तालीम और शायरी वग़ैरा के मुताल्लिक़ कई सवालात करने के बाद दबी ज़बान में पूछा, “मैंने सुना है क़िबला, आप शराब बहुत ज़्यादा पीते हैं। आख़िर इसकी
अहमक़ों की आमद
मजाज़ तन्हा काफ़ी हाउस में बैठे थे कि एक साहब जो उनके रुशनास नहीं थे, उनके साथ वाली कुर्सी पर आ बैठे। काफ़ी का आर्डर देकर उन्होंने अपनी कनसुरी आवाज़ में गुनगुनाना शुरू किया, अहमक़ों की कमी नहीं ग़ालिब एक ढूंढ़ो हज़ार मिलते हैं मजाज़ ने उनकी तरफ़ देखते
मजाज़, शराब, औरत और क़द्र-दान
मजाज़ से किसी ने पूछा, “मजाज़ साहब, आपको औरतों ने खाया या आपके क़द्र-दानों ने, या शराब ने?” शराब का गिलास मुँह से लगाते हुए मजाज़ बोले, “हमने सबको बराबर का हिस्सा दिया है।”
अमाँ सदर जाओगे?
रात का वक़्त था। मजाज़ किसी मयख़ाने से निकल कर यूनीवर्सिटी रोड पर तरंग में झूमते हुए चले जा रहे थे। इसी बीच उधर से एक ताँगा गुज़रा। मजाज़ ने उसे आवाज़ दी। ताँगा रुक गया। आप उसके क़रीब आए और लहरा कर बोले, “अमाँ सदर जाओगे?” “हाँ जाऊँगा।” “अच्छा तो जाओ।”
राजा महमूदाबाद की नसीहत और मजाज़ का जवाब
एक बार राजा महमूदाबाद ने मजाज़ को नसीहत करते हुए बड़े प्यार से समझाया, “देखो मियां! अगर तुम शराब पीना छोड़ दो तो मैं तुम्हारे गुज़ारे के लिए चार सौ रुपये माहवार वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर दूंगा।” मजाज़ ने बड़े अदब से जवाब दिया, “मगर राजा साहब, ये तो सोचिए कि
जोश की घड़ी मजाज़ का घड़ा
जोश मलीहाबादी आमतौर पर शराब पीते वक़्त टाइम पीस सामने रख लेते और हर पंद्रह मिनट के बाद नया पैग बनाते थे लेकिन ये पाबंदी अक्सर तीसरे चौथे पैग के बाद “नज़र-ए-जाम” हो जाती थी। एक सोहबत में उन्होंने पहला पैग हलक़ में उंडेलने के बाद अपने टाइम पीस की तरफ़
इक़बाल की रूह को तकलीफ़
किसी जलसे में सरदार जाफ़री इक़बाल की शायरी पर गुफ़्तगू कर रहे थे। इधर-उधर की बातों के बाद जब सरदार ने ये इन्किशाफ़ किया कि इक़बाल बुनियादी तौर पर इश्तिराकी नुक़्ता-ए-नज़र के शायर थे तो मजमे में से कोई “मर्द-ए-मोमिन” चीख़ते हुए बोला, “जाफ़री साहब, आप ये
ये नक़्श-ए-फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
किसी मुशायरे में मजाज़ अपनी ग़ज़ल पढ़ रहे थे। महफ़िल पूरे रंग पर थी और सुनने वाले ख़ामोशी के साथ कलाम सुन रहे थे, कि इतने में किसी ख़ातून की गोद में उनका शीर-ख़्वार बच्चा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। मजाज़ ने अपनी ग़ज़ल का शे’र अधूरा छोड़ते हुए हैरान हो कर पूछा, “भई, ये
बाप का बिगड़ना
शौकत थानवी ने एक दफ़ा मजाज़ के वालिद की बड़ी तारीफ़ की, मगर साथ ही ये भी कह दिया कि, “मजाज़ को शराबनोशी की बुरी आदत पड़ गयी है, किसी तरह ये आदत उनसे छुड़वाइए।” ये ख़बर जब मजाज़ तक पहुंची तो बहुत ख़फ़ा हुए और उनसे कहा, “या मुझसे दोस्ती रखिए या मेरे वालिद
हैदराबादी का ‘क़’
हैदराबाद दक्कन में “क़ाफ़” की जगह आम तौर पर लोग “खे़” बोलते हैं। किसी हैदराबादी ने मजाज़ को एक दावत पर मदऊ करते हुए कहा, “मजाज़ साहब!,कल मेरी फ़ुलां अ’ज़ीज़ा की तख़रीब (तक़रीब) है। ग़रीब-ख़ाने पर तशरीफ़ लाइए।” मजाज़ ने ख़ौफ़-ज़दा हो कर जवाब दिया, “नहीं साहब,
शराब से तौबा
जिगर मुरादाबादी ने निहायत हमदर्दाना अंदाज़ में शराब की ख़राबियाँ बयान करते हुए मजाज़ से कहा, “मजाज़ शराब वाक़ई ख़ाना-ख़राब है। ख़ुम के ख़ुम लुंढाने के बाद अंजाम-कार मुझे तौबा ही करनी पड़ी। मैं तो दुआ’ करता हूँ कि ख़ुदा तुम्हें तौफ़ीक़ दे कि तुम भी मेरी तरह
साग़र का अँगूठा
एक मुशायरे के इख्तिताम पर जब साग़र निज़ामी को असल तय-शुदा मुआवज़े से कम रक़म दी गई और उसकी रसीद उनके सामने रखी गई तो वो उसे देखते ही एक दम फट पड़े, “मैं इस पर दस्तख़त नहीं कर सकता।” इतने में मजाज़ वहाँ आए। उन्होंने ये जुमला सुना तो निहायत मासूमियत से
ख़ालिस ‘ज़बान’ के शे’र
एक बार दिल्ली में एक मुशायरा हो रहा था, मजाज़ लखनवी भी मौजूद थे। दिल्ली के एक मुअ’म्मर शायर जब कलाम सुनाने लगे तो कहा, “हज़रात मैं दिल्ली के क़िला-ए-मुअल्ला की ज़बान में शे’र अर्ज़ करता हूँ।” उनके दाँत बनावटी थे। चुनांचे एक दो शे’र सुनाने के बाद जब ज़रा
मजलिस-ए-वा’ज़ में मजाज़
मजाज़ अपनी नीम दीवानगी की हालत में एक-बार किसी मजलिस-ए-वा’ज़ में पहुँच गए। उनके किसी जानने वाले ने हैरत-ज़दा हो कर पूछा, “हज़रत मजाज़, आप और यहाँ?” “जी हाँ।” मजाज़ ने बहुत संजीदगी से जवाब दिया, “आदमी को बिगड़ते क्या देर लगती है भाई।”
नक़्क़ादों पर लानत!
“मैं मुतवातिर कई सालों से शे’र कह रहा हूँ और उर्दू शायरी में कामयाब तजरबे कर चुका हूँ। मेरे मुतअद्दिद मंजूम शाहकार उर्दू अदब में एक तारीख़ी इज़ाफे़ की हैसियत रखते हैं। लेकिन इसके बावजूद जब ये नक़्क़ाद हज़रात उर्दू शायरों का जाइज़ा लेते हैं तो मुझे नज़र अंदाज
मजाज़ का वुज़ू
एक अदब नवाज़ मजिस्ट्रेट ने मजाज़ को बस्ती आने की दावत दी। मजाज़ ने कहा, “कुछ काम की बात भी होगी।” उसने जवाब दिया, “तुम आओ तो नहला दूंगा।” मजाज़ मुस्कुरा कर बोले, “ख़ैर वहाँ तो नहला दोगे। यहाँ कम-अज़-कम वुज़ू तो करवा ही दो।”
हिन्दुस्तान के आम, रूस के अवाम
आमों की एक दावत में आम चूसते-चूसते सरदार जाफ़री ने मजाज़ से कहा, “कैसे मीठे आम हैं मजाज़, रूस में और हर चीज़ मिल जाती है लेकिन ऐसे मीठे आम वहाँ कहाँ।” “रूस में आमों की क्या ज़रूरत है?” मजाज़ ने बिला ताम्मुल जवाब दिया, “वहाँ अ’वाम जो हैं।”
मजाज़ के कबाब, फ़िराक़ का गोश्त
मजाज़ और फ़िराक़ के दरमियान काफ़ी संजीदगी से गुफ़्तगू हो रही थी। एक दम फ़िराक़ का लहजा बदला और उन्होंने हंसते हुए पूछा, “मजाज़ तुमने कबाब बेचने क्यों बंद कर दिए?” “आपके यहाँ से गोश्त आना जो बंद हो गया।” मजाज़ ने अपनी संजीदगी को बरक़रार रखते हुए फ़ौरन जवाब
मारवाड़ी सेठ और मजाज़ का तख़ल्लुस
मजाज़ बम्बई में थे। किसी मारवाड़ी सेठ ने जो मजाज़ से ग़ाइबाना अक़ीदत रखता था, मजाज़ से मुलाक़ात की और चलते वक़्त बड़े तकल्लुफ़ के साथ पूछा, “मजाज़ साहब माफ़ कीजिएगा, क्या मैं आपका तख़ल्लुस पूछ सकता हूँ?” मजाज़ ने गर्दन झुका कर चुपके से कहा, “इसरार-उल-हक़।”
गरेबाँ और चाक-ए-गरेबाँ
“इस्मत चुग़्ताई! तुम लखनऊ से मेरे लिए दो चीज़ें लाना मत भूलना। एक तो कुरते दूसरे मजाज़।” इस्मत लखनऊ में मजाज़ से मिलीं तो शाहिद लतीफ़ की फ़रमाइश दोहरा दी। मजाज़ ने जवाब दिया, “अच्छा गरेबाँ और चाक-ए-गरेबाँ दोनों को मंगवाया है।”
मजाज़, शायर नहीं लतीफ़ा बाज़!
एक बार किसी अदीब ने मजाज़ से कहा, “मजाज़ साहब, इधर आपने शे’रों से ज़्यादा लतीफ़े कहने शुरू कर दिए हैं।” “तो इसमें घबराने की क्या बात है?” और वो अदीब मजाज़ की इस बात पर वाक़ई घबराते हुए कहने लगा, “इसका मतलब ये होगा कि जब किसी मुशायरे में आप शे’र
कार में अर्श और मुअल्ला
लखनऊ के किसी मुशायरे में शरीक होने के लिए जब जोश मलीहाबादी कार से वहाँ पहुंचे तो मुशायरा-गाह के गेट ही पर मजाज़ ख़ैर-मक़दम के लिए मौजूद थे। जोश साहब कार से निकले तो मजाज़ ने निहायत नियाज़-मंदी से हाथ मिलाया। उसके बाद अर्श मलसियानी भी उसी कार से बाहर आए
घड़ी साज़ महबूबा
मजाज़ एक मुशायरे में नज़्म सुनाने के लिए खड़े हुए। बम्बई के एक सेठ जो उनके परस्तार थे, उनके ज़ेह्न में मजाज़ की नज़्म ‘नर्स’ का ये मिसरा था मगर नज़्म का उनवान याद न था। ‘कभी सोज़ थी वो कभी साज़ थी वो’ चुनांचे सेठ साहब ने फ़रमाइश करते हुए कहा, “मजाज़ साहब,
बम्बई ड्राई है
एक बार हैदराबाद में मजाज़ और फ़िराक़ दोनों एक साथ ठहरे हुए थे। फ़िराक़ ने मजाज़ से मशवरे के अंदाज़ में कहा, “बम्बई चले जाओ, तुम्हारे गीत फ़िल्म वाले बड़ी क़ीमत देकर ख़रीदेंगे।” मजाज़ कहने लगे, “बम्बई में रुपये किस काम आएंगे?” फ़िराक़ ने हैरत-ज़दा हो कर पूछा,
हिन्दुस्तान का एडिटर
ज़हरा अंसारी से एक बार मजाज़ ने हयात उल्लाह अंसारी का तआरुफ़ कराया। उस ज़माने में हयात उल्लाह अंसारी साहब “हिंदुस्तान” के एडिटर थे। मजाज़ ने कहा, “आप ‘हिंदुस्तान’ के एडिटर हैं।” ज़हरा ने ज़ोर दे कर कहा, “अच्छा, आप हिंदुस्तान के एडिटर हैं?” मजाज़ को
अदीबों की पज़ीराई
1949 ई. का ज़िक्र है, जब हुकूमत तरक़्क़ी-पसंद अदीबों को यके बाद दीगरे सरकारी मेहमान बना रही थी। अली जव्वाद ज़ैदी ने मजाज़ से फ़रमाया, “हमारी हुकूमत अदीबों से बड़ा तआ’वुन कर रही है। उनके लिए एक अच्छी सी कॉलोनी बनाने की सोच रही है।” “सेंट्रल जेल में
शेर से पहले शराब शेर के बाद भी शराब
एक मुशायरे में मजाज़ जब अपनी नीम बेहोशी के आलम में भी अपनी नज़्म, बोल री ओ धरती बोल राज-सिंघासन डाँवावाँडोल बड़ी कामयाबी के साथ पढ़ चुके तो हंसराज रहबर ने छेड़ते हुए कहा, “मजाज़ भाई, क्या ये नज़्म तुमने शराब पी कर कही थी?” “बल्कि कहने के बाद भी