किस नूर की मज्लिस में मिरी जल्वागरी है

किस नूर की मज्लिस में मिरी जल्वागरी है
मीर मुज़फ़्फ़र हुसैन ज़मीर
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किस नूर की मज्लिस में मिरी जल्वागरी है
किस नूर की मज्लिस में मिरी जल्वागरी है
जिस नूर से पुर-नूर ये नूर-ए-नज़री है
आमद ही में हैरान क़यास-ए-बशरी है
ये कौन सी तस्वीर-ए-तजल्ली से भरी है
गो हुस्न का रुत्बा नहीं मज़कूर हुआ है
मिम्बर मिरा हम-मर्तबा-ए-तूर हुआ है
सद शुक्र कि मज्लिस मरी मुश्ताक़-ए-सुख़न है
ये फ़ैज़-ए-इनायात-ए-हुसैन और हसन है
फिर जोश-ए-जवानी पे मरी तब्अ-ए-कुहन है
ये क़ुव्वत-ए-इमदाद शह-ए-तिश्ना-दहन है
नक़्क़ाश में ये सनअत-ए-तहरीर नहीं है
तस्वीर दिखाता हूँ ये तक़रीर नहीं है
नक़्क़ाश तो करता है क़लम ले के ये तदबीर
इक शक्ल नई सफ़्हा-ए-क़िर्तास पे तहरीर
इंसाफ़ करो किल्क-ए-ज़बाँ से दम-ए-तहरीर
मैं सफ़्ह-ए-बातिन में रक़म करता हूँ तस्वीर
सौ रंग से तस्वीर मुसव्विर ने भरी है
रनीगीनि-ए-मज़मूँ की कहाँ जल्वागरी है
तस्वीर मैं उस शख़्स की हूँ तुम को दिखाता
जो सानी-ए-महबूब-ए-इलाही है कहाता
इक नूर जो जाता है तो इक नूर है आता
वज्ह-ए-अदम-ए-साया-ए-अहमद हूँ सुनाता
था ब'अद-ए-मोहम्मद के जो आया अली अकबर
था अहमद-ए-मुख़्तार का साया अली अकबर
याँ तक सुख़न-ए-ताज़ा किया तब्अ ने पैदा
वो नूर-ए-नबी और नबी नूर-ए-ख़ुदा का
ये सिलसिला-ए-नूर कहाँ जा के है पहुँचा
अकबर को जो देखा तो बताओ किसे देखा
वल्लाह ज़ियारत का सज़ा-वार है अकबर
नेमुल-बदल अहमद-ए-मुख़्तार है अकबर
लेकिन तुम्हें तस्वीर ये करती है इशारत
हाँ मजलिसियाँ रोज़ा-ए-जन्नत की बशारत
हो महव-ए-तहारत है अगर क़स्द-ए-ज़ियारत
है लाज़िम-ओ-मलज़ूम ज़ियारत को तहारत
इस क़स्द पे बैठे हो जो साहिब-ए-नज़रो तुम
तज्दीद-ए-वज़ू अश्क के पानी से करो तुम
लिखा है कि थी हज़रत-ए-शब्बीर को आदत
होती थी नमाज़-ए-सहरी से जो फ़राग़त
पहले अली अकबर ही को बुलवाते थे हज़रत
फ़रमाते थे करता हूँ इबादत में इबादत
रौशन हो न क्यूँ चश्म-ए-हुसैन इब्न-ए-अली
करता हूँ ज़ियारत में जमाल-ए-नुब्वी की
करते अली अकबर तो झुका फ़र्क़ को मुजरा
हर मर्तबा मिल जाता था पाँव से सर उन का
ताज़ीम को होते थे खड़े सय्यद वाला
कहते अली अकबर कि ये क्या करते हो बाबा
शहि कहते थे आदत थी ये महबूब ख़ुदा की
ताज़ीम वो करते थे बतूल अज़्रा की
ए जान पिदर है मुझे वाजिब तिरी तौक़ीर
तो सर से क़दम तक है मरे नाना की तस्वीर
तब जोड़ के हाथों को वो नो बादा शब्बीर
गर्दन को झुका श्रम से करता था ये तक़रीर
बस ख़त्म शराफ़त हुई फ़र्र ज़िंदा अली
रखा है क़दम आप ने दोष नबवी पर
तब लेते थे पेशानी का बोसा शहि ज़ीशान
कहते थे कि शीरीं सख़्ती पर तिरी क़ुर्बान
ज़ैनब ने सुने राज़-ओ-नयाज़ उन के ये जिस आन
चलाई कि दोनों पे तसद्दुक़ हो मरी जान
देखा ना कोई बाप अगर इबन अली सा
बेटा भी सुना है कोई हमशकल नबी सा
सन लो अली अकबर की ज़यारत का क़रीना
पहले तो कुदूरत से करो साफ़ ये सीना
फिर दीदा-ए-बातिन को करो दीदा-ए-बीना
ता जलवा नुमा हो रुख़ सुलतान मदीना
मालूम हुआ सफ़ा-ए-कुरां अली अकबर
तहक़ीक़ हुआ काबा-ए-ईमां अली अकबर
क़ुरआन की तशबीया ये इस दल ने बताई
पेशानी अनवर है कि है लौह तिलाई
अब्रू से है बिसमिल्लाह कुरां नज़र आई
जदूल शश ज़ुल्फ़ की बालों ने दिखाई
वो ज़ुल्फ़ वो बीनी अलिफ़-ओ-लाम रक़म है
पर मीम दहन मिल के ये इक शक्ल अलम है
और काअबा दुल्हा की ये तमसील है अज़हर
ये ख़ाल सय है हिज्र अलासोद ज़ेवर
महिराब हिर्म पेशे नज़र अबरवे अकबर
ये चाह-ए-ज़क़न है चह ज़मज़म के बराबर
इस बीनई अक़्दस का मुझे ध्यान गुर आया
काअबा में धरा नूर का मिंबर नज़र आया
देखो कि सफ़ा है रुख़ अकबर से नुमायां
यां सुई में हरदम है दिल ज़ैनब नालां
काअबा जो सय पोश है ए साहिब इरफ़ां
यां भी रुख़ अनवर पे हैं गीसवे परेशां
इस ज़ुल्फ़ में पाबंद दिल शाह उनम है
ज़ंजीर में काबे की ये क़ंदील हिर्म है
क्या क़दर कोई पाए मुबारक की मुनारे
ये रुकन हैं काअबा के अर फ़हम ख़ुदादे
इंसाफ़ करो तुम को ख़ुदा उस की जज़ा दे
इस रुकन को यूं उम्मत बेदीन गिरा दे
हज तुम ने किया काबे का जब चशम इधर है
मानी हज्ज-ए-अकबर के यही हैं जो नज़र है
सब आते हैं काबे ने ये है मर्तबा पाया
ये क़िबला-ए-ईमान हिदायत का जो आया
आहूए हरम जान के मजरूह बनाया
और ख़ून का दरिया था हर इक सिम्त बहाया
क़ुर्बानी हो काबे में ये फ़रमान ख़ुदा है
ये काअबा तो उम्मत ही ये क़ुर्बान हुआ है
हुस्न अली अकबर तो सुनाया नहीं जाता
कुछ दिल ही मज़ा चशम तसव्वुर में पाता
इस क़द का अगर बाग़ में मज़कूर है आता
तब सर्व अनगशत-ए-शहादत को उठाता
पेशानी तू आईना लबरेज़ सफ़ा है
अब्रू है कि ख़ुद क़िबला है और क़िबलानुमा है
मानिंद दाये सहरी क़द रसा है
माथा है कि दीबाचा अनवार ख़ुदा है
दो ज़ुल्फ़ ने इक चांद सा मुँह घेर लिया है
वस्ल शब क़दर-ओ-शब मेराज हुआ
दो ज़ुल्फ़ें हैं रुख़सार दिल अफ़रोज़ भी दो हैं
हाँ शाम भी दो हैं बह ख़ुदा रोज़ भी दो हैं
है चशम सय बसक़ि तहा अबरवे ख़मदार
सौ पंचा-ए-मझ़गां को उठाए तन बीमार
महिराब के नीचे ये दुआ करते हैं हरबार
इस चशम जहां हैं को ना पहुंचे कोई आज़ार
गेसू नहीं ये सुंबुल फ़िर्दोस निशां हैं
ये चशम नहीं नर्गिस शहलाए जहां हैं
होंटों से कहो दी जो अतश की है नमूदार
होता है धुआँ आतिश याक़ूत से इज़हार
ग़ुस्से से जो अब्रू में शिकन पड़ती है हरबार
बाला उसे समझे हैं सर्द ही का वो कुफ़्फ़ार
अब्रू जो हर इक मोय मुबारक से भरा है
एजाज़ से शमशीर में नेज़ों को धरा है
इस अबरोव बीनी में पाई गई सूरत
जिस तरह मह ईद पे अनगशत-ए-शहादत
शम्मा हिर्म हक़ ने किया साया-ए-वहदत
गौहर ये नया लाया है ग़व्वास तबीयत
मतबू हर इक शक्ल से पाया जो रक़म को
यां रख दिया नक़्क़ाश दो आलम ने क़लम को
ख़त जलवा नुमा आरिज़ गुलगों पे हुआ है
मसहफ़ को किसी ने वर्क़ गुल पे लिखा है
ये चशम ये क़द हुस्न में एजाज़ नुमा है
हाँ अहल-ए-नज़र सर्व में बादाम लगा है
तीरों से सिवा तरकश मझ़गां का असर है
दुश्मन के लिए रेज़ा-ए-अलमास जिगर है
कानों का ता ज़ुल्फ़ मुसलसल है इशारा
दो फूल हैं सुंबुल में निहां वक़्त नज़ारा
किस को सिफ़त हुस्न बना गोश का यारा
ख़ुरशीद से देखो तो टपकता है सितारा
चेहरा ग़र्क़ आलूदा दम सफ़ शिकनी है
ख़ुरशीद पे हर क़तरा सुहेल मैनी है
ख़ुरशीद पे हर क़तरा सहल यमनी है
बर्गशता मुज़ा उस की ये करती है इशारे
गर गशतगी उम्र के सामान हैं सारे
मझ़गां के ये नेज़े जो ख़मीदा हुए बारे
धड़का है कि नेज़ा कोई अकबर को ना मारे
यकचशम ज़दन में जो फ़लक इस से फिरेगा
इस चशम के मानिंद ये नेज़ों से घिरेगा
लब हैं कि है दरयाए लताफ़त बह सिरा औज
इस औज में पैदा यम क़ुदरत की हुई मौज
हैं फ़र्द नज़ाकत में मगर देखे में ज़ौज
दो होंट हैं और प्यास की है चारों तरफ़ फ़ौज
बंद आँखें हैं लब ख़ुशक हैं और आलिम ग़श है
और मुँह में ज़बां माही दरयाए अतश है
किस मुँह से करे अब कोई मदह दर्द नदां
कुछ क़दर नहीं दर अदन की जहां चंदाँ
तारे से चमकने लगे जिस दम हुए ख़ंदां
मुज़म्मों ये है काबुल दुशवार पसनदां
ये क़ायदा कली है ना हो मदह बशर से
कली कोई जब तक ना करे आग गुहर से
गर्दन है कि फव्वारा-ए-नूर अज़ली है
ये दोष तो हमदोश बदोश नबवी है
सीना है कि आईना वज़ा अहदी है
दिल साफ़