फ़िक्र-ए-नील-ओ-काशग़र रखता हूँ मैं
फ़िक्र-ए-नील-ओ-काशग़र रखता हूँ मैं
कितना लम्बा दर्द-ए-सर रखता हूँ मैं
मुस्तक़िल अज़्म-ए-सफ़र रखता हूँ मैं
एक फ़ुट फ़ुट-पाथ पर रखता हूँ मैं
कौन सी छब उस को आ जाए पसंद
सौ तरह के भेस भर रखता हूँ मैं
मैं परिंदों का सियासत-दान हूँ
मुर्ग़ पर तिल्यर के पर रखता हूँ मैं
इतनी लम्बी कार अपने मुल्क मैं
रख नहीं सकता मगर रखता हूँ मैं
आदमी ''थर पारकर'' का हूँ मगर
यार इक ''न्यूयॉर्कर'' रखता हूँ मैं
उस की ज़ुल्फ़-ए-ता-कमर के वास्ते
इस क़दर मोटी कमर रखता हूँ मैं
उस के फोटो के सिवा कुछ जेब में
मुझ पे ल'अनत हो अगर रखता हूँ मैं
डर है तोते ही न खा जाएँ मुझे
नाशपाती जैसा सर रखता हूँ मैं
शेर अमानत है ज़माने की 'ज़मीर'
अपना क़िस्सा मुख़्तसर रखता हूँ मैं
- पुस्तक : sargoshiyan (पृष्ठ 64)
- रचनाकार : sayed Zameer jafary
- प्रकाशन : dost publications (1998)
- संस्करण : 1998
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