जो ख़ुदा को अपने मैं ने किसी वक़्त भी पुकारा
जो ख़ुदा को अपने मैं ने किसी वक़्त भी पुकारा
तो किसी का क्या है साझा तो किसी का क्या इजारा
मुझे ज़ख़्मी करते करते हुआ ज़ख़्मी आप ज़ालिम
बड़ी मुश्किलों से मैं ने अभी मारा है फटारा
है ख़ुदा के ज़िक्र में भी तुझे इस क़दर तकल्लुफ़
ये उमूर-ए-ख़ैर में भी अरे वाइज़ इस्तिख़ारा
कोई बानी-ए-जफ़ा है कोई बानी-ए-वफ़ा है
मज़ा देखना है क्या हो है मुक़ाबला करारा
ज़रा इक झलक इधर भी ज़रा इक झलक उधर भी
रहे ता-ब-हश्र क़ाएम तिरे हुस्न का इदारा
बड़े हौसले थे पहले बड़े वलवले थे पहले
जो अमल का वक़्त आया हुए आप नौ-दो-ग्यारा
थी हमारी जितनी दौलत उसे लूट ले गए बुत
ये बता रहे हैं हम को वो दिखा के गोशवारा
ये नई नई जफ़ाएँ ये नए नए मज़ालिम
जो ख़लिश है वो दोशीज़ा जो लक़ब है वो कँवारा
ये चमन पे छा गया है मिरे माली का तलव्वुन
कि बदल रहा है चोला शब ओ रोज़ अब नज़ारा
अभी कूचे कूचे बाक़ी असर-ए-दरिंदगी है
कि ज़माना कर रहा है अभी ख़ून का गरारा
तिरी दिल-शिकन नज़र ने किया पस्त हौसलों को
लगा ख़ून थूकने वो जो ज़रा सा भी खँकारा
भला 'शौक़' देखूँ क्यूँकर रुख़-ए-पुर-शिकन का मंज़र
मिरे दाँत ही कहाँ हैं जो मैं खा सकूँ छुआरा
- पुस्तक : intekhab-e-kalam shauq bahraichi (पृष्ठ 85)
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