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ऐ सबा गर शहर के लोगों में हो तेरा गुज़ार

मीर तक़ी मीर

ऐ सबा गर शहर के लोगों में हो तेरा गुज़ार

मीर तक़ी मीर

MORE BYमीर तक़ी मीर

    सबा गर शहर के लोगों में हो तेरा गुज़ार

    कहियो हम सहरा-नवर्दों का तमामी हाल-ए-ज़ार

    ख़ाक-ए-देहली से जुदा हम को किया यक-बारगी

    आसमाँ को थी कुदूरत सो निकाला यूँ ग़ुबार

    मंसब-ए-बुलबुल ग़ज़ल-ख़्वानी था सो तो है असीर

    शा'इरी ज़ाग़-ओ-ज़ग़न का क्यों होवे अब शि'आर

    ताइर-ए-ख़ुश-ज़मज़मा कुंज-ए-क़फ़स में है ख़मोश

    चहचहे चहियाँ करें हैं सेहन-ए-गुलशन में हज़ार

    बर्ग-ए-गुल से भी किया एक ने टुक हम को याद

    नामा-ओ-पैग़ाम-ओ-पुर्सिश बे-मरातिब दरकिनार

    बे-ख़लिश क्यूँकर हो गर्म-ए-सुख़न गुलज़ार में

    मैं क़फ़स में हूँ कि मेरा था दिलों में ख़ार ख़ार

    बुलबुल-ए-ख़ुश-लहजा के जाए पे गो ग़ौग़ाइयाँ

    तरह ग़ौग़ा की चमन में डालीं पर क्या ए'तिबार

    ताइरान-ए-ख़ुश-लब-ओ-लहजा नहीं रहते छुपे

    शोर से उन के भरे हैं क़र्या-ओ-शहर-ओ-दयार

    शहर के क्या एक दो कूचों में थी शोहरत रही

    शहरों शहरों मुल्कों मुल्कों है उन्हों का इश्तिहार

    क्या कहूँ सू-ए-चमन होता जो मैं सरगर्म-ए-गश्त

    फूल-गुल जब खिलने लगते जोश-ज़न होती बहार

    शोर सुन सुन कर ग़ज़ल-ख़्वानी का मेरी हम-सफ़ीर

    ग़ुंचा हो आते जो होता आब-ओ-रंग-ए-शाख़-सार

    ख़ुश-नवाई का जिन्हें दा'वा था रह जाते ख़मोश

    जिन को मैं करता मुख़ातब उन को होता इफ़्तिख़ार

    बा’ज़ों को रश्क-ए-क़ुबूल-ए-ख़ातिर-ओ-लुत्फ़-ए-सुख़न

    बा’ज़ों का सीना फ़िगार बा’ज़ों का दिल दाग़-दार

    एकों के होंटों के ऊपर आफ़रीं उस्ताद था

    एक कहते थे रुसूख़-ए-दिल है अपना उस्तुवार

    रब्त का दा'वा था जिन को कहते थे मुख़्लिस हैं हम

    जानते हैं ज़ात-ए-सामी ही को हम सब ख़ाकसार

    नक़्ल करते क्या ये सोहबत मुन’अक़िद जब होती बज़्म

    बैठ कर कहते थे मुँह पर मेरे बा'ज़े बा'ज़े यार

    बंदगी है ख़िदमत-ए-आली में हम को देर से

    कर रखी है जान अपनी हम ने हज़रत पर निसार

    सो ख़त उन का कोई परचा पहुँचा मुझ तलक

    वाह-वा है राब्ता रहमत है ये इख़्लास-ओ-प्यार

    रफ़्ता रफ़्ता हो गईं आँखें मिरी दोनों सफ़ेद

    बस-कि नामे का किया यारों के मैं ने इंतिज़ार

    लिखते गर दो हर्फ़ लुत्फ़-आमेज़ बा’द-अज़-चंद-रोज़

    तो भी होता इस दिल-ए-बेताब-ओ-ताक़त को क़रार

    सो तो यक ननविश्ता काग़ज़ भी आया मेरे पास

    उन हम-आवाज़ों से जिन का मैं किया रब्त आश्कार

    ख़त किताबत से ये कहते थे भूलेंगे तुझे

    आवेंगे घर-बार की तेरे ख़बर को बार बार

    जब गया मैं याद से तब किस का घर काहे का पास

    आफ़रीं सद-आफ़रीं मर्दुमान-ए-रोज़गार

    अब बयाबाँ दर बयाबाँ है मिरा शोर-ओ-फ़ुग़ाँ

    गो चमन में ख़ुश की तुम ने मेरी जा-ए-नाला-वार

    है मसल मशहूर ये ‘उम्र-ए-सफ़र कोताह है

    ताले'-ए-बरगश्ता भी करते हैं अब इमदाद-ए-कार

    इक पर-अफ़्शानी में भी है ये वतन गुलज़ार सा

    सामे'ओं की छातियाँ नालों से होवेंगी फ़िगार

    मुँह पे आवेंगे सुख़न आलूदा-ए-ख़ून-ए-जिगर

    क्यूँकि यारान-ए-ज़माँ से चाक है दिल जूँ अनार

    लब से ले कर ता-सुख़न हैं ख़ूँ-चकाँ शिकवे भरे

    लेक है इज़हार हर ना-कस से अपना नंग-ओ-‘आर

    चुप भली गो तल्ख़-कामी खींचनी इस में पड़े

    बैत-बहसी तब’-ए-नाज़ुक पर है अपनी नागवार

    आज से कुछ बे-हिसाबी जौर-कुन मर्दुम नहीं

    इन से अहल-ए-दिल सदा खींचे हैं रंज-ए-बे-शुमार

    बस क़लम रख हाथ से जाने भी दे ये हर्फ़ 'मीर'

    काह के चाहे नहीं कोहसार होते बे-वक़ार

    काम के जो लोग साहिब-फ़न हैं सो महसूद हैं

    बे-तही करते रहेंगे हासिदा-ए-ना-बकार

    स्रोत :
    • पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 2, ग़ज़ल नंo- 0804

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