कहते तो हैं कि हम को उस की तलब नहीं कुछ
कहते तो हैं कि हम को उस की तलब नहीं कुछ
पर जी उसी को अपना ढूँडे है ढब नहीं कुछ
इख़्लास-ओ-रब्त उस से होता तो शोर उठाते
लब तिश्ना अपने तब हैं दिलबर से जब नहीं कुछ
याँ ए'तिबार करिए जो कुछ वही है ज़ाहिर
ये काएनात अपनी आँखों में सब नहीं कुछ
रख मुँह को गुल के मुँह पर क्या ग़ुंचा हो के सोए
है शोख़-चश्म शबनम उस को अदब नहीं कुछ
दिल ख़ूँ न होवे क्यूँकर यकसर वरा-ए-उल्फ़त
या साबिक़े बहुत थे या उस से अब नहीं कुछ
ये हाल बे-सबब तो होता नहीं है लेकिन
रोने का लम्हा-लम्हा ज़ाहिर सबब नहीं कुछ
कर इश्क़ 'मीर' उस का मारे कहीं न जावें
जल्दी मिज़ाज में है उस से अजब नहीं कुछ
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 3, ग़ज़ल नंo- 1242
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