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आगही का क़तरा क़तरा ज़हर

अकमल मुबारक गिलानी

आगही का क़तरा क़तरा ज़हर

अकमल मुबारक गिलानी

MORE BYअकमल मुबारक गिलानी

    रोचक तथ्य

    (Seep, Karachi. Vol.26, May-June 1973)

    मुझे बताओ कि मैं कहाँ हूँ

    मुझे समझाओ मैं कौन हूँ क्या हूँ और क्यूँ हूँ

    मैं बे-बसर बे-ख़बर

    सफ़र की बे-रहम साअ'तों का असीर

    इन रास्तों का राही

    कि जिन का हर संग-ए-मील बे-चेहरा बे-निशाँ है

    ख़िज़ाँ-ज़दा बर्ग-ए-ख़ुश्क

    अंधी हवा के पुर-शोर बे-समाअत बिफरते रेले

    की रहगुज़र पर

    मैं अन-गिनत बे-शुमार सालों से

    ना-रसाई के कर्ब से दिल-ए-शिकस्ता और पा-फ़िगार राही

    कि जिस की हर सई-ए-बे-समर ने

    कि जिस की हर काविश-ए-सफ़र ने

    कुछ और मंज़िल के फ़ासलों को बढ़ा दिया है

    मिसाल मेरे सफ़र की तमसील-ए-आल-ए-मूसा

    कि अपने दश्त-ए-अमल में अपनी सियाह-बख़्ती का हाथ पकड़े

    रवाँ-दवाँ हूँ कई ज़मानों से

    और जब भी ठहर के कुछ देखता हूँ अपने सफ़र का हासिल

    तो कोई मंज़िल राह-ए-मंज़िल

    चला था मैं जिस जगह से अब भी वहाँ खड़ा हूँ

    मुझे बताओ कि मैं कहाँ हूँ

    मुझे सुझाओ मैं कौन हूँ क्या हूँ और क्यूँ हूँ

    मिरे बदन पर मेरा चेहरा

    मेरे मुँह में ज़बान मेरी

    मेरी आँखें कान मेरे

    मैं अजनबी जिस्म के हवाले से अपनी पहचान का हूँ आदी

    सोच मेरी ज़ह्न मेरा

    फ़िक्र मेरी मुझ को अपना शुऊ'र-ए-ज़ाती

    मिरे तशख़्ख़ुस के वास्ते मेरे मुहसिन-ओ-चारासाज़ लाते

    रहे हैं बरसों

    हसीं हसीं ख़ुश-लिबास सुर्ख़-ओ-सफ़ेद चेहरे

    कोई मुसिर है सफ़ेद चेहरा मिरे बदन पर बहार देगा

    किसी को इसरार सुर्ख़-चेहरा बहुत सजेगा

    हसीं हसीं ख़ुश-लिबास चेहरों की यूरिश-ए--बे-पनह के हाथों

    मैं अपना चेहरा भुला चुका हूँ

    मैं अपनी पहचान खो चुका हूँ

    मुझे दिखाओ तो मेरा चेहरा

    कि मैं भी जानूँ

    कि मैं भी समझूँ

    मैं कैसा लगता हूँ आइने में

    कि मेरी पहचान मुस्तक़िल हो

    मैं अपने ही जिस्म के हवाले से अपनी पहचान तो कराऊँ

    मैं कौन हूँ क्या हूँ और क्यूँ हूँ

    सवाल अव्वल सवाल आख़िर

    मिरी हर इक सम्त आज लिक्खा हुआ है हर्फ़-ए-सवाल देखो

    सवाल जो सोच की किरन है

    सवाल जो आगही का ज़ीना है ख़ुद-शनासी का इक चलन है

    मुझे बताओ

    जवाब कितना ही तल्ख़ हो उस को मैं सुनूँगा

    मुझे पिलाओ

    मैं क़तरा क़तरा ये ज़हर-ए-ख़ुद-आगही पियूँगा

    कि इस तरह वो जो मैं नहीं हूँ

    ये ज़हर पी कर मिटे तो शायद मैं देख पाऊँ

    उसे जो मैं हूँ

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