अहद-नामा-ए-इमराेज़
और फिर यूँ हुआ
दिन का उगला पहर सब्ज़ ज़ैतून की छाँव में काट कर
इब्न-ए-आदम उठा
अपने इक हाथ में साँप और दूसरे हाथ में
इक ममोला लिए
अर्श की सम्त जाते हुए
मुड़ के वादी के लोगों से उस ने कहा
''मुझ पे ईमान लाओ ख़ुदा मर चुका है
ये अफ़्लाक ओ आफ़ाक़ का बार अब मेरे शानों पे है
महर ओ माह ओ कवाकिब सभी मेरे आयात हैं''
और वादी के लोगों में कुछ लोग दाना थे ईमान ले आए
कुछ कश्मकश में रहे
और कितने ही ऐसे भी थे जो ख़ुद अपनी सदाओं में गुम
इब्न-ए-आदम की आवाज़ से दूर थे
और फिर यूँ हुआ
चार आफ़ाक़ से इक घना अब्र उठा
और वादी पे इक साएबाँ की तरह तन गया
और ज़मीं जैसे तपने लगी
और वादी के सब लोग घबरा गए
ऐसी आवाज़ में जैसे सकरात में साँस की फ़स्ल को
काटता हो कोई
इब्न-ए-आदम को सब ने पुकारा कि
ये मौत के काले ढकने की मानिंद आँखों पे रक्खा हुआ
अब्र कैसा है?
तन्नूर पर एक ताँबे की थाली की मानिंद तपती ज़मीं किस लिए!
देख हम लोग ऐसे लरज़ते हैं सीनों में ईमान
जैसे लरज़ते हों
ये कैसा आसेब है!!
इन की आवाज़ लौट आई
फिर काँपते तिल्मिलाते धड़कते दिलों से ये सब ने सुना
''अब्र से ज़हर बरसेगा
तपती ज़मीं और दहकेगी
वादी का हर ग़ुंचा मर जाएगा
ख़ाक के रहम में साँस लेता हुआ आफ़रीनश का हर बीज
मर जाएगा''
ये सदाएँ उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़ गूँज उठीं
और सब ने सुनीं
उन में दाना भी थे
जिन की दानाइयाँ तन-बरहना कुँवारी कनीज़ों की मानिंद
लब-बस्ता थीं
और वो लोग भी इन में मौजूद थे
कश्मकश जिन के दिल की गुनहगार जिस्मों के
मासूम बच्चों की मानिंद हैरान थी
और कितने ही वो भी थे
मासूमियत जिन की फ़ौलाद-पैकर ग़ुलामों की मानिंद
मक़्तूल थी
और फिर यूँ हुआ
सब की नज़रें उठीं जिस तरफ़
अपने इक हाथ में अर्ज़-ए-महकूम और दूसरे हाथ में
जौहरी बम लिए
इब्न-ए-आदम खड़ा था किसी आतिशीं पेड़ की छाँव में
नीचे वादी में इक शोर था
''वो हमारा ख़ुदा हम को लौटाओ
तस्कीन की कोई सूरत तो हो
कोई छत कोई साया कोई साएबाँ
कुछ तो हो जिस के ज़ुल्मात में छुप के हम
ज़िंदगी काट लें
और ये अब्र आँखों से ओझल रहे''
वो हमारा ख़ुदा हम को लौटाओ
वादी का ये शोर बढ़ता रहा
शोर करती हुई भीड़ में वो भी थे
जिन के ईमान मज़बूत थे
और फिर यूँ हुआ
इब्न-ए-आदम ने देखा कि
वादी में सदियों का बूढ़ा ख़ुदा फिर से मौजूद था
- पुस्तक : aaina dar aaina (पृष्ठ 80)
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