ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
जिस पे भी डालूँ नज़र वो शख़्स घबराया लगे
जिस को देखूँ ज़िंदगी से जैसे तंग आया लगे
ग़म का मारा हर कोई ख़ुशियों का ठुकराया लगे
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
फ़ाक़ा-मस्ती तंग-दस्ती का है चर्चा चार-सू
मर गई है अब दिलों से ज़िंदगी की आरज़ू
हो गया है ख़ुश्क इंसानों के जिस्मों का लहू
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
बच्चे गलियों में फिरें आवारा कुत्तों की तरह
और सड़कों पर बिकें कुछ जिस्म फूलों की तरह
कोई तड़पे भूक से ज़ख़्मी परिंदों की तरह
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ज़ुल्म करते हैं सभी अब मेहरबानी की जगह
ज़िल्लतें मिलती हैं अक्सर क़द्रदानी की जगह
आसमाँ भी आग बरसाता है पानी की जगह
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
रिश्वतों की ठोकरों में हैं उसूलों के मज़ार
अब नहीं क़ानून में तलवार की सी तेज़ धार
खो दिया है आज के इंसान ने अपना वक़ार
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
इस नई तहज़ीब ने पैदा किए उजले समाज
किस अनोखे ढंग से बदला है दुनिया का रिवाज
हुस्न बे-पर्दा हुआ है इश्क़ आवारा-मिज़ाज
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
आदमी ख़ुद ही परस्तार-ए-जहालत बन गया
मंदिर-ओ-मस्जिद का झगड़ा एक आदत बन गया
धर्म तो इक प्यार था जो आज नफ़रत बन गया
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
हिन्द हो या पाक हो या रूस हो या बहर-ए-रुम
जिस तरफ़ उठती हैं नज़रें हैं वहाँ फ़ित्नों की धूम
आदमी के फ़े'ल से सहमे हैं अब माह-ओ-नुजूम
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ज़िंदगी क्या है तड़पती दोपहर का रूप है
हर तरफ़ फैली हुई बे-माएगी की धूप है
आदमी के रूप पर छाया हुआ बहरूप है
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
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