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अजनबी देस के रस्तों पे भटकते राही

मीना कुमारी नाज़

अजनबी देस के रस्तों पे भटकते राही

मीना कुमारी नाज़

MORE BYमीना कुमारी नाज़

    अजनबी देस के रस्तों पे भटकते राही

    मैं ने सोचा है कि आज तुझे ख़त लिक्खूँ

    आज लिक्खूँ कि सुलगते हुए अरमानों में

    कितने ज़हरीले सुबुक तीर चुभा करते हैं

    कैसे धुँदलाई हुई रात मैं बे-बस आँसू

    डर के तन्हाई से थम थम के बहा करते हैं

    झुंझलाहट में तुझे भूलने की कोशिशें भी कीं

    कैसे फिर लौट भी आने की दुआ करते हैं

    कैसे मासूम बिलकते हुए एहसानों से

    नाम ले ले के तिरा लोग हँसा करते हैं

    ता'ने कसते हैं कई बार तेरी चाहत पर

    रूह के एहसास को बदनाम किया करते हैं

    और हम हैं कि बस हाथों से कलेजा थामे

    बे-रहम वक़्त की हर चोट सहा करते हैं

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