अन-जाना दुख
हरे-भरे लहराते पत्तों वाला पेड़
इन्दर से किस दर्जा बोदा कितना खोखला हो सकता है
मुझ से पूछो
मैं इक ऐसे ही छितनार के नीचे बैठा
उस की छाँव से अपने सफ़र की
धूप का दुखड़ा फूल रहा था
आने वाले वक़्त की ठंडी गीली मिट्टी रोल रहा था
अपने आप से बोल रहा था
मैं भी कितना ख़ुश-क़िस्मत हूँ
जीवन की सुनसान डगर पर
मेरे कितने यार खड़े हैं पेड़ की सूरत
इतने में इक झोंका आया
ये झोंका चाँदी की कान के अंदर से हो कर आया था
एक ही पल में
पेड़ की छाल ने रंगत बदली
एक ही पल में
हर पत्ते की शक्ल हुई मटियाली गदली
शाँ शाँ करती शाख़ों में इक ज़हरीली सरगोशी जागी
छाँव छट कर पेड़ के तन की जानिब भागी
दिल ये मंज़र देख के सहमा काँपा रोया
चारों और से उठती इक अनजाने दुख की धूल में खोया
ज़हर सा इक रग रग में समाया
इतने में इक और झूमता झोंका आया
ये झोंका ख़ुद-ग़र्ज़ी के कोहसार पे मंडला कर आया था
बस इतना ही याद है मुझ को
कैसे और कब पेड़ गिरा ये पेड़ से पूछो
मुझे निकालो
उस बूदे और खोखले पेड़ के नीचे दब कर
मेरे साथ मिरा एहसास भी मर जाएगा
जो भी ये मंज़र देखेगा डर जाएगा
देखने वालों को इस ख़ौफ़ से इस सदमे इस ग़म से बचा लो
मुझे निकालो
आइंदा मैं छितनार को अपना यार नहीं समझूँगा
कभी कभी मिल जाने वाली छाँव को प्यार नहीं समझूँगा
- पुस्तक : Muntakhab Shahkar Nazmon Ka Album) (पृष्ठ 224)
- रचनाकार : Munavvar Jameel
- प्रकाशन : Haji Haneef Printer Lahore (2000)
- संस्करण : 2000
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