बाज़ी जिन के हाथ रही
रोचक तथ्य
पाकिस्तान में 2005 में आए ज़लज़ले पर
जितनी देर में तुम एक आहट से उतरते हो
और सवेर से अपनी पलकें इकट्ठी करते हो
उतनी देर में एक नज़्म बन चुकी होती है
नज़्म जिस की आँखों से लोबान की ख़ुशबू और पलकों
से नम टपकता हो
और वो अपनी पहचान के लिए ख़ुद अपना वसीला बने
लेकिन अगर इस के ब'अद के वसीले ज़्यादा मो'तबर ठहरें
तो हैरतें अफ़सोस और पछतावे रद्द-ए-दुआ
जब मोहब्बतें इंसान से कम-तर हवालों की मुहताज हो जाएँ
तो वो सीढ़ियाँ उतर जाती हैं आसमान नहीं रहतीं
ज़मीन का हवाला मोहब्बत है
और वो जानवर ज़्यादा अच्छी तरह निभा सकते हैं
बहुत क़दीम से किया कव्वों ने नहीं बताया कि अपना जुर्म
और अपनी आख़िरत को मिट्टी से पर्दा-पोश करो
और क्या कुत्ते ए'तिबार की आख़िरी हद नहीं हैं
जो कहते हैं मेरे महबूब सो जा! मैं हूँ ना
मैं हूँ ना!
ज़लज़लों की ख़बर देने के लिए
मैं तेरी मुसीबत-ज़दा नस्ल को कहीं से भी ढूँड लाऊँगा
अगर तेरी मोहब्बत की निशानियाँ उन के हाथों की उँगलियों में न भी मिलें
वो तुझे ज़रूर मिल जाएँगे
उन के हाथ और बाज़ू तेरे भाई-बंदों ने काट लिए
लेकिन मैं अपने मुँह का निवाला उन्हें दे कर ही लौटूँगा
मैं मुसीबत के सब दिनों में तेरे साथ हूँ
मैं सग-ए-दर हूँ मिरी तुझ से सगाई है!
- पुस्तक : Quarterly TASTEER Lahore (पृष्ठ 540)
- रचनाकार : Naseer Ahmed Nasir
- प्रकाशन : H.No.-21, Street No. 2, Phase II, Bahriya Town, Rawalpindi (Volume:15, Issue No. 1, 2, Jan To June.2011)
- संस्करण : Volume:15, Issue No. 1, 2, Jan To June.2011
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