बक़ा-ए-मोहब्बत
दर दीवार और दरीचे
एक मुआहिदा हैं
अदम-ए-मुदाख़लत का मशरूत मुआहिदा
दो मोहज़्ज़ब इंसानों के दरमियाँ
दो मुतमद्दिन ख़ानदानों के दरमियाँ
दीवार
तहज़ीब की तर्जुमान
तमद्दुन की पहचान
और बक़ा-ए-बाहमी की आईना-दार
हीला हुक़ूक़ की ज़मानत
बका-ए-तहीयत की अलामत
हैत और अहाता
ज़ेहनी-ओ-जिस्मानी आसूदगी
और
सुख-चैन के लिए लाज़िम है
दख़्ल दर माक़ूलात
ग़ैर-अख़लाक़ी ही नहीं
ग़ैर-इंसानी रवय्या भी है
घर का हक़ है कि वो
दूसरे घर की बे-जा मुदाख़लत से महफ़ूज़ रहे
हम दीवार तो
हमदर्द होता है
ख़बर-गीर होता है
ख़बर-रसाँ नहीं बन सकता
तख़य्युल आसूदगी
सुख घटाती
और दुख बढ़ाती है
शकर-गंजी पैदा करती है
आज़ुर्दा-दिली का मौजिब बनती है
फ़ासले दीवार की पुख़्तगी से नहीं
दिलों की सख़्ती से बढ़ते हैं
पुख़्ता दीवार तो तमद्दुन की बक़ा है
सूरी फ़ासले बे-मा'नी हो जाते हैं
अगर क़ल्ब-ओ-नज़र शाद हों
हक़ ख़ल्वत ख़लीज नहीं
फ़राख़ी तरफ़ैन है
प्राईवेसी का हक़
तहज़ीब-ए-इंसानी की मेराज है
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