बुलंदी की पैमाइश
जितने ऊँचे हैं उतने ही ख़ामोश हैं
किन पहाड़ों में रहना पड़ा है मुझे
सारे अपनी बड़ाई की धुन में मगन
देखते जा रहे हैं मगर बात करते नहीं
बात करते हैं तो ख़ुद से आगे कोई लफ़्ज़ कहते नहीं!
अपने ही बोझ से
मेरी ख़ामोशी कूज़ा कमर हो गई... तो चली
इक बड़ी ख़ामुशी की तरफ़
और मरी नन्ही सी ख़ामुशी ने कहा
धरती ख़ामोश है
ये ख़मोशी का घूँघट उठाए तो मैं इस की साँसें गिनूँ
ऐ क़दीमी ख़मोशी!
जो तू और मैं चुप की चादर उतारें
तो धरती तकल्लुम का मल्बूस पहने
पहाड़ों से ऐसी सदाएँ उठें
जो समुंदर के सीने में सूराख़ कर दें
ये कुचली हुई ख़ल्क़ उठ्ठे
तो चीख़ों से पाताल हिलने लगे
मौज-ए-नाला रवानी करे
और सीनों में सहमी सदाओं की बर्फ़ों को पानी करे
लफ़्ज़-ए-ममनूअ फिर से चले
सोच की सरज़मीं पर नई तुख़्म-कारी करे
ख़ैर-ओ-शर की हदों पर नई हद को जारी करे
ऐ बड़ी ख़ामुशी!... ऐ...
मगर ख़ामुशी पहले से बढ़ कर ख़ामोश थी!
दिल के ग़ुर्फों में सोई सदाओ!
उठो! सूर-ए-आदम उठाओ
'सराफ़ील' सोया पड़ा है
तुम्ही कोई शोर-ए-क़यामत जगाओ
उठो बे-नवाओ!
तुम्ही अपनी मिट्टी की धड़कन में धड़कन मिलाओ
तुम्हारे बदन पर है तामीर जिन की
सदाओं की लर्ज़िश से
उन ऊँचे बुर्जों को मिल कर ज़मीं-बोस कर दो!
किसी को नहीं मानती हैं
सदाएँ, कोई ऊँचा नीचा नहीं जानती हैं!
- पुस्तक : Quarterly TASTEER Lahore (पृष्ठ 105)
- रचनाकार : Naseer Ahmed Nasir
- प्रकाशन : H.No.-21, Street No. 2, Phase II, Bahriya Town, Rawalpindi (Volume:15, Issue No. 1, 2, Jan To June.2011)
- संस्करण : Volume:15, Issue No. 1, 2, Jan To June.2011
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