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चट्टान

MORE BYज्योती आज़ाद खतरी

    बचपन से माँ की दी हुई

    सीख पर चली हूँ मैं

    आज भी चल रही हूँ

    और आगे भी चलना चाहती हूँ

    पर कभी कभी महसूस होता है

    थकन का एक बोझ अपने दिल और दिमाग़ पर

    अक्सर ज़ेहन में उठते हैं कई सवाल

    क्या हासिल होना है मुझे इस राह पर

    कब तक यूँ ही चलती रहूँगी

    अपने चारों जानिब जब देखती हूँ

    झूट की ऊँची इमारतें

    तो ख़याल आता है

    मेरा सच तो सहरा में उड़ती

    ख़ाक सा है

    मेरा वजूद यक-ब-यक अनासिर का ढेर लगता है

    और मैं ख़ुद से ही घबरा जाती हूँ सहम जाती हूँ

    फिर याद आती है

    माँ की बचपन में दी हुई सीख

    सफल वही होते हैं जो सच्चे होते है

    ये ख़याल आते ही नए जोश में

    अपने थके बिखरे टूटे बदन को समेट कर

    ख़ाक से चट्टान की शक्ल इख़्तियार करती हूँ

    और तय्यार करती हूँ ख़ुद को एक बार फिर

    झूट की इमारतों से जंग करने के लिए

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