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दर्द उरूज पर आ जाए तो

अनवार फ़ितरत

दर्द उरूज पर आ जाए तो

अनवार फ़ितरत

MORE BYअनवार फ़ितरत

    री मैल कुचैली

    भूकी नंगी दुनिया

    मैं ने इक दिन तेरी क़ीमत

    इक कम बेश रूपए रक्खी थी

    अपने कहे पर आज बहुत शर्मिंदा हूँ

    मैं तेरे संग

    इक आख़िरी रक़्स करूँ

    आग और धुएँ की आमेज़िश से

    सिदरा-बोस दरख़्त बनाएँ

    और फिर उस के साए तले

    हम गरजीले गीतों की लय पर

    छाती से छाती टकराएँ

    क़दम से क़दम मिलाएँ

    क्या इतराता मंज़र है

    चरचर करते मास की बॉस में

    आवाज़ों का क्या नायाब ख़ज़ाना है

    ये इक ऐसी सिम्फ़नी है

    जिस में ख़ौफ़ नहीं है

    दर्द उरूज पर जाए तो

    ख़ौफ़ कहाँ रहता है

    आह कराह का ऐसा संगम

    लफ़्ज़ों में किस ने बाँधा है

    जिस्म-ओ-सदा के ऐसे ऐसे दाएरे

    बन जाते हैं जिन में

    अज़ली निर तक अबद मुग़न्नी ख़ुद भी खो जाते हैं

    हम चारों सम्त में

    आग लगा दें

    दरिया और समुंदर भक् से उड़ा दें

    ख़ुद को भस्म करें

    री दुनिया

    तेरी कराहत से मुझ को

    कुछ इश्क़ ही ऐसा है

    मैं मरता हूँ

    तू भी मर जा

    स्रोत :
    • पुस्तक : Quarterly TASTEER Lahore (पृष्ठ 90)
    • रचनाकार : Naseer Ahmed Nasir
    • प्रकाशन : H.No.-21, Street No. 2, Phase II, Bahriya Town, Rawalpindi (Volume:15, Issue No. 1, 2, Jan To June.2011)
    • संस्करण : Volume:15, Issue No. 1, 2, Jan To June.2011

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