एक देसी हसीना से मुलाक़ात
सब-वे में नज़र आई मुझे एक हसीना
रूसी नज़र आती थी हक़ीक़त में थी चीना
अंदर की फ़ज़ा और थी बाहर की फ़ज़ा और
मादा थी मगर चाल से लगती थी नरीना
बोली कि मुझे लोग पुकारा किए मैरी
डैडी ने मिरा नाम तो रखा था मरीना
शलवार को नेकर किया बनयान को रूमाल
मैं राह-ए-तरक़्क़ी पे चढ़ी ज़ीना-ब-ज़ीना
अब मुझ को दुपट्टे की ज़रूरत ही नहीं है
मग़रिब ने सिखाया मुझे जीने का क़रीना
मैं एक ही अंदाज़ के कपड़ों में मिलूंगी
हो जून का सीज़न कि दिसम्बर का महीना
देसी थी मगर रूप में काली की तरह थी
वो गर्म बहुत चाय की प्याली की तरह थी
पिस्टल की तरह आँख तो गोली की तरह होंट
और नाक तो बंदूक़ की नाली की तरह थी
आई थी यहाँ ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर कटा कर
मशरिक़ की हवा बाद-ए-शुमाली की तरह थी
उस का भी न था मेरी तरह कोई भरोसा
बैंगन की तरह मैं हूँ वो थाली की तरह थी
हर उज़्व-ए-बदन मिस्रा-ए-ग़ालिब की तरह था
चेहरे की चमक मतला-ए-हाली की तरह थी
- पुस्तक : excuse me (पृष्ठ 97)
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