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एक ख़्वाब

वज़ीर आग़ा

एक ख़्वाब

वज़ीर आग़ा

MORE BYवज़ीर आग़ा

    धुँदलकों के बारीक धागों में लिपटी हुई

    मुतमइन बे-ख़बर

    मैं ने देखा वो मुझ पर झुकी थी

    वो चश्म-ए-हसीं जिस के हर अंग में मामता थी

    मुझे यूँ लगा था वो चश्म-ए-हसीं तो मुझे

    बस मुझे घूरती है

    किसी और को देखने की उसे तो फ़ुर्सत

    हिम्मत ख़्वाहिश

    फ़क़त मरकज़-ए-हस्त को देखती है

    मुझे देखती है

    मैं उस आँख की झील में तैरते सब्ज़ बजरे

    की दर्ज़ों से रिसते हुए गर्म सय्याल सोने की बूंदों

    के पीछे लपकता रहा जुगनुओं से मुझे उन दिनों कैसी रग़बत थी

    मैं जलते-बुझते हुए पैकरों को पकड़ कर

    उन्हें अपने तन पर सजाने की ख़्वाहिश में

    किस दर्जा बेबस हुआ था

    कि मैं ख़ुद भी शायद

    चमकते हुए जुगनुओं के समुंदर में

    इक जलता बुझता सा जुगनू था

    अपने ही हम-ज़ाद को ढूँढता था

    ज़माना वो मकतब से भागा हुआ वहशी लड़का

    जो मेरे तआ'क़ुब में गिर गिर के पागल हुआ था

    उसे धुन अगर थी तो बस इस क़दर थी

    कि वो अपनी मुट्ठी में मुझ को गिरफ़्तार कर के दिखाए

    ज़मान-ओ-मकाँ की हदों में

    किसी साफ़ तख़्ती के चेहरे पे लिक्खे

    सियाही के बे-नाम नुक़्ते पे रुकने का ख़ूगर बनाए

    मगर मैं तो उस आँख के आब-ए-ग़म का शनावर

    ज़माने की मुट्ठी में आने से बेज़ार था

    जानता था कि ज़ालिम ज़माना तो वहशी परिंदे की सूरत

    गुरसना निगाहों के ग़ुर्फों से मुझ को हमेशा तकेगा

    मैं इस बात से आश्ना था

    कि मैं गर रुका

    तो मुझे आँख से गर्म आँसू की सूरत टपकना पड़ेगा

    किसी सब्ज़ मोती की ठंडी लहद में उतरना पड़ेगा

    फिर एक रोज़

    वहशी परिंदे की पहली झपट मुझ पे नाज़िल हुई

    आँख रोने लगी

    और मैं ज़ख़्म को चाटता

    झील के पानियों में सिसकता फिरा

    आँख रोती रही

    हर झपट पर वो आँसू के क़तरों में ढल कर

    किनारों से बाहर निकल कर बिखरती हुई

    और फिर एक दिन

    झील पानी के अमृत से ख़ाली हुई

    जलने बुझने के आलम से आज़ाद हो कर

    ज़मान-ओ-मकान की हदों में

    किसी साफ़ तख़्ती के चेहरे पे धब्बा बनी

    और मैं

    नीले आकाश पर चीख़ते और हँसते हुए उस परिंदे

    की आँखों में अपनी ही तस्वीर को देख कर मुस्कुराया

    सियाही के जादू से बाहर निकल कर मैं अपने ही इरफ़ान से जगमगाया

    ज़माना मुझे देख कर मुझ पे झपटा

    मगर मैं तो इक झील था मेरे अंदर ज़मानों के बजरे थे

    बजरों से सय्याल सोने की किरनें निकलने लगी थीं

    ज़माना मुझे अपने पंजे में लेने को झपटा मगर एक पल में

    वो ख़ुद मेरी मुट्ठी में महबूस था

    एक जुगनू जिसे मैं ने माथे पे क़श्क़ा बना कर लगाया

    जिसे मैं ने मोती की ठंडी लहद में उतारा

    जिसे मैं ने ठंडी लहद के किनारे का कतबा बनाया

    स्रोत :
    • पुस्तक : Nirdbaan (पृष्ठ 35)
    • रचनाकार : Wazir Agha
    • प्रकाशन : Nusrat Anwar (1979)
    • संस्करण : 1979

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