इंतिबाह
ऐ मेरे बेटो!
मैं सोचती हूँ
कि क़दमों से
मैं अपने तन के हयात-आगीं लहू के चश्मे
बहा रही हूँ
तुम्हारे सारे
नज़ार जिस्मों नहीफ़ ज़ेहनों की मुर्दनी को
मिटा रही हूँ
अज़ल से अपने ज़ईफ़ चेहरे की आड़ी-तिरछी
सी झुर्रियों की लकीर में तो
उदास आँखों मलूल पलकों
से टपके क़तरे
मिला रही हूँ
हसीन ख़्वाबों के बूढ़े बरगद
के ज़र्द पत्ते भी चुन रही हूँ
वो ख़्वाब जिन के
चमकते जुगनू
असीर करने को मेरी बाँहों के साहिलों पर
सफ़ेद चेहरे स्याह क़ालिब
ग़नीम उतरे
हसीन ख़्वाबों के जुगनुओं को
असीर कर के
ख़ुद अपनी माओं की सर्द आँखों को ज़िंदगी दी
मिरे दफ़ीने मिरे ख़ज़ीने
से अपनी कश्ती
की गोद भर भर के ले गए और
मेरे बेटों के ज़ेहन-ओ-दिल में
तफ़ावुतों और अदावतों की
करीह फ़सलों के बीज बोए
वो फ़सलें जिन को
अज़ीज़ बेटों ने अपने अपने लहू से सींचा
कि जिन के सीने की पाक मिट्टी
को गर्म ताज़ा लहू से
हर दम
ग़लीज़ रक्खा
और मेरे बेटो!
मैं सोचती हूँ
इसी तरह गर
तफ़ावुतों और अदावतों के
ये बीच बोते
रहे तो इक दिन
ये देखना तुम
न तुम रहोगे न मैं रहूँगी
फ़क़त हमारी कथा रहेगी!
- पुस्तक : Khushk Tahni Zard Pattay (पृष्ठ 97)
- रचनाकार : Yousuf Taqi
- प्रकाशन : Yousuf Taqi (2003)
- संस्करण : 2003
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