इंतिसाब
हमारी चाहतों की बुज़-दिली थी
वर्ना क्या होता
अगर ये शौक़ के मज़मूँ
वफ़ा के अहद-नामे
और दिलों के मरसिए
इक दूसरे के नाम कर देते
ज़ियादा से ज़ियादा
चाहतें बद-नाम हो जातीं
हमारी दोस्ती की दास्तानें आम हो जातीं
तो क्या होता
ये हम जो ज़ीस्त के हर इश्क़ में सच्चाइयाँ सोचें
ये हम जिन का असासा तिश्नगी, तन्हाइयाँ सोचें
ये तहरीरें
हमारी आरज़ू-मंदी की तहरीरें
बहम पैवस्तगी और ख़्वाब पैवंदी की तहरीरें
फ़िराक़ ओ वस्ल ओ महरूमी ओ खुर्संदी की तहरीरें
हम इन पर मुन्फ़इल क्यूँ हूँ
ये तहरीरें
अगर इक दूसरे के नाम हो जाएँ
तो क्या इस से हमारे फ़न के रसिया
शेर के मद्दाह
हम पर तोहमतें धरते
हमारी हमदमी पर तंज़ करते
और ये बातें
और ये अफ़्वाहें
किसी पीली निगारिश में
हमेशा के लिए मर्क़ूम हू जातीं
हमारी हस्तियाँ मज़मूम हो जातीं
नहीं ऐसा न होता
और अगर बिल-फ़र्ज़ होता भी
तो फिर हम क्या
सुबुक-सारान-ए-शहर-ए-हर्फ़ की चालों से डरते हैं
सगान-ए-कूचा-ए-शोहरत के ग़ौग़ा
काले बाज़ारों के दल्लालों से डरते हैं
हमारे हर्फ़ जज़्बों की तरह
सच्चे हैं, पाकीज़ा हैं, ज़िंदा हैं
बला से हम अगर मस्लूब हो जाते
ये सौदा क्या बुरा था
गर हमारी क़ब्र के कतबे
तुम्हारे और हमारे नाम से मंसूब हो जाते!
- पुस्तक : Kulliyat-e-Ahmad Faraz (पृष्ठ 131)
- रचनाकार : Ahmad Faraz
- प्रकाशन : Farid Book Depot Pvt. Ltd. (2010)
- संस्करण : 2010
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