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इश्क़-ए-ममनूअ'

कोमल राजा

इश्क़-ए-ममनूअ'

कोमल राजा

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    वो मुझ से मिला मगर

    क़ुर्ब-ओ-दूरी की इस नहज पर

    जहाँ अमानत में ख़यानत का ख़ौफ़ रहा

    जहाँ चाशनी का ऐसा दौर था

    कि दिन गुज़रने का इल्म रात का पता

    जहाँ सुपुर्दगी का वो आलम था

    कि दो जिस्म एक जान का मोआमला

    मगर अजब सा एक रख-रखाव रहा

    हम दोनों के दरमियान

    वो दरिया के पार उतरा

    मैं ने खोले बादबान

    गोया मेरे और उस के बीच

    चंद फ़र्लांग अदब की दूरी हो

    उस के अंदर झाँकना जैसे

    कोई ना-क़ाबिल-ए-मुआ'फ़ी चोरी हो

    जैसे मुक़द्दस किताबों की जानिब

    बे-वुज़ू बढ़ता हुआ हाथ

    एहतिरामन रोक ले कोई

    जैसे सिरहाने पे पड़ता हुआ पाँव

    एहतियातन थाम ले कोई

    जैसे उल्टे पड़े हुए जूते की सम्त

    फ़ौरन रुख़ आसमान से मोड़ ले कोई

    गोया उस का वजूद किसी मुक़द्दस शय की मानिंद था

    जिस को ग़ैर क़स्दन छूना भी गुनाह हो

    गोया उस की ज़ात में सफ़र करना तो हलाल था

    मगर उस के दिल में घर करना हराम हो

    वो मुझ से मिला मगर

    क़ुर्ब-ओ-दूरी की उस नहज पर

    जहाँ अमानत में ख़यानत का ख़ौफ़ रहा

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