जो तू तस्वीर करता है
जो मैं तहरीर करता हूँ
न तेरा है न मेरा है
मगर अपना है ये जब तक
इसे पढ़ने में कितनी देर लगती है
अभी माहौल को चारों तरफ़ से
हब्स के सहरा ने घेरा है
मगर कब तक
हवा चलने में कितनी देर लगती है
कोई ज़ंजीर है शायद हमारे पाँव में
और राह में काफ़ी अंधेरा है
मगर कब तक
दिया जलने में कितनी देर लगती है
हवाएँ बादबानों से उलझती और कहीं नाक़ा-सवारों को
कोई पैग़ाम देती शाम के आँचल को थामे
साहिलों की सम्त आती हैं
परिंदे दाएरों में उड़ते फिरते
अब्र की चादर में लिपटे
रंग बरसाते
फ़ज़ाओं में सफ़र की दास्ताँ लिखते
ठिकानों की तरफ़ जाते हुए
मंज़र को अपने अक्स में तब्दील करते हैं
अचानक सर-फिरी मौजें
मुझे छू कर गुज़र जाती हैं
और मैं अपने तलवों से निकलती सनसनाती रीत की सरगोशियाँ
महसूस करता हूँ
वही मैं हूँ वही अस्बाब-ए-वहशत हैं वही साहिल
वही तू है वही हँसती हुई आँखें
तिरी आँखों में रंगों और ख़्वाबों के जज़ीरे
जगमगाते हैं
सर-ए-मिज़्गाँ रुपहली साअ'तों के इस्तिआ'रे मुस्कुराते हैं
हँसी महताब बनती है
फिर इस महताब के चारों तरफ़ आवाज़ का हाला उभरता है
और इस हाले में तेरी उँगलियाँ
नादीदा मंज़र को तिलिस्म-ए-ख़्वाब से आज़ाद करती हैं
तिरे हाथों की जुम्बिश
धूप छाँव से धनक तरतीब दे कर
ख़ाली तस्वीरों में ख़द्द-ओ-ख़ाल को आबाद करती है
तिरी पलकें झपकती हैं
सितारे से सितारा आन मिलता है
कि जैसे शाम होते ही
सुबुक आसार लहरों में
किनारे से किनारा आन मिलता है
ये जो कुछ है
बहुत ही ख़ूबसूरत है
मगर उस के लिए है
जो ये सब महसूस करता है
तुझे मालूम भी हो जाए तो क्या फ़र्क़ पड़ता है
अभी दिन का थका हारा मुसाफ़िर धूप के खे़मे समेटे
दूर पानी में उतरने के लिए
बे-ताब है देखो
ये नीला आसमाँ
अपनी गराँ ख़्वाबी में ख़ुद ग़र्क़ाब है देखो
न जाने क्यों
समुंदर देखने वालों को
सूरज डूबने का ख़ौफ़ रहता है
कोई है जिस को इस्म-ए-आब आता हो
किनारों की तरह हर लम्हा कट गिरता हो
ज़ेर-ए-आब आता हो
समुंदर आसमाँ की राहदारी है
मगर इस राहदारी तक पहुँचने का कोई रस्ता
बड़ी मुश्किल से मिलता है
ये इस्म-ए-आब
साहिल पर खड़े नज़्ज़ारा-बीनों की समझ में किस तरह आए
कि ये तो डूबने वालों पे भी
मुश्किल से खुलता है
मगर कब तक
इसे खुलने में कितनी देर लगती है
- पुस्तक : جنہیں راستے میں خبر ہوئی (पृष्ठ 441)
- रचनाकार : سلیم کوثر
- प्रकाशन : فضلی بکس ٹیمپل روڈ،اردو بازار، کراچی
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