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जुनूँ-ज़ात

अरसलान अब्बास

जुनूँ-ज़ात

अरसलान अब्बास

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    हम जुनूँ-ज़ात तिरे हुक्म पे निकले जानाँ

    ऐसे निकले हैं कि शायद ही पलट कर आएँ

    दिल ने इक ख़्वाब जो देखा तो पुकारा उठ के

    हुक्म उतरा है कि घर-बार को तन्हा छोड़ें

    अपनी वादी से किसी दश्त को हिजरत पकड़ें

    अपने बाग़ात-ओ-चमन-ज़ार को तन्हा छोड़ें

    इस से पहले कि रग-ओ-पै में सियाही फैले

    अपने दरबार-ए-तरब-ज़ार से बाहर निकलें

    इस से पहले कि शब-ए-ज़ीस्त का पहलू बदले

    राहतें तर्क करें और सफ़र पर निकलें

    और जब राह तलाशें तो सफ़र में ऐसे

    कि क़दम दर्द के मारों के हवाले कर दें

    अपने हाथों को यतीमों के सरों पर रख दें

    अपनी आँखों को बिचारों के हवाले कर दें

    इतना सुनना था कि बस रख़्त-ए-मोहब्बत बाँधा

    अपने अंदर की कुदूरत के दरों को तोड़ा

    अपनी ख़्वाहिश-ज़दा ‘आदात पे ताले डाले

    अपनी ख़ुद-ग़र्ज़ तमन्नाओं को पीछे छोड़ा

    और हमराह तिरे प्यार परिंदे ले कर

    अपने हाथों में तिरी चाह की शम'एँ थामे

    अपने होंटों पे तिरे दर्द के नग़्मे ले कर

    अपने माथे पे तिरे शौक़ का सहरा बाँधे

    हम जुनूँ-ज़ात तिरे हुक्म पे ख़ुद से निकले

    ऐसे निकले हैं कि शायद ही पलट कर आएँ

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