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ख़्वाब

राना सहरी

ख़्वाब

राना सहरी

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    वो ख़्वाब कि जिन में जलती थी शमएँ तेरे रुख़्सारों की

    वो ख़्वाब कि जिन में बनती थी तस्वीर मिरे शहकारों की

    वो ख़्वाब कि जिन की ताक़त से दुनिया का रूप बदलना था

    वो ख़्वाब कि जिन की ठंडक में शो'लों पर मुझ को चलना था

    वो ख़्वाब कि जिन के दामन में तहज़ीब-ए-नौ के ख़ाके थे

    आने वाले कल की ख़ुशियाँ गुज़रे हुए कल के साए थे

    उन ख़्वाबों के अंजाम पे ये आँखें शर्मिंदा होती हैं

    वो ख़्वाब जो सारे टूट चुके उन की मय्यत पे रोती हैं

    ये दुनिया कितनी ज़ालिम है ख़्वाबों का सौदा करती है

    मासूम दिलों की आरज़ूएँ सिक्कों में तौला करती है

    इस दुनिया के हर गोशे में ग़ुर्बत है भूक है ख़्वारी है

    कुछ के हिस्से में सरमाया कुछ का हिस्सा नादारी है

    ऐसी दुनिया में ख़्वाब मिरे ज़िंदा कैसे रह सकते थे

    शीशे की तरह वो नाज़ुक थे ये ठेस कहाँ सह सकते थे

    लेकिन मैं अभी मायूस नहीं हर ग़म को ख़ुशी में ढालूँगा

    वो ख़्वाब जो मुझ से रूठ गए उन ख़्वाबों को समझा लूँगा

    मैं फिर उभरूँगा जीने के कुछ और नए अरमान लिए

    ये दौर बदलने के दा'वे अपने हक़ का ए'लान लिए

    मैं बस्ती बस्ती घर घर में नारों की आग बिच्छा दूँगा

    मज़लूम जफ़ा-कश लोगों की सोई तक़दीर जगा दूँगा

    मैं गीत लिखूँगा फ़स्लों पर बाग़ों खेतों खलियानों पर

    मिल मज़दूरों की टोली पर गाँव के मस्त किसानों पर

    अब जब तक भी मैं ज़िंदा हूँ हर दुख हर सदमा झेलूँगा

    मैं तूफ़ानों से उलझूँगा मैं हर ख़तरे से खेलूँगा

    और मर भी गया तो धरती के हर ज़र्रे में बट जाऊँगा

    मैं हर इक के ग़म का साथी सब का शाइ'र कहलाऊँगा

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