मज़ाफ़ात
छोटे छोटे क़स्बों के
दुख अजीब होते हैं
सुख अजीब होते हैं
आँसूओं की बस्ती में
रसने-बसने वालों को
कब कोई ग़रज़ इस से
कारोबार-ए-हस्ती में
नफ़ा क्या ख़सारा क्या
उम्र के ख़ज़ाने में
बेश-ओ-कम का यारा क्या
उन का अपना मस्लक है
उन की अपनी दुनिया है
इन घरों की चौखट पर
वक़्त बाँग देता है
मुँह अंधेरे चक्की में
ख़्वाब पीसे जाते हैं
चाँद सी रसोई में
बर्तनों के आईने
दुख को मुँह चिढ़ाते हैं
इन घरों के आँगन में
दिन तुलूअ' होता है
ख़्वाब काते जाने से
ज़िंदगी की डोरी में
सुख पिरोए जाने से
आँख के कटोरों में
ग़म समोए जाने से
मेहरबाँ मशक़्क़त के
बोझ ढोए जाने से
दिन तुलूअ' होता है
क्यारियों की मिट्टी में
गीत जब नहाते हैं
रंग चहचहाते हैं
साथ की मुंडेरों पर
ख़्वाब पर सुखाते हैं
बच्चियाँ ख़यालों में
अपने घर बसाती हैं
मोम के घरोंदों में
ज़िंदगी की हन्ड-कुल्हिया
धूप से पकाती हैं
बे-ज़बान गुड़ियों से
जिन की आँख धागे की
जिन के होंट रेशम के
अपने दिल की सब बातें
बारहा बताती हैं
और वक़्त से पहले
सब रुमूज़ जीने के
आप सीख जाती हैं
इन घरों के आँगन में
दोपहर उतरती है
एक नन्ही सूई की
आँख के झरोके से
इक किरन के मोखे से
धूप के हिनाई हाथ
तश्तरी बढ़ाते हैं
चाहतों के मीठे रंग
ज़ाइक़ों के नादीदा
लम्स छोड़ जाते हैं
चूड़ियाँ खनकती हैं
हाथ बात करते हैं
अंग अंग हँसता है
पोर पोर के अंदर
दिल धड़कने लगता है
पोर पोर रोती है
ओढ़नी भिगोती है
ख़्वाब वो पड़ोसी है
जिस के उजले कुर्ते का
रोज़ इक बटन टूटे
दिल कि वो मोहल्ला है
जिस के बसने वालों से
रोज़ इक ख़ुशी रूठे
जाने कितने जिस्मों को
बे-रिया मोहब्बत की
आग चाट जाती है
जाने कितने नौ-मौलूद
ख़्वाब दफ़्न होते हैं
दिल के सर्द-ख़ाने में
जाने कितने रिश्तों को
दफ़्न करके चुपके से
वक़्त के गुनाहों पर
ख़ाक डाली जाती है
इन उदास गलियों में
सर्दियों की रातों में
दूर पार से आते
दिल-नवाज़ गीतों के
साँवले सलोने बोल
चाँद को रुलाते हैं
चाँद भोला-भाला है
चाँद को ये क्या मालूम
ज़िंदगी की नौटंकी
यूँही चलती रहती है
मुफ़लिसी की रक़्क़ासा
ताल पर ज़माने की
जाने कितनी सदियों से
एक जैसे बोलों पर
रक़्स करती रहती है
सुब्ह से ज़रा पहले
बेबसी के बिस्तर पर
वो जो आ के ढहती है
बिस्तरों के सब पैवंद
उस को गुदगुदाते हैं
बे-सबब हँसाते हैं
बे-सबब रुलाते हैं
उन गली मोहल्लों में
रात जब उतरती है
माएँ अपने बच्चों को
लोरियाँ सुनाती हैं
अपनी सर्द बाँहों का
पालना हिलाती हैं
ख़्वाब वो दिखाती हैं
अफ़सरी के शाही के
ख़्वाब कज-कुलाही के
चाँद और गुलाब उन के
मदरसे जो जाते हैं
क़मचियों से होता है
बचपने का इस्तिक़बाल
फूल जैसे जिस्मों पर
बेद जब बरसती है
दूर तक चटाई पर
इक क़तार में बैठे
लफ़्ज़ थरथराते हैं
सब वर्क़ किताबों के
ऐसे फड़फड़ाते हैं
जैसे जान खिंचती हो
उन की दर्स-गाहों में
क़मचियाँ मोअल्लिम हैं
क़मचियाँ मुदर्रिस हैं
क़मचियाँ रटाती हैं
सब्र अच्छी आदत है
सब्र और क़नाअत से
ज़िंदगी सँवरती है
उन गली मोहल्लों का
हुस्न कम-सुख़न भी है
और भोला-भाला भी
हाँ ये कम-सुख़न लड़का
भीगती मसों के साथ
घर से जब निकलता है
उम्र की हदें सारी
यूँ फलाँग जाता है
मुफ़लिसी हवस-पेशा
फूल जैसे गालों का
रंग चूस लेती है
भोली-भाली बातों से
रस निचोड़ लेती है
और फिर ज़माने के
बीच छोड़ देती है
पेट बे-हया दल्लाल
दर-ब-दर फिराता है
सौ जतन सिखाता है
छोटे छोटे क़स्बों में
घर के सामने बैठी
सीधी-सादी उम्मीदें
राह तकती रहती हैं
उम्र बीत जाती है
कुछ ख़बर नहीं मिलती
डाकिया जब आता है
चाहतों की पूँजी में
इक रक़म बढ़ाता है
और लौट जाता है
सीधी सादी उम्मीदें
घर से जाने वालों को
एक जैसे लफ़्ज़ों की
भेजती हैं सौग़ातें
वक़्त बूढ़ा मुंशी है
जिस को ख़त का सब मज़मून
लफ़्ज़ लफ़्ज़ अज़बर है
फिर भी पूछ लेता है
और क्या लिखूँ बोलो
फिर से अब के सावन में
साएबाँ टपकता है
तन की ओर इक दीवार
ढे गई है अब के बार
सीधी-सादी उम्मीदें
रोज़-ओ-शब की चौखट पर
उम्र काट देती हैं
जिस्म ख़ाक हो जाए
जान राख हो जाए
पेट तो जहन्नुम है
ये जवान रहता है
उन की आँख का सावन
चाहे कोई मौसम हो
मेहरबान रहता है
छोटे छोटे क़स्बों के
दुख अजीब होते हैं
सुख अजीब होते हैं
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