मैं कहता हूँ तुम से अगर शाम को भूल कर भी किसी ने कभी कोई धुँदला सितारा न देखा
तो इस पर तअ'ज्जुब नहीं है न होगा
अज़ल से इसी ढब की पाबंद है शाम की ज़ाहिरा बे-ज़रर शोख़ नागिन
उभरते हुए और लचकते हुए और मचलते हुए कहती जाती है आओ मुझे देखो मैं ने
तुम्हारे लिए एक रंगीन महफ़िल जमाई हुई है
अनोखा सा ऐवान है हर तरफ़ जिस में पर्दे गिरे हैं वहाँ जो भी हो उस को
कोई नहीं देख सकता
तहें इस के पर्दों की ऐसे लचकती चली जाती हैं जैसे फैली हुई सतह-ए-दरिया ने
उठ कर धुँदलके की मानिंद पिन्हाँ किया हो फ़ज़ा को नज़र से
ज़रा देखो छत पर लटकते हैं फ़ानूस अपनी हर इक नीम-रौशन किरन से सुझाते
हैं इक भेद की बात का गीत जिस में मसहरी के आग़ोश की लरज़िशें हों
सुतूनों के पीछे से आहिस्ता आहिस्ता रुकता हुआ और झिजकता हुआ चोर साया यही कह रहा
है वो आए वो आए
अभी एक पल में अचानक यूँही जगमगाने लगेगा ये ऐवान यकसर
हर इक चीज़ कैसे क़रीने से रखी हुई है
मैं कहती हूँ मानो चलो आओ महफ़िल सजी है
तुम आओ तो गूँज उट्ठे शहनाई दालान में आने जाने की आहट से हंगामा पैदा
हो लेकिन मसहरी के आग़ोश की लरज़िशों में तुम्हें इस का एहसास
भी होने पाए तो ज़िम्मा है मेरा
अज़ल से इस ढब की पाबंद है मौज-ए-बेताब उस को ख़बर भी न होगी कि इक शाख़-ए-नाज़ुक
ने बेबाक झोंके से टकरा के आहें भरी थीं
मगर मैं ये कहता हूँ तुम से अगर शाद को भूल कर भी किसी ने कभी कोई धुँदला सितारा
न देखा तो उस पर तअ'ज्जुब नहीं है
अज़ल से इसी ढब की पाबंद है शाम की शोख़ नागिन
ये डसती है डसते हुए कहती जाती है
जाओ अगर तुम झिजकते रहोगे तो
हर लम्हा यकसाँ रविश से गुज़र जाएगा और तुम देखते ही रहोगे अकेले अकेले
तुम्हें दाएँ बाएँ तुम्हें सामने कुछ दिखाई न देगा फ़क़त सर्द दीवारें हँसती रहेंगी
मगर उन का हँसना भी आहिस्ता आहिस्ता बीते ज़माने की मानिंद इक दूर की बात मालूम होने लगेगा
धुँदलके में डूबी हुई आँख देखेगी रौज़न से दूर इक सितारा नज़र आ रहा है
मगर छत पे फ़ानूस का कोई झूला न होगा
शिकस्ता फ़तादा सुतूनों की मानिंद फ़र्श-ए-हज़ीं पर तुम्हारा वो साया तड़पता रहेगा जिसे
ये तमन्ना थी कह दूँ तमन्ना क्या थी
बस अब अपनी ग़मनाक बातों को अपने उभरते हुए और बदलते हुए रंग में तू छुपा ले
मैं अब मानता हूँ कि तू ने रवानी में अपनी बहुत दूर रौज़न से धुँदले
सितारे भी देखे हैं लाखों
मैं अब मानता हूँ मिरी आँख में एक आँसू झलकता चला जा रहा है टपकता नहीं है
मैं अब मानता हूँ मुझे दाएँ बाएँ मुझे सामने कुछ दिखाई नहीं दे रहा है फ़क़त
सर्द दीवारें हँसती चली जा रही हैं
मैं अब मानता हूँ कि मैं ने इस ऐवान को आज तक अपने ख़्वाबों में देखा है लेकिन
वहाँ कोई भी चीज़ ऐसे क़रीने से रक्खी नहीं है
कि जैसे बताया है तू ने तिरी एक रंगीन महफ़िल सजी है
मसहरी के आग़ोश की लरज़िशों का मुझे ख़्वाब भी अब न आएगा मैं अपने
कानों से कैसे सुनूँगा वो शहनाई की गूँज सिन्दूर
का सुर्ख़ नग़्मा जिसे सुन के दालान में आने जाने की आहट
से हंगामा हो जाता है एक पल को
मुझे तो फ़क़त सर्द दीवारें हँसती सुनाई दिए जा रही हैं
- पुस्तक : Kulliyat Meeraji (पृष्ठ 129)
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