मिरे लोगो! मैं ख़ाली हाथ आया हूँ
कई मंज़र बदलते हैं
खुली आँखों के शीशे पर सुलगती ख़ाक का चेहरा
चराग़ों का धुआँ,
खिड़की,
कोई रौज़न...
हवा के नाम करने को हमारे पास क्या बाक़ी, बचा है?
लहू के पर लगी सड़कें
कटे सर पर बरसती जूतियों के शोर में जागा हुआ
बे-ख़ानुमाँ नाम-ओ-नसब,
मातम-कुनाँ गिर्या-कुनाँ आँखें,
शिकस्ता-रू सहर की सिसकियाँ...
जैसे
मसीहाओं के उजले पैरहन पर ज़ख़्म भरने की
रिवायत नक़्श होती है
हमारे पास क्या बाक़ी बचा है?
तिलिस्म-आवर शुऊरी क़हक़हे
किरनें!
दुर-ए-महताब से निकली हुई कुछ मुस्तरद किरनें
रिदाएँ!
जिन के कोनों से बंधे सिक्के
मिरा तावान ठहरे हैं
लहू तावान में दे कर
मैं ख़ाली हाथ आया हूँ
मिरे लोगो!
भँवर की राह से बच कर मैं ख़ाली हाथ आया हूँ
मुझे किस ने बुलाया था!
किसी उम्मीद से मंसूब रस्ते ने
जहाँ शाख़-ए-समर अब तक शजर की कोख से बाहर नहीं निकली
जहाँ
जीवन की लम्बी आस्तीं साँस लेता है
मिरी आहों का सन्नाटा!!
- पुस्तक : Quarterly TASTEER Lahore (पृष्ठ 104)
- रचनाकार : Naseer Ahmed Nasir
- प्रकाशन : H.No.-21, Street No. 2, Phase II, Bahriya Town, Rawalpindi (Volume:15, Issue No. 1, 2, Jan To June.2011)
- संस्करण : Volume:15, Issue No. 1, 2, Jan To June.2011
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