मेरे पहलू से सरकता हुआ दिन ढल जाए
तेरी ज़ुल्फ़ों में महकती हुई रात
अपनी आग़ोश में ले जाए
मिरे दिल का क़रार
रफ़्ता रफ़्ता तिरी ख़ामोश निगाहों में कहीं
रात के पिछले पहर
चाँद उभर आए अगर
मिरे सीने में जो घनघोर ख़ला है उसे रौशन कर दे
ज़िंदगी मुझ को तिरी सोख़्ता चालों की क़सम
मौत मंज़ूर है लेकिन तिरा ये दोग़ला-पन
जीने देता नहीं इंसाँ को सरापा एहसास
क्या हुआ मैं ने कहीं सच तो नहीं कह डाला
झूट हर उन्स की ईजाद कहाँ है बतला
सच भी तो सानिहा-ए-ज़ीस्त का पर्वर्दा है
तेरा होना भी तो याँ मेरे तईं है रो ले
तेरा हँसना भी ख़ुदा ख़ैर करे मार न दे
मेरे पहलू से सरकता हुआ दिन आ पहुँचा
तेरी ज़ुल्फ़ों में महकती हुई रात
ढल भी चुकी
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