रहगुज़र
फिर वही बढ़ते हुए रुकते हुए क़दमों की चाप
फिर वही सहमी हुई सिमटी हुई सरगोशियाँ
फिर वही बहकी हुई महकी हुई सी आहटें
फिर वही गाती सी लहराती सी कुछ मदहोशियां
ज़िंदगी तूफ़ान थी सैलाब थी भौंचाल थी
वक़्त फिर भी करवटों पर करवटें लेता रहा
क़ाफ़िले इस राह पर आते रहे जाते रहे
राहबर सब को मसाफ़त का सिला देता रहा
वो तबस्सुम जिस को रोते हैं कई उजड़े सुहाग
बन रहा है इक लचकता ख़ार अपने पाँव में
वो नज़र जो कल तलक हर जिस्म को डसती रही
आज सुस्ताने लगी है मस्लहत की छाँव में
कितनी उम्मीदों के मदफ़न उस के हाथों बन चुके
कितने अरमानों के लाशे उस ने ख़ुद कफ़्नाए हैं
आह ये मक़्तल कि जिस के पासबानी के लिए!
कितने मुस्तक़बिल फ़ना के दोश पर लहराए हैं
कुल्फ़तों से तंग आ कर बे-ख़ुदी की खोज में
क़ाफ़िले इस राह पर आते रहें जाते रहें
राहबर सब को मसाफ़त का सिला देता रहे
राह-रौ अपने तजस्सुस का सिला पाते रहें
- पुस्तक : kalam-e-qateel shifai (पृष्ठ 65)
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