रेल का सफ़र
दरपेश अचानक जो हुई एक ज़रूरत
'वाही' से हुई रेल पे चढ़ने की हिमाक़त
आ धमकी ज़रा वक़्त से पहले ही वो गाड़ी
'वाही' ने घड़ी देखी तो लाहक़ हुई हैरत
हैरत थी कि ताजील की क्या वजह है आख़िर
ताख़ीर तो है रेल की देरीना रिवायत
अल-क़िस्सा टिकट मंज़िल-ए-मक़्सूद का ले कर
अस्बाब लिए दौड़ के पहुँचा वो ब-उजलत
आगे से भी पीछे से भी खाता हुआ धक्के
दाख़िल हुआ इक छोटे से डब्बे में ब-दिक़्क़त
डिब्बा था कि इक गंज-ए-शहीदाँ का नमूना
थोड़ी सी जगह तंग-तर अज़-गोशा-ए-तुर्बत
तुर्बत में मगर पाँव तो फैलाते हैं मुर्दे
ज़िंदों को नहीं रेल में उस की भी सुहूलत
अस्बाब पे बैठा था कोई टाँग अड़ाए
खिड़की पे खड़ा था कोई दीवार की सूरत
इस भीड़ में गुंजाइश-ए-अल्फ़ाज़ कहाँ थी
अल्फ़ाज़ भी होंटों से निकलते थे ब-दिक़्क़त
था दम-ब-ख़ुद इक गोशे में सिमटा हुआ 'वाही'
कम-बख़्त को थी साँस के लेने की ज़रूरत
और साँस के लेने का न था कोई भी इम्काँ
थी बंद हवा ऑक्सीजन की थी ये क़िल्लत
थे एक बुज़ुर्ग उस के मुक़ाबिल में जो बैठे
देखी न गई उन से जो 'वाही' की ये हालत
फ़रमाने लगे आप कहाँ जाओगे भय्या
बर्दाश्त भी कर पाओगे रस्ते की सऊबत
ये रेल नहीं हज़रत-ए-'सौदा' की है घोड़ी
दौर-ए-ज़मीं तय करती है इक दिन की मसाफ़त
कल इस को पहुँचना था जहाँ आज है पहुँची
चौबीस पहर लेट है अल्लाह रे सुरअत
मैं अपनी तबाही का बयाँ क्या करूँ भय्या
पटना में थी कल मेरे मुक़द्दमे की समाअ'त
पटना है मगर आज भी दिल्ली की तरह दूर
रोती है मिरी शामत-ए-आमाल को क़िस्मत
ये सुनते ही कान उस के खड़े हो गए फ़ौरन
की अर्ज़ कि ये आप ने क्या कह दिया हज़रत
मैं ने तो ये समझा था कि है वक़्त पे आई
चौबीस पहर लेट क़यामत है क़यामत
बोले वो बुज़ुर्ग आप बड़े सादा हैं भय्या
हम लोग किसी काम में करते नहीं उजलत
मालूम नहीं आप को ये नुक्ता-ए-तारीख़
जो क़ौम की ख़सलत है न ही रेल की ख़सलत
वो रेल की रफ़्तार हो या वक़्त की रफ़्तार
इस मुल्क में दोनों को तसाहुल की है आदत
पाबंदी-ए-औक़ात में है शान-ए-ग़ुलामी
आज़ाद हुआ हिन्द तो क्या इस की ज़रूरत
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