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शहर से बाहर निकलते रास्ते

वली आलम शाहीन

शहर से बाहर निकलते रास्ते

वली आलम शाहीन

MORE BYवली आलम शाहीन

    सोचता हूँ मैं

    तुम्हारे ज़ेर-ए-लब हर्फ़-ए-सुख़न में

    कोई अफ़्साना है मुज़्मर या हक़ीक़त या फ़रेब-ए-पुख़्ता-काराँ

    मैं नज़र रखता हूँ तुम पर

    और तुम्हारी आँख है पैहम तआ'क़ुब में किसी इक अजनबी के

    अजनबी जो ख़ुद हिरासाँ और परेशाँ-हाल है

    दूसरी जानिब सड़क पर देर से इक और शख़्स

    झूट को सच कह के जो एलान करता फिर रहा है

    दिल ही दिल में डर रहा है

    उड़ते जाते हैं सभी चेहरों के रंग

    गठरियाँ अपनी समेटे

    शहर से बाहर निकलते रास्तों पर हर कोई है गामज़न

    इस बे-ए'तिबारी आगही के दरमियाँ

    इक असा-बरदार कुछ कहता हुआ

    जिस का इक इक लफ़्ज़ पैवस्ता है

    यूँ इक दूसरे से

    जिस तरह नज़दीक तर आते हुए क़दमों की चाप

    स्रोत :
    • पुस्तक : pushtara (पृष्ठ 143)

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