शिकस्त
घने दरख़्त के साए में कौन बैठा है
तसव्वुरात की सौ मिशअलें जलाए हुए
रियाज़-ओ-फ़िक्र की लहरें जवान चेहरे पर
सियाह ज़ुल्फ़ मशिय्यत का दिल चुराए हुए
ये इज़्तिराब कि अंदर का दिल धड़कता है
ये इर्तिआ'श कि कोहसार थरथराए हुए
ये आदमी न कहीं ज़ब्त-ए-ज़िंदगी सह कर
मुझी से छीन ले मेरे कँवल जलाए हुए
कहो कहो किसी रंगीन तीतरी से कहो
कि अपने होंटों पे नग़्मों का बार उठाए हुए
ज़मीं की सम्त रवाना हो बिजलियों की तरह
जला के राख ही कर दे महल बनाए हुए
वो मेनका ने फ़ज़ाओं में राग छेड़ा है
वो घुंघरूओं की सदाएँ ज़मीं उठाए हुए
ऋषी की आँखों में उस रागनी से दीप चले
लबों से खींच लिया रस नज़र मिलाए हुए
सुना है आज भी अंदर का तख़्त बाक़ी है
वही हैं रंग-महल अब भी जगमगाए हुए
मगर अभी मिरे माथे पे नूर रक़्साँ है
मिरी शिकस्त से परवरदिगार लर्ज़ां है
- पुस्तक : Aina Khane (पृष्ठ 100)
- रचनाकार : Akhtar payami
- प्रकाशन : Zain Publications (2004)
- संस्करण : 2004
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